बाल कविताएँ
गिल्ली डंडा
गिल्ली डंडा खेल पुराना
खेला करते मेरे नाना
दिन-दिनभर बस गिल्ली खेलें
भूख लगे तो खाएँ केले
नहीं पढाई नहीं लिखाई
करते रहते रोज लड़ाई
फिर भी मित्र मिले बहुतेरे
रहते उनको घेरे-घेरे
सभी मित्र मिल मौज मनाते,
हल्ला-गुल्ला शोर मचाते
जब थककर अपने घर आते
भुना चबेना गुड से खाते
जब नाना ये बात बताते
हम बच्चे चुप ही रह जाते
काश! रहे होते हम भी तब
पढ़ना नहीं जरुरी था जब
जी भर सोते जी भर खाते
टीचर की हम डांट न पाते
मम्मी भी हरदम खुश रहतीं,
पढ़ो-पढ़ो रटती ना रहतीं
कटी पतंग
गोलू - भोलू दौड़ लगाओ,
पतंग कटी उसको ले जाओ।
देखो छत पर अटक गई है,
वह रस्ते से भटक गई है।
दौड़ा अरे उधर से शंकर,
लपको, पकड़ो पहले जाकर।
पतंग उठाओ डोर लपेटो ,
मंझा को तुम ठीक समेटो।
भले पतंग तुम ही ले लेना,
पर मंझा मुझको दे देना।
कल फिर पतंग उड़ाएंगे हम,
मिलकर मौज मनाएंगे सब।
अम्मा तेरे हाथ
कितने नरम तुम्हारे हाथ मेरी प्यारी अम्मा जी,
भाता मुझे तुम्हारा साथ मेरी प्यारी अम्मा जी।
इन हाथों से थपकी देकर जब तुम मुझे सुलाती हो,
मुझे नींद गहरी आ जाती सपने में तुम आती हो।
दूध भात से भरा कटोरा लिए हाथ में आती हो,
मुन्ना राजा बोल-बोल कर पूरा मुझे खिलाती हो।
खा पीकर मेरी अम्मा मैं यहाँ-वहाँ छिप जाता हूँ,
बोल-बोल कर अम्मा-अम्मा तुमको खूब छकाता हूँ।
पहले तुम हँस देती हो पर फिर गुस्सा हो जाती हो,
ढूढ़-ढूढ़ कर मुझको अम्मा तुम कितना थक जाती हो।
जब तुमको मिल जाता हूँ तब डांट तुम्हारी खाता हूँ,
अम्मा तेरे डर के मारे मैं झट से उठ जाता हूँ।
सपना कहीं भाग जाता है तुमको गले लगाता हूँ,
इन प्यारे हाथों को अपने सिर के ऊपर पाता हूँ।