ग़ज़लें
बंद पिंजरा उड़ान क्या जानो
है कहीं आसमान क्या जानो
रास्ते भी न हम सफ़र जिसके
तुम वो तनहा थकान क्या जानो
उसके दीवारो दर कहाँ होंगे
मुफ़लिसी का मकान क्या जानो
धूप तल्ख़ी से लड़ झगड़ लेगी
छाँव का सायबान क्या जानो
वाक़िये को ही वो बदल देगा
उसका ताज़ा बयान क्या जानो
तेरे बदन की ख़ुश्बू चिट्ठी से आ रही है
जो ख़्वाब सो चुके थे उनको जगा रही है
मैंने दफ़न किया था हर ग़म को हर ख़ुशी को
मेरे बदन की मिट्टी फिर कुलबुला रही है
जीने के सारे मन्ज़र वो ले गया मुझी से
अब मौत देके थपकी मुझको सुला रही है
हिरनों के पाँव झुलसे ये धूप है ग़ज़ब की
लो धूप की तलाशी सब को जला रही है
सुन कर हवा गई है पेड़ों की सारी बातें
इक घोंसले में चिड़िया सपने सजा रही है।