ग़ज़लें

दिल की गांठें कब खोलेंगे


अब जो नहीं तो कब बोलेंगे।


ये जो बनिए राजनीति के


कब तक हम को कम तोलेंगे।


सुनो, कि हम अब सच्चा सौदा


अगर मिलेगा कहीं, तो लेंगे।


आख़िर हम आईना ठहरे


हम तो भैया सच्च बोलेंगे।


ताकि दिखे वह हीरा 'अरुण' अब


आप तिजोरी कब खोलेंगे?


 


पूछ रहे हो, उस दिलबर से क्या अब भी मेरा नाता है।


कहना है मुश्किल है पर अब भी सपनों में वह आता है।


धन दौलत भी है रसूख़ भी फिर भी डरे डरे रहते हो


कौन है वह अदृश्य हाथ जो यार! तुम्हें अब धमकाता है।


सोना चांदी बेचने वाले! बनिज में इतना भी  क्या लालच


सोना चांदी बेचने वाला क्या सोना चांदी खाता है!


मुंह ज़ोरी से बचना साहिब! मुंह ज़ोरी तो एक बला है


जो अभ्यस्त हो मुंह ज़ोरी का वह इक दिन मुंह की खाता है।


विजय 'अरुण' के बारे में अब पूछ रहे हो तो कहता हूँ


वैसे तो गोमुखी है लेकिन सिंहमुखी भी हो जाता है।



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