बचपन वाला चाँद’’

बचपन वाला चाँद


अब नहीं दिखता


अम्मां कहती थी


चाँद पर बैठी कोई बुढ़िया


रात भर चरखा चलाती है....


भाग कर तुरन्त छत पर


मैं चाँद देख आती


हाँ, अम्मां, सच कहती थीं


उधर बुढ़िया चरखा कातती


इधर चाँद के बहाने


मैं हर रात दो रोटियां गटक जाती


चाँद खुश अम्मां खुश


मैं खा पीकर


बिस्तर पर सो जाती


यादें बहुत पुरानी ठहरी


पर ताजी इतनी


जैसे कल परसो ही घटा हो


आज, उम्र के इस पायदान पर


न भूख लगती


न रातों को नींद आती


रोज ढूंढती अम्मां को


काश! कहीं से आकर वो


मुझे दिखाती और कहती


''उठो जल्दी से खा लो


अपने हिस्से की रोटियां


वरना चाँद से निकल


गायब हो जायेगी बुढ़िया''


कोरों से ढलक जाती


जाने कितनी बूंदें


न अम्मां रहीं


न रहीं वो रातें


बपचन की बातें


वो खुशनुमा यादें


ले गई अम्मां अपने संग


घर वीराना, मैं अकेली


कहूँ, तो क्या कहूं


गर संदेशा मन की


कोई पहुँचा आता उन तक


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य