व्यंग्य
हर कोई अपनी-अपनी शान में है
जिसको देखो वो आसमान में है
आप लेटे हैं मृत्यु शैय्या पर
आपकी आत्मा दुकान में है
वो सही है जो तेरी आँख में है
वो ग़लत है जो तेरे कान में है
ये धुँआ जो निगल रहा है मुझे
मेरे दिल में है या मकान में है
आईनों ढूँढते हो तुम जिसको
उसका चेहरा तुम्हारे ध्यान में है?
आप-हम दोनों जले लेकिन मियाँ
आप सूरज हो गए हम भट्टियाँ
ये सुरंगों का शहर इसमें भला
कैसे रोशनदान कैसी खिड़कियाँ
या तो चींटी हो गया है आदमी
या हिमालय हो गई है कुर्सियाँ
ज़िन्दगी अब वो मज़ा देने लगी
जैसे बक्से की पुरानी चिट्ठियाँ
कौन जाना चाहता है स्वर्ग अब
स्वर्ग तक नाहक़ गई हैं सीढ़ियाँ