ग़ज़लें
बड़ी उम्मीद लेकर हम तुम्हारे शहर आए हैं,
मिलो हँसकर तो कम से कम तुम्हारे शहर आए हैं।
दिलों में पाई न गर्मी न ठंडक जब दिमाग़ों में
हवा-पानी बदलने हम तुम्हारे शहर आए हैं
ये तमग़े़ और तोहफे तो कहीं भी और पा जाते,
मुहब्बत के लिए हमदम तुम्हारे शहर आए हैं
तमन्ना जब मचलती है नहीं सुनते किसी की हम
उठाकर सैकड़ों जोखम तुम्हारे शहर आए हैं
तुम्हें जब ग़ौर से देखा, निहारा ख़ुद को रह-रहकर
यही तो देखने आलम तुम्हारे शहर आए हैं।
हमें मालूम है दुनिया ये सारी एक जैसी है
मगर फिर भी है कुछ जो हम तुम्हारे शहर आए हैं।
मिले हो आज बरसों में तो गाँठें खोल दो मन की
करो इतना तो कम से कम तुम्हारे शहर आए हैं
थकाया हमको है जब-जब हमारी ज़िंदगानी ने
सलिल होने को ताज़ादम तुम्हारे शहर आए हैं।
जो मिला था काम मुझको वही काम कर रहा हूँ,
मैं किसी की जुस्तजू में यूँ ही उम्र भर रहा हूँ
मेरी ज़िन्दगी का हासिल तेरी मुस्कुराहटें हैं
तेरे साथ-साथ मैं भी तो निखर-सँवर रहा हूँ
है ये ख़्वाब या हकीक़त, तेरे साथ हूँ कि तनहा
ये गुलों की वादियों में मैं कहाँ विचर रहा हूँ
तू समेट लेना मुझको ज्यों समेटती है खुशबू
तेरे आस-पास मैं भी, ऐ सबा बिखर रहा हूँ
न लपेट लें तुझे भी मेरी क़िस्मतों के साये
यही सोच-सोच कर मैं, मेरे दोस्त डर रहा हूँ
यों हज़ार बार जाना हुआ आसमां पे लेकिन
कभी हाल से ज़मीं के नहीं बेख़बर रहा हूँ
हो मेरा नसीब मंज़िल या कि गर्द रास्ते की
ये सफ़र है आरजू का जिसे तय मैं कर रहा हूँ
है तलाश किसकी मुझको, ये सलिल जुनूँ है कैसा
कि सँभाला होश जब से यूँही दर-बदर रहा हूँ
मेरे शहर की वो फ़िज़ा हुई कोई दहशतों से ही मर गया
मिला दिल धड़कता ही सदा कभी देर से जो मैं घर गया
तेरी जुस्तजू में जहाँ से भी तेरा नाम लेके गुज़र गया
मेरे शौक़ की थी ये इन्तहा मिला तू ही तू मैं जिधर गया
मेरे रंग-रूप की बात क्या, कि तमाम तेरा ही अक्स था
तू हुआ खफ़ा तो बुझा-बुझा, तू जो ख़ुश हुआ, तो निखर गया
मेरे दिल-जिगर, मेरी आँख के, वो जो मुझसे ज़्यादा करीब था
तुझे है पता, ऐ ख़ुदा बता, मेरा राज़दार किधर गया
मैं ये सोच-सोच के रो दिया, हुआ कैसे हाय ये क्या किया
कि न ज़िन्दगी कभी अपनी जी, कि पराई मौत ही मर गया
जिसे कहता था मैं सितम कभी, वो करम था मेरे तईं तेरा
पड़ी चोट, चोट पे इस तरह, मेरा बिगड़ा रूप संवर गया
कई रास्ते थे मना मुझे, कई काम मेरे ही नाम थे
ये सितम तो देखो नसीब का, कहाँ जाना था मैं किधर गया
मिली साहिलों की सहूलतें, मिली रोशनी तो उन्हें सलिल
उसे मोतियों का नगर मिला, जो समुन्दरों में उतर गया।
दिन फ़ुर्सतों के, चाँदनी की रात बेचकर
हम कामयाब हो गए जज़्बात बेचकर
हमने भी पीले कर दिए हैं बेटियों के हाथ
थोड़ी-बहुत बची थी जो औक़ात बेचकर
मरती है धरती प्यास से, रूंधने लगे गले
कुछ लोग मालामाल हैं बरसात बेचकर
सोचा है अब ख़रीद लें कुछ चाँद पर ज़मीन
भाई का हिस्सा, बाप के जजबात बेचकर
तुर्रा है सर पे, या कि है दो-चार मन का बोझ
रुतबा मिला है, चैन के दिन-रात बेचकर
फूले नहीं समा रहे मुख़बिर चमन में आज
गुलशन का राज़ दुश्मनों के हाथ बेचकर
लगता है अहले-दुनिया को अब पाना है सलिल
ओहदा ख़ुदा का आदमी की ज़ात बेचकर
है जो कुछ पास अपने सब लिए सरकार बैठे हैं,
जो चाहें आप ले जाएँ, सरे-बाज़ार बैठे हैं।
मनाओ जश्न मंज़िल पर पहुँच जाने का तुम लेकिन
ख़बर उनकी भी लो यारो, जो हिम्मत हार बैठे हैं।
तू अब उस शहर भी जाकर सुकूँ पाएगा क्या आख़िर,
वहाँ भी कौन-से ऐ दिल, तेरे ग़मख़्वार बैठे हैं।
न तू आया, न याद आई तेरी इक लम्बे अरसे से,
हज़ारों काम होने पर भी, हम बेकार बैठे हैं।
उन्हीं से नाम है तेरा, न भूल इतना तो ऐ साक़ी,
तेरे मयख़ाने में अब भी कुछ-इक ख़ुद्दार बैठे हैं।
गए वो वक़्त कहते थे कि इतने दोस्त हैं अपने,
मुकद्दर जानिए अच्छा, अगर दो-चार बैठे हैं।
किसी भी वक़्ता आ सकता है अब पैग़ाम बस उसका,
सुना जिस वक्त़ से हमने, सलिल तैयार बैठे हैं।
मेरे दिल से आपके दर तलक नहीं रास्ता है अगर कोई
तो ज़रूर मेरी तड़प में ही कहीं रह गई है कसर कोई
है ये काम या तो नसीब का तेरी बेरूख़ी की या इन्तहा
न ही चाह अपनी है कारगर, न ही आह में है असर कोई
लो हज़ार नजरें लपक पड़ी, लगी तोहमतें हैं जो सो अलग
कभी भूले से भी जो आ गया है किसी ग़रीब के घर कोई
जहाँ सहरा-सहरा ग़्ाुबार है, जहां बस्ती-बस्ती तपिश रही
कभी उस वतन से भी ले के आ, तू ऐ मेघदूत ख़बर कोई
तेरे क़ाबिल अब जो नहीं रहे, तो हमारा इसमें क़सूर क्या
तेरे हुस्न को जो समेट ले, नहीं अब रही है नज़र कोई
कोई फूल-फल नहीं शाख़ पर, हैं बड़े मज़े के ये दिन सलिल
कोई खौफ़ अब न खि़ज़ां का है, न बहार ही में है डर कोई।
हम सुनाएँगे तुझे अपना फ़साना एक दिन,
यूँ नहीं ऐ ज़िन्दगी, फ़ुर्सत में आना एक दिन।
बात लम्बी, वक़्त थोड़ा, आँख नम है आपकी,
इस तरह भी क्या ख़बर थी होगा जाना एक दिन।
बात आई है ज़ुबाँ पे, अर्ज़ कर दूँ जो कहो,
हमने चाहा था तुम्हें अपना बनाना एक दिन।
रह न जाए कोई हसरत, कर गुज़र जो तुझ से हो,
वरना उस अन्धे कुएँ में सबको जाना एक दिन।
हो सका ना कुछ भी हमसे, माफ़ कर दे, ऐ वतन,
हमने चाहा था तुझे जन्नत बनाना एक दिन।
सौ तहों में क़ैद है अब हर ख़ुशी इनसान की,
सौ तहों को चीरकर है पार जाना एक दिन।
बात अपनी, ग़म पुराने और तेरी दास्तां,
सुन ज़माने कुछ हमें भी था सुनाना एक दिन।
इन फुहारों से न टूटेंगी ये चट्टानें सलिल,
लेके तुमको बिजलियाँ अब होगा आना एक दिन।
जो कहें वो सुन, जो सुनें वो कह, तू सिवा कुछ इसके किया न कर
है ये पहला क़ायदा इश्क़ का किसी बात का भी गिला न कर
तेरा उस में देखना इतने गुण, ज़रा देख मेरी उधेड़-बुन
कहे मुझसे मेरा रक़ीब सुन, मुझे देख-देख जला न कर
कभी आँख उठा के जो देख लूँ, तो वो कहते हैं कि झुका नज़र
किया सजदा मैंने जो पाँव पर तो वो बोले इतना गिरा न कर
नये लोग हैं, नये वक़्त हैं, है नया यहाँ का ये क़ायदा
कि हज़ार रोता हो दिल तेरा, कभी आँख नम तू किया न कर
उड़ी देखी मेरी हवाइयाँ, मुझे लड़खड़ाता जो देखा तो
रुका, रुक के बोला फ़क़ीर वो, मेरे बच्चे इतना डरा न कर
किसी बेबसी से घिरे अगर, पड़े दुख का सर पे जो साया, तो
तेरे दुश्मनों को ख़बर न हो, कभी दोस्तों से कहा न कर।
जो लगाऊँ आज उसे गले, मुझे है यकीं कि सुकुं मिले
मेरा दिल कहे ये मगर सलिल, किसी बेवफा से मिला न कर
है ख़ुदा के घर तो हसाब सब, यही सच था पहले, ये सच है अब
तेरे साथ कुछ भी करे कोई, तू सलिल किसी का बुरा न कर
नए पत्ते पेड़ों पे आते रहे
बड़ी गर्दनों वाले खाते रहे
हज़ारों परिदे फँसे आग में
खड़े पेड़़ बाँहें हिलाते रहे
बुढ़ापा घरों में ठिठुरता रहा
मज़ारों पे चादर चढ़ाते रहे
बिकाऊ जो ख़ुद हैं वही लोग ही
तेरी-मेरी क़ीमत लगाते रहे
उन्हीं से है सरसब्ज़ अब तक ज़मीं
यक़ीं की जो फ़सलें उगाते रहे
कभी मिलना था उनसे भी, ज़िन्दगी
जो राहों में आँखें बिछाते रहे
सलिल, देखते हैं करो अब हो क्या
बड़ी बातें तुम हो बनाते रहे
इस क़दर कोई बड़ा हो, मुझे मंज़ूर नहीं,
कोई बंदों में ख़ुदा हो, मुझे मंज़ूर नहीं।
रोशनी छीन के घर-घर से चराग़ों की अगर,
चाँद बस्ती में उगा हो, मुझे मंज़ूर नहीं।
मुस्कुराते हुए कलियों को मसलते जाना
आपकी एक अदा हो, मुझे मंज़ूर नहीं।
हूँ मैं कुछ आज अगर तो हूँ बदौलत उसकी,
मेरे दुश्मन का बुरा हो, मुझे मंज़ूर नहीं।
ख़ूब तू, ख़ूब तेरा शहर है, ताउम्र मगर,
एक ही आबो-हवा हो, मुझे मंज़ूर नहीं।
सीख लें दोस्त भी कुछ अपने तजरबे से कभी,
काम ये सिर्फ़ मेरा हो, मुझे मंज़ूर नहीं।
हो चराग़ां तेरे घर में, मुझे मंज़ूर सलिल,
गुल कहीं और दिया हो, मुझे मंज़ूर नहीं।
पहले ये मलबा हटाया जाएगा
ये नगर फिर से बसाया जाएगा
आज इक होगी क़यामत देखना
आज इक परदा उठाया जाएगा
जेल से ले, जलसाघर तक सारा शहर
यादगारों से सजाया जाएगा
ज़िन्दगी, कितना है तेरा कर्ज़, बोल
पैसा-पैसा अब चुकाया जाएगा
इतने दुख देने के बाद इनसान को
क्या ख़ुदा से मुँह दिखाया जाएगा
हम नहीं सुकरात लेकिन हममें ही
वक़्त का सुकरात पाया जाएगा
एक-दो गुल का नहीं मसला सलिल,
ये चमन कैसे बचाया जाएगा!
और अन्दाज़ कोई और अदा माँगे है,
ज़िन्दगी रोज़ ही इनसान नया माँगे है।
दम घुटा जाए है इस नाज़ो-अदा से अब तो
इश्क अब एक खुली आबो-हवा माँगे है।
हो गुज़र अपना यहाँ कैसे कि ये शहर तेरा,
जान पत्थर की जिगर और कड़ा माँगे है।
खड़ा चैराहे पे दिन-रात लगाता है गुहार,
कोई दरवेश है, दुनिया का भला माँगे है।
क्यों है मज़बूर बता इतना ये बंदा तेरा
मुँह छिपा रोए है, मरने की दुआ माँगे है।
एक दीवाना था ले-दे के शहर में, वो भी,
कामयाबों में ही अब नाम लिखा माँगे है।
सोच कितनों को मिला है यहाँ इतना भी सलिल,
यों जिसे जितना मिला उससे सिवा माँगे है।
हो अब आँख में वो हुनर चाहता हूँ
जो अनदेखा देखे नज़र चाहता हूँ
मेरे दिल से निकलें तेरे दिल में उतरें
वो अलफ़ाज़ में अब असर चाहता हूँ
दिमाग़ों पे जिनके ख़ुदाई है छाई
दिलों में कुछ उनके मैं डर चाहता हूँ
मुहब्बत किसी की लो फिर दिल में उमड़ी
लो फिर वो ही दर्दे-जिगर चाहता हूँ
मेरे चाहने से नहीं होता कुछ भी
मैं सब जानता हूँ मगर चाहता हूँ
मुहब्बत हो मुझको तआल्लुक मगर कम
मैं इस उम्र में ऐसा घर चाहता हूँ
तू ही रास्ता हो तू ही जिसकी मंजिल
सलिल अब इक ऐसा सफर चाहता हूँ।
सूली पर चढ़ता रहा मंसूर है
शहरे-कातिल का यही दस्तूर है
डर गया है आदमी से अब ख़ुदा
इसलिए रहता वो हमसे दूर है
हर किसी की अपनी-अपनी है शराब
हर कोई अपने नशे में चूर है
आफ़ताब अब तक है अपने साथ और
अब तो दिल्ली दो कदम ही दूर है
झड़़ गए फल-फूल उसके सारे अब
पेड़ लेकिन आज तक मशहूर है
हुस्न का खिलता हुआ है इक गुलाब
जालिम ऐसे ही नहीं, मग़रूर है
हुस्ने-साकी के तसव्वुर से सलिल
मयकदा रहता नशे में चूर है।
दिल की सियाह राहों से ऐसे गुज़र गया
मेरे सवेरे-शाम सब रोशन वो कर गया
आहट हुई, महक उड़ी, उजला लिबास था
आवाज़ देके देखा तो जाने किधर गया
वीरानियों में गूंजती थी खोखली हँसी
खुशहाल एक दोस्त के मैं आज घर गया
परछाइयों के आगे-पीछे भागने लगा
दुनिया लगी सँवरने तो इनसां बिखर गया
राहे-हयात में मिला इक बार ही मगर
मंज़िल का नक्शा आँखों में रोशन वो कर गया
फिर आज कत्लगाह में है माहौल जश्न का
आशिक वतन का लगता है फिर कोई मर गया
मेरी-तुम्हारी बात क्या ये फ़ितना इश्क का
जिसके भी घर गया बरबाद कर गया
तेरा तो इक-इक लफ़ज़ मैं हीरों में तोलता
लेकिन हमारा दौर ही शायद गुज़र गया
ज़िंदगी जीते या कि मर जाते
ढंग से काश कुछ तो कर जाते
ज़िंदगी बनके लहलहाना था
बीज बनकर कहीं बिखर जाते
लौ लगाते कि गाते दीपक राग
रोशनी होती हम जिधर जाते
कोई मिलता तराशने वाला
हम भी हो सकता है सँवर जाते
कोई मरहम तो रखने वाला हो
घाव तलवार के भी भर जाते
ये कमाई है सारे दिन की सलिल
डर-सा लगता है शाम घर जाते।
मौसम का रंग, वक़्त की रफतार देखकर
बदला बयान यारों ने दरबार देखकर
गहराई जैसे दरिया की मझदार देखकर
हम जानते हैं शख्स को किरदार देखकर
तुम जा रहे हो रौनके-बाज़ार देखने
मैं आ रहा हूँ सूरते-बाज़ार देखकर
रोके कहाँ तलक कोई दिल नामुराद ये
मचला है फिर से कूचा-ए-दिलदार देखकर
है आसमानों पर नज़र तो खूब आपकी
लेकिन कभी तो नीचे भी सरकार देखकर
मुँह तकते हैं हमारा जो दिन-रात, देखना
मुँह फेर लेंगे हमको वो इस बार देखकर
हम मर रहे थे दर्द की शिद्दत से जब सलिल
वो मुतमइन थे हालते-बीमार देखकर।
जिस दिन तुमसे नाता टूटा, वारदात उस रात की है
तुमको था मालूम ये होगा, हैरत तो इस बात की है
किसका कहाँ मुक़ाम है इसका हम सबको अन्दाज़ा है
कुछ लोगों का करम है लेकिन कुछ साजिश हालात की है
दिल क्या डूबा आज बिरह में यूँ लगता है जग डूबा
उमड़ा काला-काला दरिया, रात ग़ज़ब बरसात की है
आज़ादी का अपना तकाजा, अरमानों की अपनी बात
बच्चे अपनी जगह हैं सच्चे, मुश्किल तो जज़्बात की है
हिज्र की बातें, दर्द के क़िस्से उम्र पड़ी है कहने को
घर से निकले हो तो देखो चहल-पहल बारात की है
सोच-समझकर,देख-भालकर कहना दिल की बात सलिल
सूरज ज़ालिम क्या समझेगा, बात चाँदनी रात की है
मिली शिकवों भरी चिट्ठी तेरी, अच्छी लगी हमको,
किसी की आज तो नाराज़गी अच्छी लगी हमको।
यहाँ इक-दूसरे के घर अभी तक लोग जाते हैं,
तुम्हारे शहर की ये सादगी अच्छी लगी हमको।
मज़ा आने लगा, रहने लगा जो इन्तज़ार उनका,
मिला कुछ काम तो ये ज़िन्दगी अच्छी लगी हमको।
सफ़र से दुनिया के लौटे, ख़ला में घूम आए जब,
तो अपने गाँव की इक-इक गली अच्छी लगी हमको।
छुअन तक हम भुला बैठे थे जब ठंडी फुहारों की,
किसी बच्चे की किश्ती काग़ज़ी अच्छी लगी हमको।
तुझे अब अलविदा कहने का वक़्त आया तो कहते हैं,
मिली जिस हाल भी ऐ ज़िन्दगी, अच्छी लगी हमको।
न तू उस्ताद है कोई, न कुछ ऐसा हुनर तुझमें,
तेरे शे'रों की लेकिन ताज़गी अच्छी लगी हमको।
हुआ अच्छा, हुए ना दौड़ में दुनिया की हम शामिल
हुआ अच्छा कि अपनी चाल ही अच्छी लगी हमको।
बुलाए बिन ही आ बैठा था महफ़िल में किसी की तू,
सलिल फिर भी तेरी मौजूदगी अच्छी लगी हमको।
शाम है मातम का आलम और सहर है ग़मज़दा
कौन किस के अश्क पोंछे, हर नज़र है ग़मज़दा
इस गुनाहों के नगर में नेकियाँ भी कुछ तो थीं
ऐ ख़ुदा, बतला कि क्यों सारा नगर है ग़मज़दा
कौन किसका साथ देगा इस सफ़र में, दोस्तो
मुश्किल अपनी मंज़िलें अपना सफ़र है ग़मज़दा
यात्राएँ इतनी करके पहुँचे भी तो हम कहाँ
हर गली सुनसान है, हर एक घर है ग़मज़दा
ईश्वर की सारी रचना का है ये सिरमौर और
सबसे ज़्यादा इस जहाँ में ये बशर है ग़मज़दा
है उदासी तो मुक़द्दर लेकिन ऐसा भी सलिल
क्या हुआ है आज तू जो इस कदर है ग़मज़दा