नवगीत
अब कभी अभिभूत होता
है नहीं यह मन
छूटे उपवन सुखद-सुमंगल
चाहों की सरगम
सुन चिड़ियों का चीख-चिल्लाना
दिन जग जाता है
तिमिर भरा हर दिवस लगे
जो तुम न पास रहे
सजधज की न रहे तमन्ना
दर्पण धूल चखे
संकलपों की साँकल जर्जर
बेकाबू होकर
तानें-मेने व्यंग्य-बोलियों
से भरती आँगन
पीड़ाएँ उमड़ी नवगीतों
की परियाँ बन-बन
संवेदन जतलाने बैठे
पेट-पोंछने भाव
नाखुन चबा विसर्जित करती
रही अचंचल चाव
दूध-धुले विश्वासों वाले
चुम्बन रूठ गये
पगली पायल की चूड़ी से
होती है अनबन
सपनों का आधार और
आकार रहे सहमा
पत्थर बन न सका कलेजा
मुट्ठी में उलझा
महुआ फूला, महकें फूलीं
मन का ठूठ बुझा
पलकें बिछी रहीं राहों में
गिरे नहीं शबनम
किससे दिल का बोझ बँटाए
अर्धमृत यह तन