गोल्डी आया रे

बस नम्बर सात छूटते ही अब तक के माहौल की सारी गर्माहट अपने साथ समेट ले गई। इतने दिनों से चल रही तैयारियों, हलचलों को मानों विराम लग गया।


ममा, मुझे गोल्डन पतले तार की फ्रेम वाले 'गॉगल्स' चाहिए।


माँ कैमरा ठीक हो गया है, ना ?


आशु, प्लीज तेरी पॉकेट मनी से एक कैप दिला दे। माँ ने तो साफ कह दिया है ''दो हजार ट्रिप के। जेब खर्चे को अलग। अब और बजट नहीं है मेरा।''


डैडी को भी इसी समय टूर पर जाना था। होते तो नये शूज जरुर दिलवा देते। ये 'ऐक्शन' पहनते-पहनते तो बोर हो गई हूं मैं।


माँ, स्कूल की लिस्ट मैंने तुमको दी थी ना ? दो जोड़ी यूनिफार्म भी प्रेस करानी है। चार-पाँच 'कलर्ड ड्रेसेस' अलग से।


ढेर सा नाश्ता, पुदिन हरा, रात का खाना और अनेक निर्देश सौंपते-सौंपतें स्कूल पहुंचने का समय हो चला।


पति, समय पर पहुंचने के आदी थे। चलो-चलो की उनकी आदत में पानी की बोतल घर छूट गई। एक अजब 'गिल्ट' बना रहा सारे समय। सोना पहली बार हमसे दूर जा रही है। चार दिन और पांच रातें तो क्या, शहर में ही रह रही उसकी नानी के यहां भी उसे कभी छोड़ा हो याद नहीं। कल्पना मात्र से मन उदास हो आया। सोना का ख्याल रखने की हम दोनों मे होड़ लगी रहती। उसे अधिक से अधिक सुविधाएं मुहैया करा सकंे। इसी से हमने उसे इकलौता रखने का फैसला किया था। यही सबसे बड़ी भूल हो गई। रिश्तों को, अपने व्यक्तिगत अनुभवों की कसौटी पर परखने का परिणाम था यह। यह ध्यान ही ना रहा कि एक परिवार की विडंबना भोग रहा बालक, अति महत्वाकांक्षा की बलि चढ़ गये सामाजिक रिश्तों की धुंध में फंसा बालक यूं ही काफी अकेला है। खून के रिश्ते कभी तो कहीं तो दम मारते होंगे।


इसी कमी को वह जब-तब किसी ना किसी से खुद को जोड़कर पूरी करना चाहती। दोस्ती होती तो दोस्त को सोना का घोर पसेसिव' स्वभाव झेलना पड़ता। कभी-कभी तो पसेसिवनेस के अतिरेक से दोस्त का दम घुटने लगता। भाई की कमी लड़कों के प्रति आकर्षण का सहज कारण बनती। घर आ कभी वो उनके वाद-विवाद कौशल को सराह रही होती तो कभी उनके वाक चातुर्य पर मुग्ध दिखती। स्वभाव से निश्छल, निर्मल, सुंदर सोना अपनी अतिरिक्त सरलता के कारण जब सहपाठिनों से ठुकराई जाती तो गुस्से में कभी-कभी अपनी कलाईयां तक काट लेती। ये असामान्य आदत ना जाने कहां से पाई थी उसने ?


आधुनिकता के रस में मदांध कुछ भावनाशून्य लड़कियां उसे 'वो पागल सोना' कहकर बुलाती। सोना उनके षडयंत्र से अनजान उन्हीं के लिए कभी 'फ्रेन्डशिप बैंड' बुन रही होती तो कभी 'वेलेन्टाईन' कार्ड रंग रही होती। घर आ जब वो टॉप 'रेन्कर्स' के सुनाये जोक्स बताती तो बजाय हंसी आने के मैं शर्म से पानी-पानी हो जाती।


इंजीनियर पति से शिकायत करने बैठती तो वे हंसकर टाल जाते ड्राय एरिया है यार। वे अपने कॉलेज का अनुभव बघारते।


मैं कहती, ये कुसंस्कारों की आंधी कहां से चली है ? परवरिश के कौन से हिस्से खाली रह गये हैं ? कौन माता-पिता अपने बच्चों का जीवन अंधकारमय करना चाहेंगे? तो क्या हम सिर्फ 'मीडिया एक्सपोजर' को दोष देकर हाथ पर हाथ


धरकर बैठ जाएंगे ? या हमारी अपनी महत्वकांक्षाओं, अपनी समस्याओं को 'मेग्नीफाय' करके देखने की हमारी आदत ने इनकी समस्याओं को परे धकेल दिया है।


पति समझाते, 'पूनम ये हमारा, तुम्हारा जमाना नहीं। शादी होने तक नासमझ बने रहने में भला कौन सी अच्छाई है ? अच्छा है उनके अनुभव जल्दी इन्हें अच्छे बुरे में फर्क सिखा देगें।


मुझे इनके तर्को में कभी कोई सार नजर नहीं आता। जानती थी मुझे बहलाने का सामान था यह सब। सोना के ट्यूशन से आने में जरा देर होते ही ऐसे पहले ये ही टहलने के बहाने सामने गेट पर हाथ दिये मिनटों खड़े रह जाते थे। वे जानते थे कि अच्छे अनुभव आज दुर्लभ हैं।


ऐसे में सोना को अकेले भेजते समय कितने ही अंदेशे उठ-बैठ रहे थे। पर जिस दिन से जाना तय हुआ सोना को तो स्वतंत्रता की चाह भर से पंख लग गये थे। माता-पिता के अंकुश से बचकर रहने के दुर्लभ सुख के फल को चख पाने के पूर्व ही वह उसके सुख में सराबोर थी।


आज जाते-जाते तो जीन्स-शर्ट, सलवार-कमीज, स्कर्ट-ब्लाउज, सभी की आंखे भर आई थीं।


हिप-हिप हुर्रे की घनी आवाज और सफर शुरु।


लगभग बीस मिनट बस को शहर से बाहर निकलने में लग गए। कितनी खुश थी सोना आज। कोई रोकने-टोकने वाला नहीं। समय की कोई पाबंदी नहीं।


गाने-बजाने-नाचने के जोश में कब अंधेरा हो गया पता ही नहीं चला। हवा का सर्दपन गहराने लगा। ममा ने कहां था सोना स्वेटर ऊपर रखना और ना करते-करते भी मफलर उसके हैंड बैग में ठूंस दिया था।


आदत से लाचार सोना, स्वेटर ऊपर रखना तो भूल ही गई थी। ठंड से बचती, सिकुड़ी-सिकुड़ी सोना बस की सुविधाजनक सीट में ही आधी अंदर तक सिमट गई। समय बीता... बस के हिचकोलों और नींद के आने-जाने के बीच सोना ने देखा सुबह की उजली रेखा स्पष्ट होने लगी थी। अधखुली आंखों से देखा तो सातों बसें ऊंघती सी, निश्चित दूरी बनाये, एक दूसरे के पीछे लगीं, रेल के डिब्बों सी नजर आ रही थीं। अतिभावुकता मे वो हमेशा ना जाने कहां-कहां तक का सफर कर आती है। शायद चांद-तारे भी उससे अछूते नहीं ऐसे में ना जाने कितनी कविताएँ कर आती है वो।


शायद उदयपुर आने लगा था। राजसी इमारतों के नमूने जहां-तहां बिखरे पड़े थे। शहर अभी उनींदा ही था। शहरी किनारे की छोटी-मोटी होटलों के चबूतरे जागे-जागे ही थे। हैंडपंपों पर रौनक उठने लगी थी। छोरे नींद में ऊपर चढ़ गई पैंटों के पहुंचे सुधारने में लगे थे। वे एक हाथ से पहुंचा ठीक करते जाते दूसरे हाथ से शर्ट के बटन लगाते जाते इस हायतौबा में बटन कभी सही नहीं लगता। सोना को हंसी आ गई।


होटल पहुंचकर जलेबी-पोहे का नाश्ता मिलने की उम्मीद किसे थी ? ये तो रोजका घरेलू नाश्ता हुआ। घर पर कितनी ही बार वो उस नाश्ते से बच निकलती थी। काश वेजिटेबल कटलेट्स या गरमागरम सांभर बड़े का नाश्ता मिला होता। इतना लंबा सफर इतनी थकान सोना को पहले कभी नहीं हुई थी। मन हुआ कंबल में घुसकर जीभर सो जाए।


पर साईटसीईंग का उत्साह क्या कम था ? तुरंत नहाकर निकलना पड़ा। लेक के किनारे बसा 'सिटी पेलेस' राजस्थान का सबसे बड़ा 'पेलेस काम्पलेक्स' है गाईड ने बताया। मोती मगरी, सहेलियों की बाड़ी, भारतीय लोक कला म्यूजियम', नेहरु गार्डन की भव्यता ने तो मोहा ही पर महान महाराणा प्रताप की मूर्ति की बनावट में उनके चेहरे की एक-एक नस फड़कती नजर आई थी। ईमान की लौ सी दीप्त उस सशक्त मूर्ति को देखकर लगता ये अब चली, अब बढ़ी। सोना नतमस्तक हो आई।


लंच आया तो सब बड़बड़ाने लगे। ऐसी पतली दाल और लौकी छीः। कई छात्राओं ने प्राचार्य से शिकायत की।


उदयपुर की खूबसूरती पर से शाम नजर बनकर उतर रही थी। हवेलियों के लंबे साये झुरमुटी अंधेरों में खोने-खाने को थे। उधर शाम जागी, इधर हजारों रोशनियां सुलग गई।


राजस्थान की रंगीनी दो, ढाई घंटे में समेट पाना असंभव है। इधर-उधर गली-गली पसरे थे ना जाने कितने माहिर कलाओं के नमूने, लाख के काम, चुनरी, बातिक और जूतियां तो आम थीं पर पेपरमेशी की नीली सुराहियां, चमड़े पर गुदावन कर उन पर भरी रंगत के काम की खूबसूरत मशकें। ऊंट के खालिस चमड़े की बनी कागज सी हल्की जूतियाँ जिन्हें मोड़कर जेब में रखा जा सकता। रंगीन लहरों से हवा में लहराते दुपट्टे, साड़ियाँ, बिछावन सोना चकरा गई। माँ ने बहुत पैसे भी नहीं दिये थे। आजकल छः सौ सात सौ में होता भी क्या है ? ऊपर से आदेश ये कि बिसलेरी का पानी पीना। माँ भी बस।


सोना ने सोच-समझ ममी के लिए साड़ी तय की। क्रीम कलर की जमीन पर, रानी और सुनहरा रंग, कलात्मक बूटों में ठेठ राजस्थानी शैली मुखर कर रहा था। भरा-भरा पल्ला। ममा पर सच में खूब सूट करेगी। इसी बहाने सोना ने कल्पना में ही माँ को छू ही लिया।


दुकान वाले ने बताया इसको जितनी बार ड्रायक्लीन करेंगी उतनी अधिक इसमें से चंदन की खुशबू निखरेगी।


माँ को ऐसी ही अनूठी सी चीजों का शौक है। सोना खुश हो आई।


बटुआ हल्का हो चला था। पैसे बचाने की चाह में पानी ना खरीदने से प्यासा चेहरा कुम्हला आया था। पर घर में सबके लिए कुछ ना कुछ खरीद पाने के सुख के छींटों ने मन में फिर उत्साह भर दिया। अधिकांश लड़कियों ने खुद के लिए 'क्रश्ड स्कर्टस', चुन्नियाँ, कांच के खूबसूरत कड़े ना जाने क्या-क्या


बंधवाया था ? मोनिका ने तो आबू से पूरा बाक्स की 'चेरी' खरीदने का प्लान बनाया हुआ था। ऐसे में सिर्फ परिवार के लिए शापिंग करने वाली को ही पागल कहा जा सकता था शायद। भावुकता की कैसी कद्र है यह।


ट्रेवल एजेन्ट ने प्रत्येक दस छात्रा पर एक टीचर को फ्री ले जाना स्वीकारा था। बीस शिक्षक भी अब इस अलमस्त माहौल को संभाल पाने में असमर्थ थे। लड़कियां दुकानों पर से चुन्नियों को दोनों छोरों से खींच रही थीं। कितने ही आभूषण चुपके से बेगों के हवाले हो गये थे। लड़कियो को चुस्त पोशाकों वाली 'माडल' चालों से लोग चकमका रहे थे। कुछ शिक्षकाओं ने दृश्य की भयावहता से घबराकर आंखे बंद कर ली, तो कुछ ने हिम्मत बटोर सबको अनुशासित करना चाहा।


'क्या जीवन है शिक्षक का भी ? ट्रिप पर भी वही सालाना धर्म। क्या हमें कभी मुक्ति नहीं ? परिवर्तन हमारा हासिल नहीं? मनोरंजन की हमें आकांक्षा नहीं? या सिर्फ आदर्शो के भार ढोते जाना ही हमारी नियति है ? रमाजी ने गंभीर होते हुए कहा। मीनाजी कल ही कुछ लड़कियां सेन्डी-सेन्डी चिल्ला रहीं थी। हमें लगा कोई नई आईस्क्रीम या चॉकलेट होगी। बाद में पता चला था वे किसी शिक्षक का नाम बिगाड़े बैठी थीं। उनकी सुरक्षा को लेकर चिन्तित, सजग दृष्टि को कैसी-कैसी सजा वे सुनाती हैं ?


ऐसा लगता है शिक्षक आज बेचारा हो गया है। यहां किसे सुधारें ? किसी नसीहत दें ? घर में बच्चे क्या कम हैं ? कोमल भावनाएं, सीमाएँ, वर्जनाएं हमारे देखते-देखते ही चोला बदल गई है। वर्षों के अनुभवों के पश्चात भी, माँ और शिक्षक के बीच के विश्राम के क्षणों में भी लगातार यही सुनना पड़ता है।


बहनजी हर स्टूडेंट को अलग-अलग टैकल करना पड़ता है।


मेडम अपनी बेटी के साथ जरा ज्यादा प्यार से पेश आया करिये, बिगड़ती जा रही है।


आपके पति का ट्रांसफर क्या यहां नहीं हो सकता आपके बड़े होते बेटे बहुत हाथ-पाँव निकालने लगे हैं।


लोग मौका पाते ही निजतम व्यक्तिगत कोनो में झांक उन्हे सार्वजनिक करना भी नहीं भूलते।


शिक्षकीय दायित्व से परे क्या यह समाज के प्रत्येक सदस्य का दायित्व नहीं कि वो अपने बच्चे को दिन-रात टी.वी., वी.सी.आर. जागृत ना रहे कि पॉकेट मनी की एक सीमा हो, कि रुपये से ज्यादा उम्र का आदर करना बच्चा सीखें कि बहुमंजिला इमारतों की भूलभूलैया में संस्कारों का मूल्य चुक ना जाए। कैसे होगा ये सब ? अपने बच्चे को अधिक से अधिक आधुनिक दिखाने की चाह में अंग्रेजियत का जो अंधानुकरण हमने उन्हें दिया है उसमें हम उन्हें विदेशियों सा स्वावलंबन, ईमानदारी, सच्चाई सिखाना कैसे भूल गये?


थकान की टूटन से छात्र, शिक्षक सब निढाल हो लिये।


सुबह का नाश्ता दमदार था। खास उदयपुरी, शुद्ध घी में कड़क सिंकी छोटी कचोड़ियाँ। उन पर पड़ी खजूर की महकती चटनी और बीकानेरी सेंव। साथ में जालीदार घेवर और नाजुक फेनी के मीठे की मिठास लिये यात्रा शुरु हुई।


रास्ता राजस्थान के इकलौते 'हिल स्टेशन' माउंट आबू की ओर बढ़ रहा था। सोना के विचारों की गति फिर तेज होने लगी। कल्पनाएं बनने बिगड़ने लगीं। लहराते-गहराते वृक्षों के बीच से जाने कितने संपर्क जाने कितनी भावनाएं अलग-अलग रुप लेकर साकार होने लगी।


बस में मचा कोहराम अचानक ठिठक गया।


ऐसा क्या हुआ ? सोना जागृत हुई।


तभी सबसे पिछली सीट से चीत्कारें उठी-गोल्डी आया रे, गोल्डी आया रे।


ये गोल्डी शब्द स्कूल की किसी भी लड़की के लिए अपरिचित नहीं था। कुछ ने उसे देखा था, कुछ ने सिर्फ नाम सुना था। स्कूल के बाहर मौसम के परिवर्तन से बेखबर, वर्ष भर जो कार अपनी उपस्थिति दर्ज कराए रखती थी वह उसी की थी। रईस माता-पिता की संतान। पच्चीस हजार रुपये प्रतिमाह पॉकेट मनी। एक कान में सोने की बाली। हल्के भूरे बाल अक्सर उड़े-उड़े से। हर हसरत के साथी कुछ दोस्त। सोना को लगा शायद मजाक है। पर बस के साथ रेंग रही कार ने सब स्पष्ट कर दिया उस समय तक 'टीचर्स का ध्यान नहीं गया था। पर जब गुरु शिखर अचलागढ़, दिलवाड़ा मंदिर का राउंड काट बस सनसेट पांईंट पहुंची तब से ही सारी गड़बड़ी शुरु हो गई। लड़कियों का अब तक का सारा संतुलन हवा हो गया। जीन्स के बाहर टंगी सारी शर्ट्स इन हो गई। 'आईलाइनर्स' के साथ 'लिपस्टिक्स' के शेड्स बाहर आ गये। जूतों की चमक बढ़ा दी गई। लड़कियां अपनी दोस्तों के फोटो लेने के बहाने पीछे खड़े लड़कों के फोटो लेने लगीं। ठंडी जगह में अचानक गर्मा गया यह माहौल शिक्षकों से छुपा ना रहा। इसीलिए उन पर कयूं लग गया। लड़कियों की भीड़ को ना केवल बाजार से ताबड़तोड़ समेट लिया गया बल्कि खूबसूरत बोटिंग स्थल नक्की लेक तक एक पूरी बैच जाने से वंचित रह गई।


क्या मिला इसे यहां आकर?


हमारी ट्रिप बिगाड़ कर रख दी इसने।


किसके पीछे आया है ?


कुछेक नाम उछले। पर वो तो आई नहीं हैं।


ओऽऽऽ के उदास स्वर के साथ नाम ड्राप हो गये।


यार किसी एक से अफेयर होता तो वहीं घूमता ना ? ही हेज ओनली कम फॉर फन् सेक।


जितने सुर उतनी रागें।


प्रथानुसार कुछेक हीनग्रंथी से ग्रसित छात्राओं ने द्वेषवश मन का कालुष आस-पास बालियों पर ढोल अपना वैमनस्य निभाया।


जाने का सारा उत्साह, नई जगह का सारा भोग, इस एक घटना से मंदा पड़ गया। वापसी पर बातूनी लड़कियों का बोलबाला था। जाने कितनी पंचायतें खुल गई।


स्कूल पहुंचते-पहुंचते तो हवा हर कान में चुगली कर गई। परिस्थितियों की विकटता से बेखबर सोना को अपना कत्र्तव्य ध्यान आया। आदत के अनुसार उसने ज्ञान बघारा -


अरे हरे उस लड़के की बहन तो मेरी अच्छी दोस्त है। वो लोग ऐसे नहीं।


इतना तो काफी था। कुछ मतजली छात्राओं ने नया निशाना साधा। योजनाबद्ध ढंग से फैलायी गयी अफवाह के चक्रवात में सोना लट्ट की तरह घूम गयी।


बात किस्सा बनकर माँ के कानों तक पहुंच ही जाती है। जानती हूं, सोना लोभ, आकर्षण, टेम्पटेशन के खेल से अनजान नहीं। पर पेट की हल्की वो उसकी कोई बात छुपी भी नहीं। हाँ, सोना मौके देना खूब जानती है। दूरगामी परिणामों से बेखबर खुदकों 'स्पाट लाईट' में रखना ही मानो उसकी हॉबी है। इसीलिए 'स्ट्डीज' से ऊबी छात्राऐं किसी ना किसी बहाने उसे हेडलाईन बना ही देती हैं।


पूछने का मन हुआ दोनों को बात करते देखा किसी एक ने ?


लड़के समय की ऐय्याशी भोगें तो हर समय कोई लड़की ही दोषी क्यों ?


न्याय, अन्याय के निर्णय ना तो शिक्षक कर पाये ना पालक। घटना ने कई प्रश्न चिन्ह, कई चिंताएं पुनः जगा दी। किसे दोष दें ? लड़के तो अपने घरों में भी हैं। कौन बताये उन्हें कि तालाबों की गहराईयां उनकी अपनी बहनें भी नाप सकती हैं। क्या किया जाय कि सकारात्मक सोच की हवा प्रबल हो? खुद को साबित करते जाने की होड़ में, बुद्धि मांजते-मांजते युवा का भावनाविहीन हो जाना क्या गलत है ?


भौतिकता की ओर क़दम बढ़ा चुकी हमारी पीढ़ी। है समय हमारे पास उन्हें सुबह की ओस दिखा पाने का? ऊगती धूपको नमस्कार करा पाने का? घंटियों और अजानों के सुरों में तालमेल सिखा पाने का? आपसी रिश्तों में आदरभाव जगा जाने का?


हमने खुद ही जब सारा प्रेम, सारे त्यौहार, दुख-सुख 'ग्रीटिंग कार्ड्स' में कैद कर उन्हें बौना कर दिया है, तब नयों से नियमों के निभावन का ? आह्वान कयों ?


ना जाने कितनी पहेलियां हैं जिनके उत्तर अब सूझते नहीं। चैराहों तक पहुंचना तो सभी की नियति है। जीवन का हर मोड़ इनके लिए नया रास्ता साबित हो सके बस अब तो यही एक इच्छा है।  


                 


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