दुनिया की छत पर: स्त्री और प्रेम

प्रेम हमारी सभ्यता और संस्कृति की अदम्य शक्ति है। मोहब्बत, दोस्ती और खूलुस की


धार्मिकता आत्मसात कर ली जाए तो शायद सभी समस्याओं का समाधान मिल जाए।


 


अठारह बरस की लड़की बौराए हुए बसन्त की मादक गन्ध को याद कर ही रही थी कि चैत की अल्हड़ हवाएं आ पहुंची और लड़की की देह अमलतास के पीले सुनहले गुच्छे की तरह लचक उठी, रक्त में खिले नन्हे-नन्हे गुलाबों की खुश्बू साँसों में समा गई थी। आईने में खुद को निहारते, उसने होठों और कपोलों की सुर्ख को सिर्फ देखा ही नहीं था, गुलमोहर की ठंडी आग को होठों में सुलगता भी महसूस किया था।


वे कौन-से दिन थे? कौन-सी रातें ? जब अष्टमी का चाँद दूधिया कटार की तरह रात को चीरता था तो कतरा-कतरा बरसती चाँदनी को लड़की अपने रोम-रोम में समोती थी। पसीने से भीगी हथेलियों की मुट्ठी बाँधकर सोचती थी शायद इसमें वे पल बन्द हो गए हैं जब जिन्दगी तितली के परों पर सवार थी, और चन्द लम्हों में ही मिल गया था वो सब कुछ जिसे पाने के लिए सौ-सौ जनम भी कम पड़ते हैं। अनजाना-सा कोई इतना अपना लगने लगा था कि उसकी नजरें बर्फ की सिल पर गिरते गुनगुने पानी की तरह लड़की के वजूद को पानी में बदल रही थी। नदी में तब्दील हो चुकी लड़की की सोच में अब भँवर पड़ने लगे थे और अक्सर ख़ामोशी से बहने के बावजूद किसी सुनसान मोड़ पर वह खुद से बतियाने लगी थी। किनारों को पता था नदी अब कहाँ जाएगी ? अनजान सफर पर चल पड़े मुसाफिर की तरह नदी अपनी मंजिल की तरफ बही और समन्दर में समा गई। किनारों ने ठंडी साँस भरी और पेड़ों से बतियाने लगे।


बरसों बाद, अपने अतीत को तहाती और सुहानेपन को समेटती भरपूर जिन्दगी में भी एक अकेली औरत ने बादाम की मंजरी को लहराते देख फिर से बीते दिनों को याद किया, प्रेम के गलियारे से गुजरती लड़की ने प्रेम किया नहीं था, प्यार को कुछ इस तरह से जिया था कि समय की सीमाएँ टूट गई थीं, वक्त के मायने बदल गए थे। किसी अनजान के प्यार में खोकर लड़की ने ख़ुद को पाया था। अर्सा बाद अपनी बेटी के यह पूछने पर कि वह उसको पिता जी से कब और कहाँ मिली थी ? काँपते होठों से कुछ अस्फुट शब्द निकले थे- 'सदियों पहले मोअन जो दड़ो में, दुनिया की छत पर:      



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