ग़ज़लें

कभी जिस्मो-जां में परे-परे, कभी रंगों-नूर के दरमियाँ


तेरी धूप-छाँव लिये-लिये, मैं भटक रहा हूँ कहाँ-कहाँ.


 


ये तमाशा ख़ुद में है-सर-ब-सर, नहीं हम प' खुलता है क्यों मगर


कि थिरकती होती है अंगुलियाँ, नज़र जाती है कठपुतलियाँ.


 


किसी शै का क़द है न जिस्म है, तेरा शहर है कि तिलिस्म है


मैं झुलस रहा हूँ ख़्याल तक, कहीं आग है न कहीं धुआँ.


 


कभी चोट से कभी नोट से, इक अजीब खेल है वोट से


हमें हारने सभी दाँव हैं, तुम्हें जीतनी सभी बाज़ियाँ.


 


कोई मेह्रो-माह उछाल दूँ, मैं चिराग़ राह में बाल दूँ?


कि ये रोशनी कि ये ज़िंदगी, हो ज़मांँ-ज़माँ हो मकां-मकां


 


यहाँ क्या नहीं कोई आये तो, जो ख़रीदे एक तो पाये दो


जो ज़्ाुबान है वो दुकान है, जो विचार है वो हैं मण्डियाँ.


 


कभी ज़्ााति-धर्म है वर्ग है, कभी क्षेत्र-भाषा है, लिंग है


कि टिकी इन्हीं पर' हैं कुर्सियाँ, कि हरी इन्हीं से है खेतियाँ.


 


 


तू कहाँ है कुछ तो सुराग़ दे, मेरी ज़्ाुल्मतों को चिराग़ दे


जो दिया सीना तो दाग़ दे, कि तड़प रही है तजल्लियाँ.


 


मेरी प्यास जाने किधर गयी, जो नदी चढ़ी थी उतर गयी


मिले रेत-रेत फंसे पड़े, मेरे बादबां मेरी कश्तियाँ....


 


संकेत: ज़मां-जमा: समय≤, ज़माना दर ज़माना, मकां-मकां: धरती-धरती (हर जगह), तजल्लियां: अंदर की रोशनी (आत्म-प्रकाश), वादबां: नाव की पाल


 


फ़ायदे में, बदल न लें नुक़्सान


आप ऐसे भी तो नहीं नादान?


 


देखा, कितना कठिन है सच कहना


दो ही अक्षर में जल गयी न ज़ुबान


 


जीतनेवाला, अपनी थोपता है


हारनेवाला, खोता है पहचान.


 


आदमी वज़्न अपना खोता हुआ


रात-दिन भारी पड़ती जाती दुकान


 


कोई उम्मीद पाल मत लेना


है भरे पेट का अलग ईमान.


जो भी आता है, रौंद जाता है


आदमी हो, कि खेल का मैदान?


 


सबके होते थे, ख़ुद से खोते थे


आइना देखा, हो गये हैरान...


 


 


करे अंधरेा, अंधेरा जो करने वाला है


हमारे सीने में भी आग है. उजाला है


 


अजीब लौ है कि रक्खी है ताख-ताख मगर


वहीं अंधेरे में है जो चिराग़ वाला है


 


ज़ियादातर तो हमारी भी है वही मिट्टी


मगर मिज़ाज ज़रा धूप-छांव वाला है.


 


ये आग को भी जो पानी समझने की ज़िद है


तमाम पेच इसी सादगी ने डाला है.


 


किसी का दर्द समझने का अर्थ ये तो नहीं


तुम्हारा दर्द भी कोई समझने वाला है...



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