संस्मरण - आधी प्याली चाय अमृता प्रीतम के साथ

कुछ बातें, कुछ आवाजे़ें, कुछ अहसास, घड़कते रहते हैं आप के दिल में और जिन्दा रहते हैं हमेशा आप के ज़ेहन में। आपके साथ-साथ बड़े होते रहते हैं-दिन व दिन, साल-दर-साल। कई बार सोचती हूँ वो खुश्बू जो हवाओं में घुल कर आप की सांसों में समा जाती है क्या वो कभी आप से जुदा हो सकती है शायद कभी नहीं-वो तो आप की रगों में बहने लगती हैं। आप के वुजूद का अटूट हिस्सा बन जाती है।


ऐसी ही एक 'आधी प्याली चाय' की खुश्बू है जो रच-बस चुकी है मेरे वुजूद में। वो खनकती हुई आवाज़-जिस में पर्वत सा ठहराव भी था और बहते पानियों की कलकल भी सुनाई देती थी। पतली-पतली ऊंगलियों से मिला स्पर्श जो मेरे बाल मन को स्पंदित कर गया था उस छुअन की अनुभूति आज भी मेरे दिल में जीवित है।


ढलती शाम की खूबसूरती के आगे जब फीका पड़ जाता है सूरज तो चाय की चुस्की लेते ही मेरी यादों की खिड़की खुल जाती है और मैं पहुँच जाती हूँ उम्र के उस पड़ाव पर जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ती थी....


आज से तकरीबन पैंतीस साल पहले जब मैं आठवी कक्षा में थी तो  एक बाल साहित्यिक मेले में, अमृता प्रीतम जी अध्यक्ष पद पर आसीन थी। वहाँ नाॅर्थ इंडिया ज़ोन के भाषा विभाग


द्वारा करनाल जाने वाले कहानी लेखन मुकाबलों के प्रांतीय पहले तीन स्थानों पर रहने वाले प्रतियोगियों को सम्मानित किया जाना था। और प्रथम स्थान ग्रहण करने वाले छात्रों ने अपनी-अपनी रचना का पाठ भी प्रस्तुत करना था। मेरी कहानी अमृता जी को बहुत पसंद आई इस बात का पता मुझे तब चला जब ईनाम वितरण समारोह के बाद जलपान के दौरान पंजाब भाषा विभाग के डायरैक्टर स. कपूर सिंह घुम्मन मुझे ढूंढते हुए आये और मुझे अमृता जी के पास ले गए। तभी उन के टेबल पर चाय आ गई। मैंने अपने ईनाम हाथों में थाम रखे थे। उन्होंने बड़े प्यार से मेरी पीठ थपथपाई और बोलीं, ''बीबा जी, तंुसी ते पहले ही एने सारे ईनाम चुक्के होए ने, हुण मैं तुहानूँ की दवाँ, एन्नी सोहणी कहानी लिखन लई, मेरे कोल तां एह चाय दी प्याली है चलो, अध्धी-अध्धी पी लैने आँ''1 पलक झपकते ही उन्होंने आधी चाय प्लेट में डाली और प्याली मेरी ओर बढ़ा दी- मैंने घुम्मन अंकल की ओर देखा-उन्होंने स्वीकृति में सिर हिलाया और मेरे ईनाम पकड़ लिए। अमृता जी ने मुस्कुराते हुए मेरे हाथ में चाय की प्याली दी और घुम्मन अंकल को देख के हंसते हुए बोली, ''कुड़ी डर दी है, किते ईनाम गुम न हो जान'' 2 मैं भी बाल-सुलभ मन से मुस्कुरा दी उनके साथ-


यकीन जानिए- जिस शायरा की कविता-'अज्ज-आखाँ वारिस शाह नूँ, किते कबरा' 'विच्चो बोल....' हमने सिलेबस की किताबों में पढ़ी थी- वो मेरे सामने बैठी थी- और मैं उन के हाथों से दी गई चाय का प्यार पी रही थी- सपने जैसा लग रहा था। उस दिन से पहले मैंने कभी चाय नहीं पी थी। दादी कहती थी, 'चाय पियेंगी, तो काली हो जाएगी' लेकिन आठवीं क्लास से लेकर आज तक मैं 'चाय की दीवानी' के नाम से मशहूर हूँ- लेकिन यह कोई नहीं जानता कि मैं इस चाय की तलव में ढूँढती-फिरती हूँ उस आधी प्याली चाय का स्वाद और अमृता जी का सान्निध्य।


जब बड़ी हुई तो उनके बारे में पढ़ा बहुत बार दिल किया उन्हें ख़त लिखूँ- और सांझा करूँ वह किस्सा जो उनके साथ गुज़रा था- साहिर की एक प्याली चाय का जिसे उन्होंने शेयर किया था। ऐसे ही मेरे स्मृति पटल पर भी एक प्याली चाय की तस्वीर अक्सर उभरती रहती है-कितना कुछ धुल गया इतने सारे सालों में यादों की स्लेट से, पर नहीं धुली उस एक अनमोल पल की याद। आप के साथ चाय की आधी प्याली बांटने के अंदाज का दृश्य जो आज भी मेरे जे़हन के धूसर गुद्दे का अंश बन मुझे आप के साथ होने का एहसास कराता रहता है।


इसे झिझक कहिए, नासमझी कहिए या होनी कहिए। मैं कभी हिम्मत नहीं जुटा पाई उन्हें बताने की कि मैं आज जो अपने दोस्तों में 'चाय की दीवानी' के नाम से जानी जाती हूँ- मेरी चाय से महोब्बत की शुरुआत तो आप के हाथों मिली आधी प्याली चाय से शुरु हुई थी।


साँझ ढले छत की मुंडेर से सट के खड़ी हाथ में चाय की प्याली को निहारते हुए बादलों के अद्भुत बदलते रंगों को देख सोच रही थी, विस्मित हो रही थी मैं- सूरज शाम को सिंदूरी रंग में रंगता हुआ जाने कौन देस जा रहा होगा- चाय की प्याली से भाप उड़ रही थी और और मेरी आँखों में दो आकृतियां उभर रही थी- 'अमृता और इमरोज़' जब ढलती शाम की खूबसूरती को देख अमृता जी ने इमरोज़ से कहा था कि


'ढलती शाम में मिले हो तुम।


काश कि उम्र की दोपहरी में मिले होते''


और इमरोज़ का ये कहना कि तुम नहीं जानती- तुम कितनी हसीन शाम हो-


 


बेटी तुम ने तो पहले ही इतने ईनाम उठाए हुए हैं तो मैं तुम्हें क्या दूँ, इतनी खूबसूरत कहानी लिखने के लिए इस समय तो मेरे पास चाय की प्याली ही है- चलो आधी-आधी पी लेते हैं।


 


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