दिविक रमेश की बाल कविताएँ

मेरे चूं चूं


ला चिड़िया ला तिनका ला तू


मेरे भी घर उड़ कर आ तू


सुंदर सुंदर प्यारा प्यारा


एक घोंसला यहां बना तू


 


इसमें फिर तू अण्डे देना


बड़े प्यार से उनको सेना


तब निकलेंगे छोटे बच्चे


चीं-चीं करते चूं-चूं करते


 


बुला बुला कर सब बच्चों को


नन्हें मुन्ने दिखलाउंगी


सोनू की बच्ची को तो मैं


दिखा दिखा कर ललचाऊंगी


 


क्यों जी उसने भी तो अपने


पिल्ले नहीं दिखाए थे


अब क्यों दूंगी अपने चूं-चूं


हम कोई पिल्ले लाए थे


 


चूं चूं के बस जन्मदिनों पर


मैं तो उसे बुलाउंगी


चूं चूं को उसे प्यार किया तो


टाफी उसे खिलाउंगी।


 


बोलो प्यारे लाल गुलाब


बोलो प्यारे लाल गुलाब!


कहाँ-कहाँ से खुशबू वाली


कोमल सी पोटलिया पाई


नेहरू चाचा पर भी अपने


जादू की थी छड़ी घुमाई


इसका दे दो हमें जवाब!


खुद ही तो पहले हँस कर


अपने पास बुलाते हो जी


घोल घोल कर महक हवा में


अपना पता बताते हो जी


 


लेकिन जब हम तुम्हें पकड़ने


हाथ बढ़ाते हैं कुछ आगे


चाचा नेहरू की यादों के


हमें बाँध देते हो धागे


 


तुम सब के कानों में गुपचुप


कहे हो क्या लाल गुलाब


शायद तुम कहते हो, 'बच्चों


करने होंगे तुमको पूरे


चाचा नेहरू के सब ख्वाब।'


 


बोलो प्यार लाल गुलाब


 


ताऊ-ताई


ताऊ से ताई जी बोली


खाओगे क्या हलुआ


बोले ताऊ दाँत लगाकर


हाँ हाँ लाओ हलवा।


 


तो फिर जाकर ले आओ न


थोड़ा घी, कुछ शक्कर


और ज़रा सम्भल कर जाना


हो ना जाए टक्कर।


 


लाओ पैसे लाता हूँ मैं


पीछे मत घबराना।


ज़रा सम्भल कर रहना तुम भी


देखो गिर मत जाना।


 


मैं पड़ोसी, लेकिन कहता


उनको ताऊ-ताई


कभी न देखी उनमें मैंने


होते कभी लड़ाई


मैं बोला तुम घर में बैठो


मैं जाता हूँ ताऊ


बोलो ताई और बता दो


क्या क्या मैं ले ले आऊँ


 


दोनों ने तब गले लगाकर


फिर फिर मुझको चूमा


मुझको भी ताऊ-ताई से


प्यार हो गया दूना।


 


चला तो पीछे ताऊ बोले


टिंकू जितना होगा


तरस गए हैं उसे देखने


जाने कैसा होगा।


 


ताई बोली बेटा ही जब


भूल गया है जाकर


क्यों मन अपना खट्टा करते


जी में पोता लाकर।


सबको प्यारा घर


सदा यही तो कहती हो माँ


घर यह सिर्फ हमारा अपना,


लेकिन माँ कैसे मैं मानूं?


घर तो यह कितनों का अपना!


 


देखो तो क्से ये चूहे


खेल रहे हैं पकड़म-पकड़ी


कैसे मच्छर टहल रहे हैं


कैसे मस्त पड़ी है मकड़ी!


 


और छिपकली को देखो


चलती है तो गश्त लगाती,


अरे कतारें बांधे-बांधे


चींटी-चींटीं दोड़ी जाती।


 


और उधर आंगन में देखो


पंछी कैसे झपत रहे हैं,


बिलकुल दीदी और मुझ जैसे


किसी बात पर झगड़ रहे हैं।


 


इसीलिए तो कहता हूँ माँ


घर न समझो सिर्फ हमारा।


सदा-सदा से जो भी रहता


सबका ही है घर यह प्यारा


 


 


 



  1. बाल समस्याओं की कविताएँ (तीन कविताएँ)


 


यह बच्चा


 


कौन है पापा यह बच्चा जो


थाली की झूठन है खाता।


कौन है पापा यह बच्चा जो


कूड़े में कुछ ढूंढा करता।


 


देखो पापा देखो यह तो


नंगे पाँव ही चलता रहता।


कपड़े भी हैं फटे-पुराने


मैले मैले पहने रहता।


 


पापा ज़ारा बताना मुझको


क्या यह स्कूल नहीं है जाता।


थोड़ा ज़रा डांटना इसको


नहीं न कुछ भी यह पढ़ पाता।


 


पापा क्यों कुछ भी न कहते


इसको इसके मम्मी-पापा?


पर मेरे तो कितने अच्छे


अच्छे-अच्छे मम्मी-पापा।


 


पर पापा क्यों मन में आता


क्यों यह सबका झूठा खाए ?


यह भी पहने अच्छे कपड़े


यह भी रोज़ स्कूल में जाए।


मैं तो सब को प्यार करूंगा


नहीं रहा माँ इतना छोटा


समझ सकूं ना घर का टोटा।


तुम खटती हो घर घर जाकर


पोंछा, झाडू, बर्तन कर कर।


 


पर मैं समझ नहीं पाता हूँ


बापू काम नहीं करते क्यों।


बात-बात पर झगड़ा करते


दारू पी लेटे रहते क्यों।


 


क्यों बापू माँ हमें पीटते


और पीटते तुमको भी माँ?


क्यों तुम बस सहती रहती हो


क्यों चुप-चुप बस रह जाती माँ


 


क्या बापू को प्यार नहीं है


क्यों रूखे रूखे से रहते?


कितना अच्छा लगता ना माँ


प्यार हमें जो बापू करते।


 


सच कहता हूँ माँ नहीं मैं


ऐसा बापू कभी बनूंगा।


जैसे मेरी टीचर करती


मैं तो सबसे प्यार करूंगा।


 


छोटी छोटी बातों पर


माँ छोटी-छोटी बातों पर


क्यों गुस्सा तुमको आ जाता।


देखो न घर सारा अपना।


बस गुस्से से है भर जाता।


 


बजने लगते सारे बर्तन


हिलने लगती अरे रसोई।


टीवी भी गुमसुम हो जाता


लगता दीवारें अब रोई।


बहुत चाहते दूर रहे हम।


गुस्सू बातें नहीं करें हम।


कितनी तो कोशिश करते हैं


गुस्सू बातें दूर रखें हम।


 


जाने फिर भी क्यों हो जाती


जिस पर गुस्सा तुम को आता।


गुस्सा तुम पर हावी हो माँ


नहीं जरा भी हमको भाता।


 


माँ हम बहुत प्यार करते हैं


इसीलिए, तो हम डरते हैं।


गुस्सा होकर तुम पर भारी


कहीं बिगाड़े सेहत सारी!


 


घर


पापा, क्यों अच्छा लगता है


अपना प्यारा-प्यारा लगता है


घूम-घाम लें, खेल-खाल लें


नहीं भूलता अपना घर।


 


नहीं आपको लगता पापा,


है मां की गोदी-सा घर!


प्यारी-प्यारी ममता वाला


सुंदर-सुंदर न्यारा घर।


 


थक कर जब वापस आते हैं


कैसे बिछ-बिछ जाता घर,


खिला-पिला, आराम दिला कर


नई ताजगी देता घर।


 


पर पापा, इक बात बताओ


नहीं न होता सबका घर,


क्या करते होंगे वे बच्चे


जिनके पास नहीं है घर?



 


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