ग़ज़लें
हम उजड़े चमन के शजर देखते हैं।
मगर फिर भी ख़्वाबे समर देखते हैं।
चलो अब तो मीरा-सा विष पीके हम भी,
छिपा है कहाँ दिल में डर देखते हैं।
वो मंज़िल पे पहुँचेंगे कैसे भला यूँ,
जो राहें सदा पुरख़तर देखते हैं।
कभी जुस्तजूए सुकूँ में पलट कर,
किया हमने तय जो सफ़र देखते हैं।
हटो या झुको पर्वतो राह छोड़ो,
कि हम कोहकन रह गुज़र देखते हैं।
रहे ज़िंदगी की ये पामाल सूरत,
गवारा नहीं है मगर देखते हैं।
शबेग़म को शिद्दत से सहते हैं जो भी,
यक़ीनन वे नूरे सहर देखते हैं।
फ़लक बोस महलों से ग़मख़्वार अपने,
हमारे ज़मींदोज़ घर देखते हैं।
चुभोकर हमारे जिगर में वो नश्तर,
मुहब्बत का अपनी असर देखते हैं।
सुना है कि तेरी नज़र में है दुनिया,
कहाँ हम हैं तेरी नज़र देखते हैं।