सांस्कृतिक सामंजस्य में नौनिहालों के लिए दिशाहीन अंधेरा

देश की गरिमापूर्ण सभ्यता और वैदिक सनातन संस्कृति जो वेदों की ऋचाओं से रची है और नैतिक मान्यताओं की नींव पर खड़ी है। उसकी समझ देश के नौनिहालों को अपनी शिक्षा से कैसे मिलेगी, जब उन्हें अधूरी सनातन शिक्षा और उधार ली गई आधुनातन पश्चिमी प्रशिक्षण प्राप्त होगा। कुछ ही दिन हुए जब सभी बोर्डो के परीक्षा परिणाम निकले। नौनिहालों ने 500 में से 499 अंक प्राप्त करके और सभी बोर्डो में सैकड़ों बच्चों ने पहले रैंकों पर कब्जा करके मां-बाप को चुंधिया दिया। सबको लगा जैसे उनके घर


असाधारण जीनियस बच्चे पैदा हो गए हैं। लेकिन यह तो जीवन समर के लिए प्राप्त करने वाली शिक्षा का प्रारम्भ था। शिक्षा के विकल्प इस देश में बहुत कम हैं। कुछ वर्ष पहले सबसे भाग्यशाली वह माने जाते थे, जो मैडिकल शिक्षा के लिए चयनित हो जाते थे। इसके बाद अभिभावक इंजीनयरिंग शिक्षा क्षेत्र का चयन करते थे। अब ज्यों-ज्यों आधुनिक और वृहद पैमाने के व्यापार का बोलबाला बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा देश में हो गया तो अभिभावकों ने अपने बच्चों को व्यवहारिक प्रशासन और व्यापार क्षेत्र की विशिष्ट शिक्षा बी.बी.ए., बी.सी.ए. और एम.बी.ए. के अधीन देनी शुरू कर दी। सी.ए. का मूल्य बढ़ गया। इनके प्रारम्भिक कोर्स शुरू हो गए लेकिन इस देश में शिक्षा मिशनरी उत्साह से नहीं दी जाती। प्रशासन और सरकारें शिक्षा के महत्व को पहचानती नहीं। योजना आयोग और अब नीति आयोग बार-बार कहता रहा कि कुल सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम 6 प्रतिशत तो शिक्षा के विकास पर खर्च कीजिए। हर बजट में न जाने कितने एम्स, आई.आई.टी. और व्यापारिक प्रशासन के उच्च संस्थान खोलने की घोषणा हुई। लेकिन आज भी हालत यह है कि विश्व की पहले 200 विश्वविद्यालय और पहले विशिष्ट शिक्षा संस्थानों में भारत का नंबर कहीं नहीं।


परिणामों की घोषणा के बाद इस समय अभिभावकों के लिए दाखिला सत्र शुरू हो गया। वे अपने नौनिहालों को लेकर जगह-जगह भारी फीस भरकर दाखिला परीक्षाएं दिलवा रहे हैं लेकिन हमारी शिक्षा प्रणाली का यह बोलो राम कि जिस बहुचयन प्रणाली के प्रश्न-पत्रों ने उनको पिछली डिग्री से 500 में से 499 अंक दिए थे, अब इन परीक्षाओं में वह प्रश्न प्रणाली ही बदल गई। अब यही चमकते हुए नंबर वाले छात्र इन दाखिला परीक्षाओं में असफल हो रहे हैं। शिक्षा संस्थान दुकानदारी बन चुके हैं। एक तो सरकारी मान्यता प्राप्त फीसें ही इन शिक्षा संस्थानों में जिनमें से 80 प्रतिशत निजी संस्थानों का है, कम नहीं लाखों में है और उन्हें वहां सीट नहीं मिलती तो प्रबंधकीय कोटे की सीटें तो 15-20 लाख से कम में नहीं बिकतीं। एम.एस. और एम.डी. की चिकित्सा डिग्रियों का दाखिला तो कथित रूप से करोड़ों में जा रहा है। बच्चे क्या करें? जब ऐसी खर्चीली शिक्षा के बाद वे जीवन समर में कूदते हैं तो अगर डाक्टर हैं तो उन्हें अपना क्लीनिक या अस्पताल बनाने के लिए लाखों और करोड़ों रुपये चाहिएं। इंजीनियरिंग की डिग्री की है तो सेवा क्षेत्र में तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियां उनकी योग्यता से कम वेतन देती हैं और दोगुना काम करवाती हैं। पिछली पारी से स्वरोजगार अपनाने पर भी बहुत बल दिया जाता रहा। मुद्रा योनजा भी शुरू हुई।  लेकिन उसमें बंटने वाली राशि इतनी कम थी कि पिछले वर्ष औसत 43 हजार रुपये से अधिक किसी को नहीं मिला। इसलिए देश के स्वनाम धन्य नेताओं ने ऐसे उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों को पकौड़े तलने और बैंड बजाने की सलाह भी दे दी। अब भला ऐसे काम शुरू करके आप किस तरह की सभ्य और सुसंस्कृत पीढ़ी के उभरने की उम्मीद कर रहे हैं? क्या वे नैतिकता विहीन नहीं होगी? क्या वे वंशवाद और परिवार पोषण को ही इस युग का धर्म नहीं मानेंगे। उनसे राष्ट्र निर्माण की उम्मीद भला कैसे की जा सकती है? जबकि वे इन डिग्रियों के बावजूद सिफारिशी तंत्र में उलझने के कारण अपने मां-बाप के सपनों को खंडित होता हुआ देखते हैं। इंजीनियरिंग की मांग थी, लेकिन वहां पर भी नेताओं, प्रशासकों, इंजीनियरों और ठेकेदारों की जुंडली उन्हें ईमानदारी से काम नहीं करने देतीं। ऐसी घटनाएं सामने आईं कि जब किसी ने इस दुष्चक्र का सामना करने का प्रयास किया तो उसे मौत के घाट उतार दिया गया। जहां तक व्यवसायिक प्रशिक्षा का संबंध है, वहां पर भी बड़े-बड़े व्यवसायिक घरानों की दीवारें खड़ी हैं जिनमें योग्यता नहीं बल्कि रसूख, सिफारिश ही उनके लिए खिड़कियां खोलती हैं। ऐसी हालत में नौजवान क्या करें? उनके पास कोई विकल्प नहीं, सिवाय इसके कि वे विभिन्न संस्थानों की दाखिला परीक्षाओं के प्रांगण में भीड़ लगाकर खड़े रहें और मैरिट में आने का इंतजार करें।


योग्य छात्रों के लिए समुचित दरवाजे खुलें इसलिए हर बजट में नये शिक्षा संस्थान खोलने की घोषणा होती है। अभी न्यायपालिका ने भी सिफारिश की और पंजाब सरकार के मंत्रिमंडल में भी विचार हुआ कि किसी प्रकार इन शिक्षा संस्थानों में छात्रों और अभिभावकों पर पड़ा फीसों का भारी बोझ घटाया जा सके लेकिन निजी क्षेत्र के प्रभावशाली लोगों ने ऐसा होने नहीं दिया। अब तो लगता है शिक्षा क्षेत्र में भी अपने-अपने हिस्से का हिंदुस्तान बांटने की कोशिश हो गई। अभी पंजाब सरकार ने मैडिकल कालेजों में दाखिले के नियमों में बड़ा फेरबदल कर दिया। राज्य से बाहर पंजाबी पूरे देश ही नहीं, विदेश में भी जी रहे हैं। उनके बच्चों के लिए एम.बी.बी.एस. और बी.डी.एस. में दाखिला मिल जाना एक आकर्षक बात है। सरकार ने अभी फैसला किया कि डोमीसाइल आधार पर उन्हें दाखिला दे दिया जाए। इससे पहले 2014 में नियम बना था कि बच्चों को दसवीं करके 11वीं, 12वीं कक्षा पंजाब में करना जरूरी हो तो उन्हें दाखिला मिल जाएगा। अब यह नियम हटा, उसकी जगह बन गया मूल निवास प्रमाण पत्र। राज्य से बाहर रह रहे पंजाबी लम्बे समय से यह मांग कर रहे थे कि जब अन्य बहुत से राज्यों में और दिल्ली में भी डोमीसाइल आधार पर दाखिले की प्राथमिकता है तो पंजाब में क्यों न हो? राज्य में खुली व्यवस्था थी। यहां 8 मैडिकल कालेज जिनमें 3 सरकारी और पांच निजी हैं। 1125 एम.बी.बी.एस. सीटें और 1600 बी.डी.एस. सीटे हैं, इस नये फैसले से 956 सीटें एम.बी.बी.एस. की पंजाबियों को मिल जाएंगी और 1360 बी.डी.एस. की पंजाबियों को मिल जाएंगी। जिन प्रवासियों ने 11वीं, 12वीं चाहे किसी भी जरूरी कारण से पंजाब में की उन्हें दाखिला बाकी रह गए 15 प्रतिशत में मैरिट के आधार पर ही मिलेगा क्योंकि इन संस्थानों की 85 प्रतिशत सीटें तो मूल निवासी विद्यार्थियों के लिए आरक्षित हो गईं। आज मैडिकल में, कल इंजीनयरिंग में और परसों प्रशासनिस विद्यालयों में यही नियम लागू होगा। क्या इस तरह से हम शिक्षा के अवदान को संकुचित नहीं कर रहे? उन्हें अपनी-अपनी इलाकाई प्राथमिकताओं से बांध नहीं रहे? ऐसी दृष्टि से शिक्षा के क्षेत्र में एक राष्ट्रीय नीति का विकास कैसे होगा? लेकिन यहां तो यही हाल है कि खुदा-खुदा करके अगर नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रारूप घोषित हुआ तो दक्षिण के तामिलनाडु, कर्नाटक,


आंध्र और पश्चिमी बंगाल इत्यादि राज्यों में हिंदी को थोपने की बात कहकर सन 1966 से प्रस्तुत त्रिभाषाई शिक्षा नीति फामरूले को निर्थक बना दिया क्योंकि अब सरकार ने कह दिया है कि हिंदी पढ़ने की अनिवार्यता नहीं होगी। अपनी संस्कृति और सभ्यता पर गौरव करने वाले लोग विचार करें कि छोटे-छोटे स्वार्थो के लिए हम देश की राष्ट्रीय संरचना और सोच पर कितना बड़ा प्रहार कर रहे हैं?    



Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य