ग़ज़लें
जब भी बंटवारे की सूरत आ गई
फिर तो बस घर में अदालत आ गई
दूध की नदियां लगीं बहने वहाँ
जिस जगह पे आदमीयत आ गई
भाईचारा रह गया दम तोड़कर
घोलने को जहर, नफरत आ गई
ख़ाक करके ही लिया दम बर्क ने
चार तिनकों पर क़यामत आ गई
तोड़ू दस्ता और बारिश साथ-साथ
झुग्गियों वालों की शामत आ गई
हो गया नेतागिरी में उसका नाम
आज की जिसको सियासत आ गई
जब अक़ीदत को ठिकाना मिल गया
दिल को 'देवी' तब इबादत आ गई
न जाने किस पे तबाही की है निगाह अभी
हुई है शहर की बस्ती कोई तबाह अभी
कोई तो शाम हो ऐसी करे जो दिल रोशन
मेरी सहर तो मुकद्दर से है सियाह अभी
हजारों रंग बदलती है रात-दिन दुनिया
है कशमकश में पड़ी मेरे दिल की चाह अभी
तमाम रात बिताई है तारे गिन-गिन कर
ये सलवटें मेरी चादर की हैं गवाह अभी
ख़याल दिल में मुहब्बत का ला न ऐ नादाँ
ये समझा जाता है दुनिया में इक गुनाह अभी
दिला सकेंगे न इन्साफ सब बयाँ सच के
फंसा है झूठ की साजिश में बेगुनाह अभी
हयात को भी मयस्सर कहाँ सुकूं 'देवी'
न चाहतों को मिली है कोई पनाह अभी
पहले अनबन थी मगर बढ़ कर रकाबत हो गई
देख कर हैरान बरसों की रिफ़ाकत हो गई
थे रफ़ीक़ इक-दूसरे के, फिर न जाने क्या हुआ
बात तो कुछ भी न थी लेकिन अदावत हो गई
एक हाजत मंद की चाहत को पूरा कर दिया
थी तसल्ली ये कि पूरी उसकी हाजत हो गई
मिल के रहना जब से सीखा है मेरे परिवार ने
चारदीवारी मेरे घर की तो जन्नत हो गई
घर बना कर साहिलों पर डर रहे तूफान से
बेअसर उन सरफिरों पर हर नसीहत हो गई
जोड़कर तिनके उम्मीदों के बना जब आशियाँ
बिजलियों का उनपे गिरना जैसे फितरत हो गई
शोरो-गुल से दूर जो खामोशियों में हैं पले
उनको सन्नाटों में रहने की ही आदत हो गई
वहाँ तो नफरतें थीं और था कुछ भी नहीं यारो
जो भड़की आग बस्ती में बचा, कुछ भी नहीं यारो
रिदा मजबूरियों की ओढ़ कर तन को ढका हमने
हमारे बस में था इसके सिवा, कुछ भी नहीं यारो
कभी शोलों पे रक्खा है, कभी नहलाया शबनम से
ख़लिश की सारी दुनिया है, दवा कुछ भी नहीं यारो
न थी औकात उनकी कुछ, मगर शतरंज जा खेले
लगाया दांव पर सब कुछ, बचा कुछ भी नहीं यारो
मुझे इंसानियत का इक सबक़ तुम अब तो पढ़ने दो
कि इन्साँ होके भी मैंने, पढ़ा कुछ भी नहीं यारो
जो चाहो जाँच लो नेकी-बदी का लेखा-जोखा तुम
कि मेरी नेक नीयत में दगा कुछ भी नहीं यारो
गमों का पी रहा सागर है इन्साँ आज भी ' देवी'
खुशी की खोज में निकला, मिला कुछ भी नहीं यारो