बेचैनी जो ग़ज़लों में महसूस होती है’’

एक उम्र पर पहुँच कर अदीबों के साथ दो तरह की विभिन्न घटनाएँ घटती हैं। एक घटना यह कि साठ की उम्र तक आते-आते बहुत सारे अदीब लिखना (लगभग) छोड़ देते हैं। लिखना छोड़ने के पीछे रचनात्मक 'सूखा' एक बड़ा कारण होता है। इसका कारण यह कि क्रांतिकारिता का जज़्बा सर्द पड़ने लगता है।


दूसरी तरह के वो लोग होते हैं जिनके साथ साहित्यिक चमत्कार-सा घटित होता है। वो सेवा निवृत्त हो जाने के बाद लिखना शुरू करते हैं। यह शायद इसलिए संभव हो पाता है कि साहित्यिक प्रतिभा तो मनुष्य के भीतर कहीं पहले से मौजूद होती है, उसका विस्फोट एक उम्र के बाद होता है। विनोद प्रकाश गुप्ता के साथ ऐसा ही हुआ है। वो आई. ए. एस. अधिकारी थे। सेवा निवृत्ति के बाद साहित्य में ऐसे सक्रिय हुए कि अल्फ़ाज की दुनिया से घनिष्ठता हो गई। उन्होंने ग़ज़ल जैसी, बाहर से आसान और अपनी आंतरिक संरचना में कठिन विधा को चुना।


रिटायरमैंट के बाद प्रायः हर मनुष्य के सामने एक बड़ा सवाल आकर खड़ा हो जाता है कि फुर्सत भरे दिनों का क्या होगा? लेकिन विनोद प्रकाश ने इस जटिल प्रश्न का उत्तर उस जीवन लय में दिया जो अदब के सौंदर्य में ध्वनित होता है। व्यर्थता का बोध सार्थकता में बदलना और बेमानी समय को मानीख़ेज बना देना, बेहद चुनौतीपूर्वक होता है, लेकिन विनोद प्रकाश ने इसे कर दिखाया है।


विनोद प्रकाश की ग़ज़लें पढ़ते हुए यह अनुभूति होती है कि हम एक बेचैन ग़ज़लकार की ग़ज़लें पढ़ रहे हैं जो समाज और सियासत के अनाचार पर क्षुब्ध है। क्षुब्ध इस बात से भी है कि यह नया समाज इतना वाचाल क्यों है -


                                             ''ज़माने का ये इतना शोर सुनकर जी में आता है


                                               ये गूंगा क्यों नहीं होता मैं बहरा क्यों नहीं होता“


शेर के आखि़र में जो प्रश्नवाचकता है-मैं बहरा क्यों नहीं होता? यहाँजो कवि की व्याकुलता


ध्वनित होती है, शायरी वहाँ है......................   -साभार: ''आओ नई सहर का नया शम्स रोक लें''


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