अतिथि संपादक: नासिरा शर्मा


संपादकीय


सासानी काल में ईरान की सरकारी, दरबारी, धार्मिक भाषा 'पहलवी पारसी' थी मगर अरब आक्रमण के बाद जनता की भाषा पहलवी न रह सकी चूंकि अब ईरान की सरकारी व धार्मिक भाषा अरबी थी। अरबी भाषा के प्रचलन ने धीरे-धीरे करके पहलवी भाषा को समाप्त कर दिया। पहलवी भाषा का साहित्य पुस्तककालय की शोभा बन गया। दम तोड़ने से पहले ही पहलबी भाषा ने ईरान की अन्य बोलियों पर अपना प्रभाव छोड़ा। इसमें कोई शक नहीं कि पहलबी लिपि के अपने दोष थे। वो पढ़ी कुछ और लिखि कुछ जाती थी। इस कठिनता के कारण अवाम ने अरबी लिपि को कुछ समय में ही अपना लिया। यह बदलाब महत्वपूर्ण था जिसने ईरान की अन्य भाषाओं को भी प्रभावित किया। अरबी भाषा का प्रभाव चैथी शताब्दी से लेकर छटी व सांतवी शताब्दी तक तेज़ी से बढ़ता रहा। गो की पहलवी व अरबी भाषा के प्रभाव में पनपने वाली अन्य बोलियाँ और भाषा साहित्य का आँचल विस्तृत था जिनके नाम इस प्रकार हैं- अज़री बोली, फारसी बोली, केन्द्रीय ईरान की बोलियां, तबरी बोली, गीली बोली सुग़ज़ी बोली, ख़ुरासानी बोली, सुग़दी बोली, ख़ारज़मी बोली इत्यादि।


पूर्व ईरान की बोली और उपभाषाएँ इन बोलियों में सबसे महत्पवूर्ण थीं और अन्य अहम साहित्यिक बोलियां जैसे पहलवी अशकानी, सुग़दी प्राचीन, तुख़ारी और ख़ारज़मी के पदचिन्ह मौजूद थे। उस समय याक़ूब, पिसरलेस सफ्फार ने इन बोलियों के महत्व को समझा और उन्हें प्रोत्साहित किया इसका परिणाम यह हुआ कि चैथी शताब्दी के अन्त तक आते आते इन बोलियों का ऐसा विकास हुआ कि फारसी की शायरी अरबी शायरी की बराबरी करने लगी। इस काल का सबसे महान ईरानी कवि हकीम अबुल क़ासिम फिरदौसी गुज़रा है।


चैथी शताब्दी तक ईरानी साहित्य पर अरबी भाषा का प्रभुत्व बढ़ा जिसके कारण ईरानी साहित्यकार अपनी रचनाएँ अरबी भाषा में लिखने लगे जिनमें-खास नाम ज़करियाराज़ी, रूदकी, दक़ीक़ी हैं। इस शताब्दी के अंत में कुछ व्यक्तित्व ऐसे उभर कर आए जो विश्व स्तर पर पलक झपकते ही लोकप्रिय हो गए जैसे- अबुरेहान बैरूनी और अबुअली-बिन-सीना।


सलमानी परिवार ईरान के नामी परिवारों में से था जिसका संबंध सासानी सरदार बहराम चुबीन से था। इस परिवार की रूचि ईरानी कला साहित्य और रस्मोरिवाज में गहरी थी। उसने साहित्यकारों और अनुवादकों को विशेष रूप से बढ़ावा दिया- मिसाल के तौर पर कलीले-व-दमने चूंकि संस्कृत से अरबी भाषा में उपलब्ध थी उसे सरल फारसी गद्य में अनुवाद कराया ताकि पाठक अपनी जिज्ञासा और दिलचस्पी शांत कर सकें। फिर कुछ समय पश्चात प्रसिद्ध कवि रूदकी ने उसे गद्य से पद्य में अनुवाद किया।


ईरान के भाषा साहित्य का सबसे ज्वलंत व गरिमामय काल चैथी शताब्दी थी जब फारसी अपने पूरे शबाब और निखार से रूदकी, दक़ीक़ी व फिरदौसी के काव्य साहित्य में विद्यमान थी। इसके पश्चात अरबी भाषा का प्रभाव शब्दों से आरम्भ होकर विचार पर भी हावी होने लगा और एक दौर ऐसा आया जब फारसी साहित्यकारों की कोई न कोई  पुस्तक अरबी भाषा में जरूर लिखी हुई होती। स्कूलों में अरबी भाषा का चलन आरम्भ हो गया जिससे भाषा के प्रति लगाव बढ़ने लगा था। चूंकि एक तरफ धर्म का भी असर था सो मुहावरे, वाक्य, कथन, शब्द वगैराह अरबी भाषा से फारसी भाषा में दाखिल होने लगे। क्योंकि अरबी साहित्य में यूनानी पहलवी, सुरयानी के अलावा संस्कृत साहित्य के अनुवाद पहले से ही मौजूद थे जिसने अरबी भाषा साहित्य को समृद्ध बना दिया था। पांचवी छटी शताब्दी में अरबी भाषा की लोकप्रियता निरंतर बढ़ रही थी।


साथ ही साथ ईरानी सम्राज्य का बिखराव और तुर्की गुलामों और क़बीलों का सत्ता में आना इस बात का गवाह रहा कि योद्धाओं व सरकार द्वारा तुर्की शब्दों का प्रभाव फारसी भाषा  पर पड़ा परन्तु, यह स्थिति बहुत अल्पकालिक रही।


इधर नसरूद्दीन, सुबक तीगीन ईरान के बादशाह और उसके पुत्र यमीनुद्दल्ला महमूद ने आक्रमण करना, विजय प्राप्त करना व सिंध तक अपना सम्राज़्य का विस्तार करना आरम्भ कर दिया था। उसके पुत्रों ने भारतवर्ष तक मोहमद गज़नवी और मोहम्द ग़ौरी के नाम से अपनी हकूमत बढ़ाई। इनके साथ ही फारसी भाषा और फारसीदरी का प्रचलन बहुत बढ़ गया। सलज़्ाूूक़ी सम्राज्य में सरकारी और दरबारी भाषा फारसी हो गई थी। यह प्रभाव शाम (सिरिया) तक गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि सैन्ट्रल एशिया फारसी भाषा का केन्द्र बन गया।


पांचवी और छटी शताब्दी के कवि अन्नसुरी, फारूखी, जैनबीअल्बी, असजुदीराज़ी थे। इस काल के सुप्रसिद्ध कवि उमर खैयाम जो दार्शनिक व हकीम और गणित के पंडित भी थे। जिन्होंने अपनी रूवाईओं के द्वारा फारसी साहित्य को मालामाल कर दिया। इस काल के दूसरे सुप्रसिद्ध कवि हक़ीम निज़ामी गंजवी है जिन्होंने फारसी साहित्य को अनमोल काव्य खण्ड दिए।


शायरी छटी शताब्दी में ग़ज़ल, हिजो, मदाह, रूबाई जैसे अपने पुराने विषयों से आगे बढ़कर इरफान के रंग में डूब गई। सूफी रंग के उत्कृष्ट कवि फरीदउद्दीन अत्तार हैं। इसी काल में ऐसे भी कवि थे जो दरबार से अलग अपने एकांतवास में रह कर साहित्य सृजन में लगे रहे। उनमें हाफिज़ का भी शुमार होता है जिन के शेरों से काल (भविष्यफल) भी देखा जाता है। इसके अलावा अपने समय के अहम कवि मौलाना रूमी का आगमन होता है, इसी समय के दौरान तीसरे


महत्वपूर्ण कवि सा'दी हैं। जिन्होंने अपने पद्य व गद्य के मिश्रण से एक अलग तरह का योगदान साहित्य को दिया।


सांतवी और अठवीं शताब्दी की सबसे दुःखद घटना सामने आती है वो है मुग़लों का आक्रमण जिसने फारसी साहित्य केन्द्र को बिखेर दिया और दरबार और सम्राज्य के महत्वपूर्ण स्थानों से बाहर निकली, केवल ऐलाख़ानान दरबार में तैमूर के आक्रमण से पहले तक बची रहीं। काव्य के क्षेत्र में जो भी विकास अभी तक हुआ था अचानक रूक सा गया। भाषा अब अवाम की भाषा बन गई थी।


एक तरह से यह अच्छा ही हुआ था क्योंकि इस तरह से भाषा की जटिलता शीर्षक की कलिष्टता, भावों की कामुकता और शब्दों की असंप्रेषणियता समाप्त हो गई थी इस वजह से इस काल में क़सीदे (प्रशंसा काव्य) बहुत कम कहे गए हैं। उसकी जगह अर्थपूर्ण सुन्दर ग़ज़लें ज्यादा कहीं गई हैं जिनमें मुगल और तुर्की शब्दों का प्रयोग नज़र आता है। चूंकि इस दौरान ईरान में खून खराबा बहुत हुआ उसी के कारण काव्य में सूफी रंग और इरफान की बहुतियात नज़र आती हे। इस दौर के दो प्रसिद्ध कवि अमीर खुसरो देहलवी और ख्वाजे किरमानी हैं। सांतवी और आठवी शताब्दी की शायरी का अन्दाज़ सब्के इराक़ी के नाम से जाना जाता था। नवीं शताब्दी में एक बार फिर ईरान पर तैमूर का आक्रमण और उसके बाद तुर्की भाषा का दख़ल बढ़ा। सदा की तरह इस दौर में भी कुछ साहित्यकार दरबारी होने के कारण फारसी से अधिक तुर्की भाषा को महत्व देने लगे और उसमें साहित्य की रचना करने लगे! यह दौर काव्य की दृष्टि से बहुत निम्न कोटी का था- अच्छे कवि इस दुनिया से जा चुके थे। तैमूर बादशाह जैसे शाहरूख, अब्बू सईद सुल्लतान हुसैन बाईकरा साहित्य प्रेमी गुज़रे हैं। मगर उनकी दिलचस्पी केवल अपनी तुर्की भाषा साहित्य तक सीमित थी।


ऐतिहासिक गलियारों से गुज़रने का एक ही मकसद था कि एकांतवास या दरबार में रहकर लिखने वाला रचनाकार तभी अमरता को पहुँचता जब उसकी रचनाओं में शताब्दियों तक जीने की क़ुव्वत हो। इसको इत्तिफाक की कहेंगे कि जिनकी रचनाएँ इस अंक में आप पढ़ेंगे उन्होंने साहित्य रचना को इबादत की तरह जीया और आज भी वो उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने हर दौर के बेहतरीन लेखक वुजुद में आते हैं।


मैं अपने अध्यापकों को धन्यवाद देना चाहती हूँ जिन से मैंने फारसी सीखी, खास कर अपनी ईरानी टीचर ख़ानम सईदी को जिन्होंने मुझे अपार स्नेह दिया। आशा करती हूँ कि पाठक इन काव्य खण्डों का संक्षिप्त रूप पढ कर रस लेंगे जिन्हें ख़ानम ज़हरा खानलरी (किया) ने पाँच-'छः सौ पेजों की मस्नवियों को नई पीढ़ी के लिए दस से पंद्रह पन्नों में खुलासा किया ताकि वो महान ग्रंथों के बारे में जान सकें।


यह सारे अनुवाद मैंने अपने पाँच वर्षों के डण्।ण् की पढाई के दौरान किए थे। कुछ माह पहले जब पुरानी फाईल खोली तो सारा मैटर चार दशकों के अंतराल में बहुत खस्ता हो चुका था, कागज़ के किनारे झड़ चुके थे और इंक फीकी पड़ चुकी थी और राईस पेपर आपस में चिपक चुके थे जिन्हें संभालना बड़ा मुश्किल था।


पाठकों के लिए शीरीन और फरहाद (जो ईरान में खूसरो और शीरीन के नाम से जानी जाती है) कहानी नई नहीं है लेकिन बाक़ी कहानियाँ पाठक के लिए विशेष आकर्षण का महत्व रखती है, इसकी मुझे उम्मीद है।


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