मैका’ मोहे बिसरत नाही

नारी मन के अत्यंत निकटवर्ती तीन अक्षर याने 'मायका' या 'पीहर' के लिए लगाव स्वाभाविक है, क्योंकि वहाँ उसने जन्म लिया है, जन्मदात्री ने उसका पालन पोषण किया है। शादीशुदा नारी के लिए मायके के मायने क्या हैं? ये न तो समझाए जा सकते हैं और न ही कोई इसे समझ सकता है। जिन्दगी का सबसे खूबसूरत हिस्सा जीकर, घर की गृहस्थी की जिम्मेदारियों में पड़ी नारी के लिए हमेशा मायका जेठ की तपती दोपहरी में ठंडी हवा के झोंके की तरह हुआ करता है।


कई बार उसके लगाव पर टीका टिप्पणी भी की जाती है। कभी-कभार व्यंग्यबाण भी छोड़े जाते हैं। महाराष्ट्र में माहूर गाँव की रेणुका देवी का वक्तव्य है मैका या माहूर का अर्थ है 'माँ का घर'। आगे वे कहती है कि 'पुरुष प्रधान संस्कृति में ससुराल स्त्री को तोहफे में दिया है और वह एक निरन्तर घूमते हुए चक्र में अटक गई है। ससुराल में वह रहती ही इसलिए है कि उसकी बेटी को भी उसका मायका मिले इस वक्तव्य में सारी सृष्टि का सार मंत्ररूप समाया हुआ है।'


स्त्री सृष्टि चक्र की एक महत्वपूर्ण घटक है। वह नव निर्माण में सक्षम है। इसीलिए सृष्टिचक्र चल रहा है, इस संदर्भ में देखा जाय तो संपूर्ण सृष्टि ही मनुष्य-मात्र का मायका है। जब माँ मिलती है-परिवार के लोग, गाँव-शहर के लोग मिलते हैं तो उसे अपना बचपन याद आता है, स्मृति की मंजुषाएँ खुलने लगती है। उनसे मिलकर... जिन्दगी की तपन से निकलकर.... घनी अमराई की छांट तले बैठने का सुख वह महसूस करती है। मायका नारी को एक अलग की प्रकार की निर्बधता देता है, जिसकी व्याख्या संभव ही नहीं है।


पुराणों के प्रसंगों में वर्णित है कि ''मानस कन्या शकुन्तला को ससुराल भेजते समय कण्व ऋषि भावविव्हल होकर सोचने लगे थे कि, भावभुक्त होने के बावजूद मैं अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पा रहा हूँ। माता-पिता कैसे इस दुःख को सहते होंगे? मुझे लग रहा है कि मैंने कन्या नहीं कनक कोष ही उसके पति को सौंप दिया है''।


ससुराल जाने के बाद ही समझ आता है कि मायका क्या होता है? संसार शुरु होता है भले ही वह अकेला परिवार हो या भरा-पूरा परिवार। भले-बुरे अनुभवों से गुजरना तो पड़ता ही है। कालांतर में वह अपनी गृहस्थी में रच-बस जाती है परंतु यादों के संदूक में मायका सुरक्षित रहता है।


जिंदगी की पगडंडी से गुजरते समय कई बार हमें ठेस लगती है, हम घायल होते हैं उस वक्त निकटवर्तियों का आधार तो हमें सबंल देता ही है, पर साथ ही मायके की ओर जाने वाले रास्ते का पत्थर भी कहता है कि धीरे सम्हलकर चलो ताकि फिर से ठेस ना लगे। मैं और कोई नहीं रास्ते का एक पत्थर मात्र हूँ जो रास्ता तुम्हारे मायके की ओर जाता है।


निःसंदेह यह एक कवि कल्पना है पर कितनी सुंदर मायके का पत्थर भी


सावधान रहने को कहता है। ऐसी सरल-सुंदर रचनाएं सुनते, पढ़ते समय अंतर्मन में सूक्ष्म तरंगे उठने लगती हैं और मन का चित्रकार कैनवस पर अपनी कूची चलाने लगता है, जैसे किसी एक शाम को बेटी माँ से मिलने के लिए व्याकुल हो उठी कि वह जाकर माँ से अपनी व्यथा कह डालूं। शाम के धुंधलके में जब वह माँ के पास पहुंची। उसे देखते ही मां उससे लिपट गई। बेटी जान गई कि माँ आज व्यथित है कुछ कहना चाहती है उसने माँ को अपने अंकों में भर लिया और कहा कि- माँ तुम्हारी भी तो कोई व्यथा हो सकती है, उसे कौन सुनेगा यह तो मैं भूल ही गई थी।


पिछले दिनों मैं भी अपने मायके आई थी, रक्षा बंधन पर्व मनाने। मेरी पड़ोसन सहलेी आई मुझे मिलने उसने बताया कि उसकी माँ बहुत बिमार है शायद मैं भैय्या को राखी भी ना बांध पाऊँ क्योंकि मन ठीक नहीं है, मुझे देखते ही उसकी सब्र का बांध टूट गया रोते-रोते कहने लगी तुझे 'कुसुमाग्रज' की कविता याद है। तुम्हें जिसका निहितार्थ है- लाखों की संख्या में जलती हुई स्ट्रीट लाइटों को देखकर लगता है कि चमचम तारकों का दल नगर में उतर आया हो। पर मुझे तो वही देवघर में जलने वाले मंद-मंद दीए की 'लौ' की ही याद आती है, ठीक माँ भी मंद-मंद दीए-सी रोशनी सी जल रही है कभी भी बुझ सकती है। मेरे मानस पटल पर उसकी माँ का चेहरा घूम गया और मैं उसके साथ उसकी ममतामयी से मिलने पडौस में चली आई। देखा कि भैय्या-भाभी माँ के पास अनमने से बैठे थे। मुझे देखते ही भैय्या ने कुशल क्षेम पूछी और माँ की ओर देखकर रो दिए। इतने में माँ ने हाथ हिलाया मैंने उनसे बोलना चाहा लेकिन उनसे बोला नहीं गया।


शाम को फोन पर मेरी सहेली सुबकते हुए कह रही थी कि माँ नहीं रही। लगा जैसे सहसा गर्भगृह का दीपक बुझ गया हो सुनते ही मेरे मानस पटल पर भी अंधेरा छा गया।


मायके की अधिकांश यादें माँ के साथ जुड़ी हुई है..... पर कब तक इसकी महति। मेरी चाची जो एक कवियत्री भी है, कहती है-


माँ है।


तो मायका है।


पिता है तो।


आना जाना है।


बहना को भी मैके का।


बहाना है।


आगे।


लोक लाज के डर से।


भाई को तो तुम्हें बुलाना है.....।


खैर। कुछ भी हो ससुराल की दीवारे संगमरमरी होने के बावजूद मायके की दीवारों की बराबरी नहीं कर सकती। मायक 'मायका' ही होता है इसीलिए भारतीय नारी-मानस कहता है- ''मैका मोहे बिसरत नाहिं'



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