ग़ज़लें

रख रही जख्मों पे अपनी उँगलियाँ पागल हवा


खोल देगी  दर्द की सब  खिड़कियाँ पागल हवा


ले  गई  है बादलों  तक  गर्म रातों की सनक


अब गिराएगी मकां पर बिजलियाँ  पागल हवा


बस जरा उनके दिलों से  दूर क्या हम हो गए


है  बढ़ाने  पर  अमादा  दूरियाँ  पागल  हवा


आंधियों की बात  तुमसे क्या करें हम  दोस्तो


जब  उड़ाकर ले गई सब तितलियाँ पागल हवा


हर दफा तूफान  में  वो बादलों  की  आड़ में


साहिलों से  दूर करती  कश्तियां  पागल  हवा


 


महकी  हुई  बहार  में  फूलों  की राह से


चूमा  है मेरा  नाम  किसी  ने निगाह से


वो  जो है एक  हर्फ  तेरी  याद  से जुड़ा


निकला  नहीं  है आज  भी मेरी पनाह से


सच फिर से मुजरिमों के ही पैरों पे जा गिरा


हासिल न  कर  सकी  जो अदालत गवाह से


रिश्तों  में ये दरार  तो पहले भी कम न थी


कुछ  और बढ़  गई  है  हमारे  गुनाह  से


करिए न इतना जुल्म सियासत के नाम पर


बचिए  मेरे   हुजूर  गरीबों  की  आह  से 


 


आपसे  और  न गैरों से  गिला रहता है


दर्द की धूप में  साया  भी खफा रहता है


नींद इस सोच से आई न कभी भी मुझको


ख्वाब आँखों की सियासत से जुदा रहता है


बात  अपनी मैं  कोई तुझसे कहूँ  तो कैसे


तेरे  भीतर तो  कोई  और  छुपा  रहता है


जो कि सहरा में चले धूप लिए पलकों पर


सर्द रुत में भी  वही  तनके खड़ा रहता है


फर्क क्या है कि मैं नजरों से हटा लूँ दर्पण


मेरे आँसू  को  मगर गम का पता रहता है


 


तेरे  सिवा कहीं न  किसी  से जुदा हुए


फिर ये बता कि रूह से  कैसे रिहा हुए


तुझको जो भूलने की हुई भूल क्या कभी


आँसू  हमारी आँख  के हमसे  खफा हुए


हमने लहू से गीत लिखे हैं तमाम  उम्र


हालात  अपने  आप  कहाँ खुशनुमा हुए


सर से जो  इंतजार का  पानी  उतर गया


खुशबू थे हम भी खुद में बिखरके हवा हुए


रहते थे जो  खुलूस  से अपने पड़ोस  में


लम्हों  के  भेद-भाव  से  वे  बेवफा हुए


 


हवा में  पाँव  होठों पर हँसी है


ये कैसी हुस्न  की दीवानगी है


नए वादों के  फिर जेवर पहनकर


सियासत मुफलिसी में ढल रही है


वहाँ कुछ होंठ भी पत्थर के होंगे


जहां कुछ  बेअदब सी जिंदगी है


न इतनी तेज चल पुरवाइयों  में


अभी मौसम में थोड़ी सी नमी है


भला क्यों  चाँद के पहलू में तेरे


बदन खामोश कुछ-कुछ बेबसी है  



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