ग़ज़लें

 



सैली बलजीत


पठानकोट (पंजाब),


 


 


ख़्वाब जब भी दिखाया तूने रोटी का,


आँख का ख़्वाब ख़तरे में हो जाता है।।


 


जरखे़ज ज़मीनें बंजर हो जाती हैं,


आंगन का गुलाब ख़तरे में हो जाता है।।


 


हरकारों ने जब भी खेली खून की,


रावी और चिनाब ख़तरे में हो जाता है।।


 


नया सूरज निकालने का हुनर छोड़ो,


बूढ़ा आफ़ताब ख़तरे में हो जाता है।।


 


आग लगती है जब भी शहर में तेरे,


तेरा घर जनाब, ख़तरे में हो जाता है।


 


नयी नस्ल वालों का जमाल ख़तरे में है,


रंग ख़तरे में है, गुलाल, ख़तरे में है।।


 


संभल के रहना रूक-रूक के चलना है,


उम्र का सोलहवां साल ख़तरे में है।।


 


मछलियों ने भगावत करना सीख लिया,


किसी मछेरे की हर चाल ख़तरे में है।।


 


परिन्दों ने जब से हौसलों को छुआ है,


सय्याद् ख़तरे में है, जाल ख़तरे में है।।


 


हाथ में है चाबुक जुल्म की इन्तहा है,


आदमी की निगोड़ी खाल ख़तरे में है।


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य