लंगड़े हैं संवाद

लंगड़े हैं संवाद और बातें हैं बहरी


जीवन की गतिविधियां सारी जड़ हो ठहरी


दोषी हैं हम स्वयं सजा तो मिलनी ही है


सारी खुशियां ले डूबेगी पीड़ा गहरी


 


ढूंढो बैठ रास्ते पर वे नहीं मिलेंगे


खद सोचो पतझर में कैसे फल खिलेंगे


खुद ही अपने पांव कुल्हाड़ी जब मारी है


हो विकलांग ढूढने जाएं किसकी देहरी


 


ग्रहण लगाया खुद ही अपनी सब खुशियों पर


अपने ही सपनों को छलनी किया उमर-भर


नासमझी के हत्थे चढ़े चढ़े तो ऐसे


पूरे का पूरा जीवन बन गया दोपहरी


 


कई बार अपने से भी मांगी है माफी


औरों से ज्यादा खुद को दी पीड़ा काफी


लज्जित होकर अपने को भी रहे कोसते


फिर भी आई कभी नहीं वह सुबह सुनहरी



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