मात्रिका
चिट्ठी में मिली इक पंखुरी गुलाब की,
कह गई बेसाख़्ता हालत जनाब की।
हाशिये-प-लिखा हुआ इक लफ़्ज़ मुहब्बत,
याद दिलाने लगा इक हसीन ख़्वाब की।
सौगातों की तरह महफूज है अब तक,
इबारत लिखी है तूने जिस किताब की।
तूने तल्ख़ बातें गिनवाई ही नहीं,
गुज़री हुई नादानियों के हिसाब की।
मीठे अल्फाज में पूछी है खैरियत,
मुहब्बत में उजड़े हुये इक नवाब की।
तूने ज़िक्र किया मौसम गुल तितली का,
रौनक़ समझ गया मैं तेरे शबाव की।
बिजली नहीं बादल लिखा तूने मुझे,
जानता हूँ मजबूरी तिरे हिजाब की।
सच मानिये आज तो करिश्मा हो गया,
मायूस था उम्मीद नहीं थी जबाब की।
शुक्रिया तेरी चिट्ठी का सौ सौ बार,
खुश हूँ परवाह की मेरे आदाब की।
क्या हुआ क्यों कर हुआ ताज्जुब है मुझे,
दुआ चाही है एक खाना खराब की।