ग़ज़लें
आईना मैं हूँ, अपना आप छिपाया न करो,
बनके एक राज़, कभी सामने आया न करो.
हमें मालूम है, तुम कह के मुकर जाओगे,
झूठी कसमें, अजी, किबला, कभी खाया न करो .
बड़ी तनहा, बड़ी वीरान मिलेगी तुमको,
मैं नहीं जिसमें, वो महफिल भी सज़ाया न करो .
सूखे पत्तों का नशेमन है, संभल कर रहना ,
इसमें हलकी सी भी चिंगारी, जलाया न करो .
जितना चाहो करो पर्दा, यहाँ इंसानों से,
उसकी चैखट पे नकाबों में, तो जाया न करो .
भरे समन्दरों में, कश्तियों में शर्त लगी,
'अ री' तूफान, किनारे पे है जाया न करो.
'सरोज' ऐसी भी क्या जल्दी है घर जाने की,
जल्द जाना है अगर उठ के तो आया न करो .
चाहा, हो तस्वीर से बातें, वो लेकिन बहरी निकली,
दे खा, जो नदिया भी उथली, हाय, वही गहरी निकली.
तपते दिन के बाद सुहानी शाम, मयस्सर हो, सोचा,
सेहरा में झुलसी, झुलसी फिर आग सी दोपहरी निकली.
कहा किसी ने, सच्चाई बस नहीं मिलेगी, सच वाले को,
जब देखी दुनिया, झूठी, तो उसकी बात खरी निकली.
झुका - झुका वह चल न सके क्यों, सोच सोच, मैं हैराँ था
जो थी बड़ी सी, धरी पीठ पर, पाप भरी गठरी निकली.
न पतझड़, न ग्रीष्म तपा, फिर क्यूँ मौसम मुरझाया-सा
खून सींच बगिया देखी, तब हरियाली, हरी निकली.
हसद, जला पा, देख देख के, मन कांपा जाता है 'सरोज '
बात झरी जो उसके मुंह से ,कितनी जहर भरी निकली .
आँखों में अश्क, दिल में हक़ीक़त के ख्वाब थे,
ख्वाबों में, ज़िन्दगी के, अलग ही जवाब थे.
कातिल हैं बेकसूर, उन्हें होश था कहाँ,
बहकाया कातिलों को, वो जामे-शराब थे.
चाहो तो नाम दे दो, समंदर की लहर का,
भटके, मुसाफिरों के लिए, वो सराब थे.
वो तो ग़मों से लड़ता रहा था, तमाम उम्र,
यूँ, उम्र छोटी पड़ गई, ग़म बेहिसाब थे.
भरपेट उसको मिल ही गई सूखी रोटियाँ,
कैसे कहें, गरीबी के वो दिन 'अजाब' थे.
चलकर तमाम रात, सितारे भी, सो गए,
जो रात जागते ही रहे, उसके ख्वाब थे.
कूयें में डाल देती हूँ, मैं, नेकियाँ सदा
बदले में जो, 'सरोज' मिले, सब सवाब थे.
यूँ तो, सन्नाटे बुनता है,
चीखों को, लेकिन सुनता है.
सूरत देख, अपनी शीशे में ,
पछताता है, सिर धुनता है.
पागल है, पागल की बातें,
सुन कर, फिर उनको, गुनता है .
जोड़-तोड़ के, फंदे बांधे,
फटी चदरिया भी बुनता है.
देख ज़रा फरियाद, तू करके
वो 'रब' है सबकी सुनता है.
फूल पड़े हैं, जब राहों में,
तू कांटे ही क्यों चुनता है.
बना नशेमन, अजब, बयां का,
साथ 'सरोज', गजल बुनता है