मुक्तिभाव से आबद्ध करती जड़ें
बचपन में हम जिन चीजों के प्रति जिज्ञासु होते थे उन्हें या तो परदे में रखा जाता था या हमें कुछ घुमावदार जवाबों से चुप कराने की कोशिशें की जाती थीं। मसलन याद आता है कि कहीं पालकी देखते तो झाँका-झूँकी करते, मगर तब दुलहिन होती ही थी परदे की बू बू। जमाना बदल रहा है या बदल गया है एक तरफ निजता का उन्नत पाखण्ड और दूसरी ओर प्रकटीकरण का ऐसा वाइरल कि पल-पल चेक किया जाता है कि कितने लायक और कितने नालायक। इस सबसे उकताने पर फिर वही प्रकृति की शरण। किसी स्थान विशेष से जुड़ी रहस्यात्मक ऐतिहासिकता-अविश्वसनीयता हमें उस ओर डग भरने को विवश कर देती है। और यदि संवेदना रस के सूखने से वैचारिक अपंगता नहीं आई है तो हमारी दिलचस्पी बढ़ जाती है।
पूर्वोत्तर के प्रवेश-द्वार गुवाहाटी से दस-बीस किलोमीटर चलने पर ही जो रोमांचक दृश्य दिखते हैं उन्हें साझा करें तो सीमेण्टके जंगलों से दूर लकड़ी के पायदानों पर खड़े लकड़ी के मकान, खिड़कियों में जालीदार परदे। सर्पाकार सड़क के दोनों ओर अन्ननास, केला, केले के तने, स्थानीय शहद और हस्तनिर्मित अचार हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। लाल चाय, दूध चाय और कोय-ताम्बूल की प्राकृतिक महक से सराबोर बर्निहाट और नांगपूह। शिलांग-गुवाहाटी के बीच बसा नांगपूह। यहाँ से पच्चीस-तीस किलोमीटर पर विशाल झील जिसे 'बड़ा पानी' से संज्ञापित किया जाता है। कभी यह झील उमियम नदी के नाम से जानी जाती थी। चारों तरफ हरे-भरे पाइनवृक्षों, झरनों और झीलों तथा पहाड़ियों से घिरे व रंग-बिरंगे स्थानीय पहनावे में सहज-सरल जन जिनको देखकर निश्चित ही सुखद अनुभव होता है, शिलांग के वासी। अपने में व्यस्त-मस्त शिलांग शहर ईगल फाल्स, एलीफेण्टाफाल्स, बीशप फाल्स और बीडन फाल्स की परिधियों में। बड़ा बाजार और पुलिस बाजार यहाँ के रहिवासियों की दैनन्दिन आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम हैं। यहाँ बिकने वाली स्थानीय सब्जियाँ केमिकल फर्टिलाइजर से रहित-शुद्ध। पिछले कुछ वर्षों में मॉल संस्कृति ने अपना विस्तार करते हुए यहाँ भी अपनी उपस्थिति दर्ज की है।
दुनिया का सर्वाधिक वर्षा वाला स्थान चेरापूँजी-चेरापूँजी। भूगोल में इसे रटना पड़ा था। यद्यपि अब यह सबसे
अधिक वर्षावाली जगह नहीं रही, परन्तु पहाड़ों से अठखेलियाँ करने वाले इस स्थान की चर्चा के बिना आगे कैसे बढ़ा जा सकता है। यहाँ के झरने निरन्तर झर-झर करते हुए धरती की गोद में समाकर सुरम्यता प्रदान करते हैं। सड़कें पर्वतों को चुनौती देती प्रतीत होती हैं। झरनों की संगीत लहरियों का सुख मिलता है नोह कालिकाई फाल में। स्वर्गीय आभा का अनुभव। दुनिया के चार बड़े जल प्रपातों में से एक नोह-कालिकाई जल प्रपात। यह झरना काफी ऊँचाई से नीचे गिरता है। इसके नोह कालिकाई नाम के पीछे की कथा कुछ इस तरह है।
दन्तकथा है कि कालिकाई नाम की स्त्री अपनी एक मात्र पुत्री सन्तान के साथ यहाँ रहती थी। बेटी के जन्म के कुछ दिन बाद ही कालिकाई के पति की मृत्यु हो गई। कठिनाइयों में दिन बसर करने वाली इस महिला ने पुनर्विवाह कर लिया कि उसके अच्छे दिन आएँगे। परन्तु अच्छे दिनों का सपना दुर्दिनों के रूप में आया। एक दिन जब वह जंगल से लौटी तो उसका पति बड़ा खुश था। आज उसने कालिकाई को ताजा भुना गोश्त खिलाया। उसे अपनी बेटी नजर नहीं आ रही थी। पति के भय से उसने रात किसी तरह काटी और प्रातः जब बेटी की खोज में निकली तो दरवाजे के बाहर बाँस की टोकरी में रखे कटे हाथ-पैर देखकर उसे यह पहचानने में देर न लगी कि उसकी बेटी को पति ने ही मार दिया है। रोते-चिल्लाते उसने एक टीले से छलाँग लगा दी और उस दर्रे में विलुप्त हो गई। ऊँचाई से गिरने वाले झरने को लोग नोह-कालिकाई कहने लगे। मान्यता है कि यह जल प्रपात ही कालिकाई है। चेरापूँजी का स्थान मौसिनराम को जरूर मिल गया है परन्तु यहाँ के सन्तरे, शहद, दालचीनी और तेज-पत्तों की महक ज्यों-की-त्यों बनी हुई है।
रामकृष्ण मिशन और मावस्माई गुफा भयभीत नहीं रोमांच भरती हैं। सँकरा रास्ता, जल जमाव, ऊपर से टपकता पानी और घुप्प अँधेरा बाहर निकलने पर विजय और मुक्तिका भाव। यही तो प्रकृति का गुण है, वह बाँधती है, मुक्ति के भाव से। चेरापूँजी या सोहरा के पश्चात मौसिनराम और मावल्यान्नॉग। पूर्वखासी पार्वत्य जिले का यह गाँव भारत का ही नहीं एशिया का स्वच्छतम गाँव है। यहाँ के सरल जन नारेबाजी और हो-हल्ले-क्लिपिंग में नहीं कार्य रूप में परिणत करने में विश्वास रखते हैं। मावल्यान्नॉग गाँव में कूड़े-कचरे को बाँस से बनी डेलइयों में डाला जाता है और गड्ढे में इकट्ठा कर खाद तैयार की जाती है। इसे देखकर मन प्रसन्न हो जाता है। और हम यह सोचने को विवश हो जाते हैं कि हठी और गब्बराई त्याग दी जाए तो वह दिन दूर नहीं जब इस फेहरिश्त में और नाम भी जुड़ने लगें। प्रायः भारत के गाँवों के बारे में जो सामान्य चित्र उभरता है वह धूल-गन्दगी का स्याह रंग लिये होता है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मावल्यान्नॉग इस भ्रम को तोड़ता है। अपनी परम्परागत वेशभूषा जेनसेम में मातृसत्तात्मक मातृशक्तियाँ अपने बच्चों को पीठपर इस ढंग से कसकर बाँधे रहती हैं कि वह इसी में मगन न गिरने का डर न सीढ़ीदार खेतों में चढ़ने का भय। यहाँ फुटबॉल खेलते बड़े-बच्चे दिख ही जाते हैं। गीली मिट्टी कीचड़ और ऊपर से झमाझम बारिश इनके उत्साह को फीका नहीं कर पाती।
एक-से-एक रोमांचक स्थलों में मेघालयका आकर्षक नगर है डॉवकी। अपनी प्राकृतिक सुन्दरता से समृद्ध। शिलांग से लगभग सौ किलोमीटर दूर बँगला देश बॉर्डर पर स्थित यह सुरम्य स्थान हरे-भरे पेड़-पौधों से आच्छादित पर्यटक स्थल ही नहीं प्राकृतिक सम्पदाओं की दृष्टिसे भी महत्त्वपूर्ण है। कोयला और लाइमस्टोन का निर्यातक। इस सबके बीच उम्न्गोत नदी अपने अनूठे सौन्दर्यके लिए विश्वविख्यात। जी हाँ यही वह नदी है जिसके तल पर पड़े कंकड-पत्थर पारदर्शी जल में बड़े साफ दिखाई पड़ते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह भारत की सबसे साफ नदी है। दूर से दिखती इसमें चलती नाव-लगता है कि रुकी हुई है। झूम खेती (शिफ्टिंग कल्टीवेशन) और मछली पकड़ना यहाँ के रोजगार हैं।
दुःख में तमाम ऐब होंगे परन्तु कर्मठता-जीवटता का पाठ तो यही पढ़ाता है। व्यवस्था और सत्ताएँ जब अन्धी-बहरी हो जाएँ तो जन-समुदाय अपने ढंग से समस्याओं का हल खोजता है। सीमेण्ट का आविष्कार तो 1938 में होता है परन्तु मेघालय के लोगों को बारहों मास बारिश से जूझना पड़ता रहा है। गाँव के कई इलाकों को पार करना मुश्किल। करीब दो सौ साल पूर्व जब न तो उन्नत तकनीक थी न कौशल प्राप्तकरने के संस्थान-तब गाँव के बुद्धिजीवियों ने गाँव के किनारे तथा नदी के तट पर रबर के बहुत पेड़ लगाए। जब पेड़ बड़े हुए और इनकी जड़ें हवा में झूलने लगीं तो जड़ों को आपस में बाँधकर पुल बना दिया। यह एक पंक्तिमें व्यक्त करना तो सहज है परन्तुपेड़ों को लगाना, जड़ों का इस रूप में बढ़ना और इनका इस तरह मजबूत होना कि पुल पर चलने में भय न हो, कठिन कार्य रहा होगा। इस क्षेत्र में पाया जाने वाला रबर का पेड़ वट वृक्ष जैसा विशाल होता है जिसकी शाखाएँ जमीन को छूकर नयी जड़ें बना लेती हैं। पहाड़ों से निकली छोटी नदियों को पार करने के लिए ये जीवित जड़ पुल किसी उच्च तकनीकी को पीछे छोड़ देते हैं जहाँ कभी-कभी उद्घाटन से पहले ही पुल टूट जाते हैं। इस जीवित पुल पर एक बार में तकरीबन पचास लोग चलकर इसे पार कर सकते हैं। इन पुलों को सुरक्षित रखने में काफी मुश्किल होती है। और इनको बनाने में दस-पन्द्रह साल का समय लगता है। हाँ, यह भी सच है कि ये सैकड़ों वर्ष तक आपका साथ देते हैं।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 1927 में शिलांग की अन्तिम यात्रा की। विष्णुपुर, शिलांग विधानसभा के सामने उनकी आदमकद मूर्ति के पास लगे बोर्ड से उनके और मेघालयके बीच के सम्बन्ध का पता चलता है। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और घुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय जी ने अपनी शैली और
विधाओं से मेघालय को जोड़ने के प्रयास किए। यहाँ के स्थानीय लोगों में परम्पराओं के खोने का एक दर्द साफ झलकता है। किसी जमाने में मेघालय में भी अन्य पूर्वोत्तर बहनों जैसा ही खासी, जयन्तिया और गारो लोग भी अपनी आवश्यकता-भर का कपड़ा बुन लेते थे। धीरे-धीरे यह लुप्त हो रहा है। गारो इलाकों में गारो लुंगी-डाक माण्डा व खासी, जयन्तिया स्त्रियों का पहनावा जेनसेम प्रसिद्ध रहा है।
परिश्रम को अपना आभूषण मानने वाले खासी, जयन्तिया और गारो जन हृदयमें स्थित उमंग-आह्लाद की अभिव्यक्ति लोक-पर्वों, लोक-उत्सवों में करते हैं। उत्सव मानव-मन के हर्षोल्लास, उमंग, खुशी आदि का प्रतीक है। जीवन के तमाम उतार-चढ़ावों के बीच कुछ समय के लिए इनसे स्वयं को दूर कर लिया जाता है। इसमें उत्सवों और त्योहारों का
महत्त्वपूर्ण स्थान है। शाद सुक मन्सेम खासी जन-जाति का महत्त्वपूर्ण त्योहार है। यह कापामब्लाङ् नोङ्के्रम से भी संज्ञापित है। यह उत्सव स्मित नामक स्थान में स्थित यीङ्साद में आयोजित किया जाता है। यह यीङ्साद खायरिम राजाओं का निवास स्थान है। जिनकी उत्पत्ति लेइ शिल्लाङ् देवता की बेटी पाहसण्टिएव से मानी जाती है। इसमें यीङ्साद के मैदान में नृत्य किया जाता है। साम्राज्य शासन की सफलता सम्पूर्ण जातिकी सुख-शान्तिके लिए प्रार्थना की जाती है। पुरानी फसल की कटाई तथा नयी फसल की रोपाई के उपलक्ष्यमें इस पर्व में स्त्री-पुरुष दोनों हिस्सा लेते हैं।
शिलांग के पूर्व में पर्वतमालाओं की एक अन्य शृंखला घने पाईन वृक्षोंसे आच्छादित पहाड़ों के बीच धीमी गति से मृदुल परिहास करती हुई नदियाँ, बड़ी-बड़ी और चैड़ी घाटियाँ और उनमें धान के खेत, परन्तु कहीं-कहीं पहाड़ों के ढालों पर झूम की भी खेती, सड़कों के किनारे-किनारे लगे चूने और कोयले के लगे बड़े-बड़े ढेर-यह है जयन्तिया हिल्स। जयन्तिया हिल्स की सीमाएँ एक ओर असम तथा दूसरी ओर बाँग्ला देश से मिलती हैं। प्राचीनकाल में यहाँ के लोग राजा के नियन्त्रण में रहते थे। भारत की प्राचीनतम आदिवासी संस्कृतियों में जयन्तिया संस्कृति का इतिहास गौरवमयी और अक्षुण्णहै। जयन्तिया
संस्कृति का प्रमुख त्योहार 'बेहाडिङ्ख्लाम' है। यह प्नार या जयन्तिया पहाड़ियों में स्थित जवाई में मनाया जाता है। 'बेह' का अर्थ है भगाना, डेनका अर्थ है डण्डा और ख्लाम का अर्थ है प्लेग अर्थात् डण्डे से प्लेग या विपदाओं को भगाना। तुबेर और मोखला में भी इसका उल्लास दिखाई पड़ता है। यह लोकोत्सव जून या जुलाई में बुआई के पश्चात होता है। यह त्योहार तीन दिनों तक चलता है और इन तीन उत्सव-दिवसों को क्रमशः युगलाङ्, मुसोव तथा मुसियाङ कहा जाता है। पुरुष एक बड़े पेड़ की शाखा लाते हैं जो कि हारी-बीमारी दूर करने का प्रतीक होती है। मान्यता है कि जो इस डाल को छुएगा बीमार नहीं होगा। इसलिए क्षेत्र-विशेष के सभी लोग आजीवन स्वस्थ रहने हेतु बारी-बारी से इस शाखा को छूते हैं। इन तीन दिनों तक सामूहिक भोज और नृत्य चलता है। अन्तिम दिनकी रात में इस शाखा को फेक दिया जाता है। इसके पीछे की मान्यता है कि यह शाखा सभी की बीमारियों को अवशोषित किए हुए है तथा भविष्य में किसी को कोई बीमारी नहीं होगी।
पूर्वीभारत और बर्मा होते हुए असम की गारो पहाड़ियों पर रहने वाली गारो जनजाति पीतवर्ण है। नीली पट्टी का वस्त्र और सिर पर मुर्गेके पंखों वाला मुकुट धारण करना इनकी संस्कृति का प्रथम परिचायक है। दुनिया की कुछेक जनजातियों में से एक गारो अपनी मातृमूलक मान्यताओं को मानने वाली रही है। घर की छोटी बेटी सम्पत्तिकी स्वामिनी (नोकना) होती है। विवाह होने पर सामान्यतः स्त्रियाँ अपने घर पर ही रहती हैं।गारो समुदाय द्वारा नवम्बर के महीने में फसल कटाई से सम्बन्धित वंगाला उत्सव बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता है। गारो भाषा में वंगाला का अर्थहोता है-'सौ ढोल।' इस लोक-पर्वमें पारम्परिक गारो आस्थाओं के 'सलजोंग' सूर्यदेवता की प्रार्थना-उपासना की जाती है। और इन्हें फसल का अधिदेवता माना जाता है। गारो नृत्यों के इस लोकोत्सव में दो-तीन दिन या हफ्ते तक हाथ में ढाल और तलवार लेकर पुरुष युद्ध नृत्य करते हैं। गारो महिलाएँ अपनी पारम्परिक वेशभूषा में रहती हैं।
अपने अलग स्वाद में मेघालयका मुख्य भोजन मांसाहार है। सूअर और गायका मीट इनका पसन्दीदा खाद्य है। हरे बाँस तथा स्थानीय हरी सब्जियों का प्रयोग और अदरक-लहसुन का विशेष इस्तेमाल। जाडो, डोह खलीह डोह, डोह नियांग, नाखम बोरिंग, गालडा नाखम, टंगरीमबाई और मिनिल सोंगा यहाँ के प्रमुख व्यंजन हैं। इनमें मिनिल सोंगा विशेष खाद्य है। यह हरे बाँसऔर चावल से तैयार किया जाता है। बाँस के भीतर चावल को भरकर इसे पकाया जाता है। जदोह विथ पोर्क मेघालयका स्थानीय व्यंजनहै। कहते हैं इसका जो स्वाद यहाँ मिलता है, अन्यत्र दुर्लभ है।
महिलाओं के प्रति आदर-भाव इस मातृ वंशीय समाज की विशिष्ट पहचान है। महिलाएँ सर्वाधिकार सम्पन्न होती हैं। परिवार की मुखिया माता होती है, वही अपनी जाति(ब्संद) की संरक्षिका व सम्पोषिका मानी जाती है। यहाँ शादी के बाद लड़का लड़की के घर आता है। नानी, उसकी लड़की तथा लड़की के बच्चों को परिवार समझा जाता है। गृहिणी घर की लक्ष्मी तथा सभी अच्छाइयों का आगार होती है। नारियाँ सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के केन्द्र में हैं और वंश का नाम इन्हीं से चलता है।
वैश्विक और महानगरीय आतंक के परिवेश में लोक-जीवनकी चिन्ताएँ कितनी आवश्यक हैं यह व्याख्यायित करने की आवश्यकता नहीं है। हम आज सभ्यता एवं संस्कृति की सीमा पर खड़े हैं। लोक-जीवन की जिज्ञासाएँ और आस्थाएँ ही दूषण युक्त वातावरण को पुनर्जीवन दे सकती हैं। यह सुखद है कि मेघालय के सरल जन अपने लोक को थाती की तरह सहेजे हैं क्या खाते-पीते हैं इससे अधिक महत्त्वपूर्ण शायद यह है कि अपनी वैचारिकता से किसी को मटियामेट तो नहीं करते।
यद्यपि मेघालय का मौसम हमेशा खुशगवार रहता है परन्तु मई-जून के महीने में यहाँ सैर सपाटे का अलग ही आनन्द है। प्रकृति की खूबसूरती जो मन्त्र मुग्ध ही नहीं अपने में बाँध लेती है और यहाँ की अद्वितीय संस्कृति जिसका अनुभव सबसे सुखद और दिलचस्प है हमें प्रकृति से जोड़ देती है, परन्तु इस सबके लिए समय चाहिए और जिन्दगी के तमाम पेचोखम में फुर्सत के कुछ पल मिल जाएँ तो सौभाग्य समझिए, बँधे रहिए नोन-तेल-लकड़ी में जब तक लकड़ियों की व्यवस्था का समय न आ जाए!