ग़ज़ल

ज़िन्दगी का सफ़र यूँ तो मुश्किल मगर, हौसला हो अगर, कुछ भी मुश्किल नहीं


इक हसीं हम सफ़र, साथ हो उम्र भर, फिर लगे दूर कोई भी मंज़िल नहीं


 


पास अहसास हो, मन में विश्वास हो, यास का गर कोई फिर भी इम्काँ रहे


रूकना मत राह में, लक्ष्य की चाह में, वर्ना होगा कभी कुछ भी हासिल नहीं


 


जो भी करता फ़ना, कुछ सबब के बिना, हसरतों को किसी की, ज़रा सोचिए


क्यों न उसको भला, ज़्ाीस्त में हो सज़ा, क्या बशर ऐसा होता है क़ातिल नहीं


 


उनकी क्या ज़िन्दगी, ग़्ाुरबतों में पली जिन पे होते सितम बेवजह रात दिन


हमको जिस ज़्ाुल्म का इल्म है मानिए, मुफ़्लि सों पे क्या होता वो नाज़िल नहीं


 


अब मुहब्बत, सदाकत न आती नज़र, आदमी इस क़दर बेमुरव्वत हुआ


उसको बेदर्द, गाफ़िल या जाहिल कहें, ग़म में होता किसी के जो शामिल नहीं


 


नाख़ुदा पर यकीं, अब रहा ही नहीं, वो भी कश्ती डुबो देता मझधार में


जायें उस पार कैसे बताए कोई, अब नज़र में कहीं आता साहिल नहीं


 


बेख़ुदी में भी लगती ख़ुदी क्या कहें, ख़ुदपरस्ती में इन्सां ख़ुदा सा लगे


आलिमों-फ़ाज़िलों की नहीं है कमी, फिर भी तो आदमी कोई कामिल नहीं


 


अब वफ़ा भी बड़ी बेवफ़ा हो गई, अपने भी आजकल गै़र से हो गये


दोस्ती भी हुई मतलबी क्या करें, राहवर मोतबर कोई क़ाबिल नहीं


 


कुछ भी अंदाज़ होता न पोशाक से, सब की कीजे परख उनके किरदार से


प्यार, इक़रार की बात करते, सभी, प्यार का मिलता कोई भी आमिल नहीं


 


ऐ 'सुधाकर' सुनाएँ किसे दास्तां, रहबरों की पनाहों में होते गुनाह


काफ़िले क़ातिलों के हैं आज़ाद अब, करता इंसाफ़ कोई भी आदिल नहीं।



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