किसी अज्ञात की तलाश

विज्ञान व्रत की ग़ज़ल यात्रा, रेगिस्तान की यात्रा पर निकले, एक ऐसे नंगेपाँव मुसाफ़िर की कठिन यात्रा है, जो तिश्नाकाम है, लेकिन उसकी तलाश में पानी नहीं, उसकी तलाश में प्यास है। यह कैसा जुनून है कि वो अपनी प्यास को ज़िन्दा रखना चाहता है? दरहक़ीकत, यह प्यास ही तख़लीफ है और वो इस तख़लीफ को मरने नहीं देना चाहता।


विज्ञान एक जिद्दी ग़ज़लकार है। दो छोटी बहरों का परिपक्व ग़ज़लकार। मिज़ाज से खुरदरा, ग़ज़ल की दुनिया में नर्मो-नाजुक! गुफ़्तगू में अक्खड़ और कभी-कभी बद्तमीज! लेकिन ग़ज़ल की दुनिया में बा-सलीका और ख़ास तरह की तहज़ीब और रख-रखाव के तहत शेर कहता हुआ अपने समय का ताज़ादम ग़ज़लकार । उसकी ग़ज़लगोई में 'मैं' और 'तू' बार-बार आते हैं। यह मैं और तू का अन्तर्सम्बंध, अपनी विभिन्न मुद्राओं, भंगिमाओं, शेड्स और 'मूड्स' में व्यक्त होता है। यथा-आप पहले जो मिले थे/क्या वही हो सच बताना/- यह प्रश्नवाचकता न सिर्फ़ हलाक़ करती है बल्कि, उस संशय का संज्ञान भी लेती है जो कालखण्ड की निर्ममता से पैदा हुआ है। फिर वो अन्य किसी शेर में अनायास बड़ी बात कह जाते हैं- तुम जिसके हो दुनिया में वो ही दुनियाभर होता है। इस शेर की व्याख्या करना शेर के साथ अन्याय करना है। लेकिन इतना तो कहना अनिवार्य है कि प्रेम एक ऐसी प्रबल भावना का नाम है जो अपनी मौलिक सृष्टि की रचना करता है।


विज्ञान के बहुत सारे अश्आर इस तरह महसूस होते हैं, जैसे वो अपने रू-ब-रू खड़े किसी शख़्स को बड़ी तमकनत के साथ, अपनी ख़ामोशी को व्यक्त कर रहा हो और बेचैनी को भी जो उदासी के अजायबघर में, ग़र्द-आलूद चेहरा लेकर खड़ी होती है। मसलन- वो जहां पर दिख रहा है/ बस वहीं से गुमशुदा है। तथा- आपसे जब-जब मिला हूं। अजनबी ही क्यों लगा हूं आपने ही मार डाला/आपको ही जी रहा हूं- यह जो शेरियत है। इसके पसःमंज़र जो संबोधन है- वहीं एक तो जीवित (दिखाई देती) दुनिया को रचता है। मैं और तू का रिश्ता उर्दू ग़ज़ल में, हज़ारों तरह से तहरीर हो चुका है और आने वाले समय में यह रिश्ता, अश्आर में, हज़ारों बार व्यक्त होता रहेगा।


विज्ञान मैं और तू के संबंधों को जीवन से जोड़ते हैं। उद्दाम इच्छाओं से जोड़ते हैं तो समाज से भी इस रिश्ते का जुड़ाव महसूस कराते हैं। मसलन- आख़िर उसको मौत मिली/सच कहना था क्या करता- तथा यह शेर जहां विज्ञान उस 'अन्य' की लघुता को सवालों के दायरे में ला खड़ा करता है- बस अपना ही ग़म देखा है। तूने कितना कम देखा है। ये अश्आर व्यक्तिगत नहीं रहते। सामाजिक हो जाते हैं।


विज्ञान की बेकरारी इस अश्आर में निरंतर महसूस होती है। कुछ बेहतर ढूंढने की जिज्ञासा, कितनी मार्मिक है


मैं कुछ बेहतर ढूंढ रहा हूँ घर में हूँ घर ढूंढ रहा हूँ


ज्ञानप्रकाश


घर के अन्दर घर की तलाश? यह प्रश्न जितना हैरान करता है उतना आत्ममंथन के लिए प्रेरित करता है। यह नया समय, जो अनेक चेहरे लगाकर, बाजार के तिलिस्म को गढ़ता हुआ, मनुष्य को न सिर्फ़ अकेला कर रहा है बल्कि घर जैसी भावनात्मक शय को भी उससे छीनता चला जा रहा है। यह विडम्बना कितनी त्रासद है कि तमाम अदीब (और सोचता हुआ हर शख़्स) आत्मनिर्वासित-सा महसूस कर रहे हैं। विज्ञान की व्याकुलता जो 'घर' जैसे प्रतीक से बार-बार व्यक्त होती है दरहक़ीकत, निर्वासित मन की कैफियत का बयान है।


यह विस्थापन एक क्रूर सच है जो देश-दुनिया से लेकर अपने घर में भी उपस्थित है। इसलिए वो बड़ी कातरता से कहते हैं-वो जहां पर दिख रहा है/ बस वहीं से गुमशुदा है। यह गुमशुदगी तड़प पैदा करती है। शायद यह शेर भी विज्ञान के विस्थापन की ही अभिव्यक्ति है-आपसे मिलकर तो मैं/ और भी तन्हा हुआ। इस शेर में संबंधों के पसःमंजर कशीदगी का आलम भी है।


ग़ज़ल जैसी विधा की शक्ति यह है कि वो कवि की अनुभूतियों को गहराई से महसूस कराने में सफल होती है। छोटी बहर के दो मिसरों में मुकम्मल बात कहना, किसी इम्तेहान से गुज़रने जैसा होता है। यहां एक-एक शब्द क़ीमती होता है। बेशक, यह बात ग़ज़ल के


सम्पूर्ण जगत् पर लागू होती है। इसके बावजूद, छोटी बहर के सीमित परिसर में विचार/ ख्याल, भाव, या वस्तु कटैंट को व्यक्त करने के लिए चिंतन, अनुभवशीलता, गहराई सूक्ष्मता के साथ-साथ प्रतीकात्मक जैसे तत्त्व, विज्ञान की ग़ज़लों को पुख्तगी प्रदान करते हैं। कई बार उनकी ग़ज़लें बेहद सामान्य होकर रह जाती हैं। अश्आर बेहद साधारण । वो ग़ज़लें उनके हाथ से छूटती प्रतीत होती हैं जहां उन्होंने सिर्फ 'मतलों' का प्रयोग किया है।


प्रश्न यह भी निरंतर उठता रहा है कि आख़िर एक ग़ज़लकार सिर्फ दो बहरों में ग़ज़लें लिखता रहे- क्या यह नई तख़्लीक है... नया प्रयोग है... या फिर कोई लाचारी या कोई भय!


इसके बावजूद- विज्ञान व्रत हिन्दी ग़ज़ल को अपनी छोटी बहर की ग़ज़लों से समृद्ध करते हैं। वो जब कहते हैं-हर दिन मेरी ख़ामोशी ने। मेरे भीतर शोर मचाया। यह ख़ामोशी का शोर मचाना, मूल्यों से टकराना है और किसी नई संवेदना से भरपूर दुनिया को तामीर करने की तलाश भी है। वो कहते भी हैंः


बाहर धूप खड़ी है कब से / खिड़की खोलो अपने घर की।



विज्ञानव्रत


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