संपादकीय


ये अंक मैं बाल दिवस के लिए किसी बाल या बालिका को ही अतिथि संपादक बनाकर निकालना चाहता था। जिसके लिए मैं अपने नज़दीक किसी एक प्रतिष्ठित स्कूल के प्रिंसिपल को मिलने गया और अपना बाल पत्रिका सम्पादन विषयक प्रस्ताव रखा। प्राथमिक संवाद से ही मुझे आभास हो गया कि इन रूखे तिलों से तेल निकलने वाला नहीं है। फिर भी उन्हें समझाने का भरसक प्रयास किया लेकिन निराशा ही हाथ लगी। उन्होंने अनमने भाव से कहा कि सोच कर बताऊँगी। ''आप दो दिन बाद पता कर लें'' दो दिन बाद जाने पर बताया, बच्चों की हिंदी में कोई दिलचस्पी नहीं है। और अभिभावक भी पढ़ाई के अलावा बच्चों द्वारा कोई दूसरी गतिविधियों में भाग लेने को समय की बरबादी समझते हैं.....................  ..................   ....................  खैर मेरे ख्वाब वहीं बेबाक बिखर गए। योजना धरी की धरी रह गयी।


हम बचपन को पचपन के नज़रिए से देखते हैं। हम किसी नई पहल के लिए बच्चों को


प्रोत्साहित ही नहीं करते। अभिभावकों का दृष्टिकोण भी संक्रामक रोग ग्रस्त है- कला, संस्कृति के नाम पर शिक्षा संस्थाओं में मात्र औपचारिकता निभाने के ही उपक्रम किए जा रहे हैं। नतीजतन जीवन विकास के अनेक मार्ग स्वतः ही बंद होते चले जा रहे हैं।


मेरे युवा काल में मेरे सम्मानित प्रोफेसर तुलसी कहा कहते थे कि पहले बच्चे बिगड़े हुए कहे जाते थे परंतु आज तो उनसे कई गुणा अधिक माँ-बाप ही बिगड़ चुके हैं जैसे, परीक्षाओं में बच्चे पहले आँख बचा कर नकल किया करते थे, किन्तु अब माँ-बाप उनके खुली नकल करने का प्रबन्ध कर देते हैं।


कैसे हैं ये माता-पिता जो बच्चों को पोषित नहीं करते, प्रदूषित कर देते हैं। जिनके पास बच्चों को दुलार और प्यार देने का तो समय नहीं है, किन्तु उन्हें बिगाड़ने को जो समान चाहिए वह सब लाकर देते रहते हैं।


इन बिगड़े माँ-बाप के वीर बालकों के कारनामे अक्सर समाचार पत्रों में छाये रहते हैं। जैसे, एक नेता के सपूत किसी एक महानगर में एक मधुशाला में साक़ी को इसलिए गोली मार देते हैं कि उसने उन्हें एक और जाम पेश करने से इन्कार कर दिया था। एक वरिष्ठ पुलिए अधिकारी के सुपुत्र एक अन्य स्थान पर एक आइसक्रीम विक्रेता को इसलिए गोली मार देते हैं कि उसके पास उनकी मनपसन्द आइसक्रीम नहीं थी।


अमरीका आधुनिक जगत् का नेता है और भारत भी बड़ी तत्परता से उसका अनुसरण कर रहा है। किन्तु अभी तक हम उससे बहुत पीछे हैं। अतः यहाँ के मां-बाप भी अभी तक वैसे वीर बालक पैदा नहीं कर सके जो पुस्तकों के बदले पिस्तौलें लेकर पाठशाला को जाते हैं और अपने सहपाठियों पर अन्धाधुन्ध गोलियां बरसा कर तीस-चालीस विद्यार्थियों को पढ़ने-लिखने के रोज-रोज के झंझट से सदा के लिए मुक्त कर देते हैं और साथ ही दो चार गुरुओं को भी शुभ दक्षिणा दे देते हैं।


बीमार होते बचपन के लिए खास नुस्खे तो बहुत हैं और उन्हें अनमने ढंग से अपनाया भी गया है लेकिन फिर भी रोग बढ़ता ही गया। कुछ स्कूल/संस्थाएँ अच्छा काम कर भी रही हैं। मुम्बई के एक प्ले स्कूल में जाने का मौका मिला, उनकी गतिविधियों का ब्यौरा जाना तो मन प्रसन्न हो गया।


उस स्कूल में शुक्रवार हिंदी दिवस के रूप में रखा गया है- उस दिन बच्चों के अलावा स्टाफ भी हिंदी में ही संवादरत होता है। भारत के प्रत्येक प्रांत के त्यौहार मनाये जाते हैं और प्रत्येक प्रांत की वेशभूषा, खानपान और पहनावे से भी बच्चों को अवगत कराया जाता है। उसी स्कूल की कुछ तस्वीरें आवरण पृष्ठ पर दी जा रही हैं। संस्कारित शिक्षा देकर बच्चों की विकास यात्रा की नींव पक्की की जा रही है। मुझे इस बात की प्रसन्नता हुई और दिल गदगद हो गया कि स्कूल की मैंनेजमैंट और स्टाफ पूर्णरूपेण समर्पण से बच्चों को बाल्य अवस्था में ही भारतीय संस्कृति से पोषित कर रहे हैं।


चलिए अभिभावकों और गुरुजनों के लिए भी कुछ विषय सामग्री परोस दी जाए। आइए, वैज्ञानिक आइनस्टाईन के बारे में कुछ बात कर लें-


बाल-सुलभ जिज्ञासा


आइनस्टाईन एक और दृष्टि से भी बच्चे थे- अपनी बाल-सुलभ जिज्ञासा के कारण ।


मौलिक सृजन करने वाले व्यक्ति की एक बड़ी विशेषता है उसकी बालसुलभ जिज्ञासा। बचपन में हम प्रत्येक बात को बड़े कुतूहल से देखते हैं और उसके बारे में बचकाने सवाल पूछते हैं-बड़े बूढ़े कभी हंस कर टाल देते हैं, कभी झिड़क कर चुप करा देते हैं। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं हम अधिक 'समझदार' होते जाते हैं। बचकाने प्रश्न पूछना छोड़ देते हैं, दूसरों के बचकाने प्रश्नों पर हंसना सीख लेते हैं।


किन्तु दो प्रकार के व्यक्ति हैं जो इस दृष्टि से कभी 'समझदार' नहीं बन पाते - पागल और जीनियस (प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्ति)। वे बचकाने प्रश्न पूछते रहते हैं। विशेषतः वैज्ञानिक और कलाकार, क्योंकि, आइनस्टाईन के शब्दों में ''सत्य और सौन्दर्य की खोज, ये दो ऐसे कार्यक्षेत्र हैं जिन में हम जीवन भर बच्चे बने रह सकते हैं।''


आइनस्टाईन भी जीवन-भर बचकाने प्रश्न पूछते रहे। उनके शब्द हैं ''सबसे महत्त्वपूर्ण बात है प्रश्न पूछते रहना ... ... इस, पवित्र जिज्ञासा को कभी मत खोना।''


बचपन में आइनस्टाईन को बहुत तेज या होनहार नहीं समझा जाता था। और मजेदार बात यह है कि अपने पिछड़ेपन को ही आइनस्टाईन अपनी सफलता का बड़ा कारण मानते हैं - ''कभी-कभी मैं अपने आप से पूछता हूं- यह कैसे हो गया कि यह मैं था जिसने सापेक्षता का सिद्धान्त विकसित किया इसका कारण, मैं समझता हूँ, यह है कि कोई सामान्य वयस्क कभी देश-काल के प्रश्नों पर सोचने के लिए नहीं ठहरता--इन बातों के बारे में तो वह बचपन से ही जानता है। किन्तु मेरा बौद्धिक-विकास पिछड़ गया था, परिणाम यह हुआ कि देश-काल के बारे में मैंने केवल तब सोचना शुरू किया जबकि मैं बड़ा हो चुका था। स्वाभाविक है कि इस प्रश्न के बारे में मैं बच्चे की अपेक्षा अधिक गहरा उतर सका।''


बच्चे और खेल


शनिवार, 19 अक्टूबर 2019 को एक गोष्ठी में सम्मिलित होने का अवसर मिला जिसमें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अध्यक्ष श्री वेद प्रकाश जी को सुनने का मौका मिला। विषय था- 'भारत में खेल संस्कृति की संभावनाएँ व चुनौतियाँ''। इस विषय पर व्याख्यान देते हुए वेद प्रकाश जी ने खेल को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने की वकालत करते हुए उन्होंने भारत में खेल को जीवन का हिस्सा बनाने को जरूरी बताया और इसके लिए सरकार से ज्यादा समाज को आगे आने के लिए अपील की। इस व्याख्यान माला में पूर्व खिलाड़ियों ने भी हिस्सा लिया। और कहा कि खेल को खिलाड़ी बनने का या ओलंपिक जीतने के लिए नहीं खेलें बल्कि सौ साल जीने के लिए खेलें। सभी ने समाज में खेल संस्कृति बनाने की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने सुझाव दिए कि हमें बच्चों को कम से कम एक घंटा खेल के मैदान में बिताने देना चाहिए। खेल- स्मृति बढ़ाने, बेहतर समझ बनाने, अनुशासन, अच्छे नम्बर लाने को एकाग्रता बढ़ाने, निर्णय लेने और ध्यान की क्षमता बढ़ाने के लिए ख्ेाल एक घटक का काम करता है। श्री कनिष्ठ पाण्डे ने भी खेल को मौलिक अधिकार बनाने की मांग की। उन्होंने कहा कि नर्सरी स्तर से बच्चों को खेल से जोड़ने की पहल जरूरी है। 'क' से कबूतर' के साथ बच्चों को 'क' से कबड्डी और 'ख' से खो खो भी बताया जाना चाहिए। उन्होंने दावा किया कि खेल संस्कृति विकसित करने के लिए सामाजिक सोच में बदलाव लाने की जरूरत है।


बच्चे के पहले तीन साल


प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ऐडलर ने कहा था कि व्यक्ति की मूल जीवन-शैली उसकी उम्र के प्रथम तीन वर्षों में ही निरूपित हो जाती है। काम करने के जिस बुनियादी ढंग का वह इन प्रारम्भिक वर्षों में अभ्यस्त हो जाता है बहुत कुछ उसी ढंग से जीवन भर काम करता रहता है। जैसे, यदि उसके रोने-चिल्लाने पर ही माता-पिता उसकी ओर ध्यान देते हैं, तो वह जीवन भर रो-चिल्ला कर ही लोगों को आकर्षिकत करनेकी चेष्टा करता है।


बच्चों में सहृदयतापूर्ण मानसिकता विकसित करने के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें जीवनके प्रारंभिक वर्षों में, माँ-बाप का भरपूर प्यार-दुलार मिले। और मजे़दार बात यह है कि यही प्यार-दुलार, अपने सहज स्वस्थ रूप में, बिगड़े माँ बाप का भी इलाज है।


 


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