सरस्वती वंदना
तेरे द्वारे आऊँ माँ
नितनित शीश नवाऊँ माँ
कुछ अपनी, कुछ जग बीती
दुनिया को बतलाऊँ माँ
ग़ज़लों के गुलदस्ते मैं
चरणों तक पहुँचाऊँ माँ
वाणी में बस जाना तू
गीत, गज़़ल जब गाऊँ माँ
मेरी अभिलाषा है ये
तेरा सुत कहलाऊँ माँ
याद करे दुनिया जिससे
ऐसा कुछ कह जाऊँ माँ
लोग 'रकीब' समझते हैं
क्या उनको समझाऊँ माँ
उर्दू है मिरी जान अभी सीख रहा हूँ
तहज़ीब की पहचान अभी सीख रहा हूँ
हसरत है कि गेसू-ए-ग़ज़ल मैं भी संवारूँ
ये बहर ये अरकान अभी सीख रहा हूँ
होने की फरिश्ता नहीं ख़्वाहिश मुझे हरगिज़
बनना ही मैं इंसान अभी सीख रहा हूँ
आगाज़े महब्बत में ये ग़मज़े ये अदाएं
ले लें न कहीं जान अभी सीख रहा हूँ
कुर्बत तिरी जी का मिरे जंजाल न बन जाए
हर शय से हूँ अंजान अभी सीख रहा हूँ
महफूज़ न रख पाऊँगा दौलत के ख़ज़ीने
कहता है ये दरबान अभी सीख रहा हूँ
मैं तो हूँ 'रकी़ब' आज भी इक तिफ़्ल अदब में
पढ़-पढ़ के मैं दीवान अभी सीख रहा हूँ
पहले तो बिगड़े समाँ पर बोलना है
फिर हमें पीरो-जवाँ पर बोलना है
बेबसी है, बाग़ में यह, बाग़बाँ की
मौसमे गुल में ख़ज़ाँ पर बोलना है
बोल भी सकता नहीं है ठीक से जो
उसके अंदाज़े-बयाँ पर बोलना है
माजरा क्या है भला, क्यों ग़मज़दा हो
क्या तुम्हें आहो-फुगां पर बोलना है
खोलकर सब रख लिए हैं, ज़ख्म दिल के
अब हमें, दर्दे-निहाँ पर बोलना है
थे बहत्तर, अह्ले-बेयत, जिस में शामिल
उस मुक़द्दस कारवाँ पर बोलना है
खामुशी ही से 'रक़ीब' इस बज़्म में अब
ज़िंदगी की दास्तां पर बोलना है