अभिनव इमरोज़ पत्रिका : जनवरी 2020

                                                               भारतीय सन्दर्भ में शाहनामा


शाहनामा, महाभारत और इलियड यह तीन महाकाव्य विश्व साहित्य में अपना विशेष स्थान रखते हैं। कहने को तो यह युद्ध का बयान है और विशेष काल का इतिहास भी है। लेकिन मैं इसको कविता में लिखा उपन्यास कह सकती हूँ। जिस में तरह-तरह के किरदार हैं उनके जीवन की कहानियाँ है जो सिलसिले वार चलती रहती हैं। ख़ास कर शाहनामा में जहाँ दन्त कथाएँ, ऐतिहासिक गथाएँ व लोक साहित्य का मिश्रण है और क्या पता वह दन्त कथाएं व लोक साहित्य ईरानी प्राचीन ऐतिहासिक कहानियों की तरह ही अपने समय का सत्य हो जो लिखित न हो कर मौखिक रूप से सीना व सीना एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को सौंपती चली गई हो। यह सारे सवाल गहरे शोध और प्रमाणिक दस्तावेज़ों या अवशेषों की माँग करते हैं। मैं आपको उस में उलझाने की जगह यह बताने की इच्छुक हूँ कि शाहनामा के मोहजाल में मैं कैसे फंसी और रूस्तम का किरदार मुझे इतना क्यों भाया कि मैं उसको लेकर कामिक्स निकालने की सोचने लगी। उस दीवानगी मैं अपने खर्च पर 1978 ईरान पहुँच गई ताकि वह प्रोजेक्ट मैं स्वयं जाकर बुनियादे-फरहंगे ईरान के द्वारा शाहनामा फ़िरदौसी अकादमी में पेश करूं और ज़बानी भी विस्तार पूर्वक उसे समझा सकूं।


पहले बात करती हूँ उस आकर्षण की जिसने मुझे अपनी तरफ खींचा। पता नहीं वह मेरे अन्दर छुपा बचपन था या फिर बच्चों की कहानियों लिखना था या रूसी बाल साहित्य की वह कहानियाँ थी जिसको देख कर हसरत से मैं सोचती हू कि काश मेरी कहानियाँ इतने आकर्षण चित्रों व सूफियाना रंगों में छपें। जो भी कारण हो लेकिन इतना मैं कह सकती हूँ कि पहला कारण और बुनियादी कारण मेरे कोर्स की वह किताबें थीं जो बेहद सुन्दर चित्रों से सजी थी। उसे पाकर लगा था कि मैं वापस लौट रही हूँ अपने बचपन की तरफ। ऊपर से रूस्तम का बयान जो फैंटासी की एक जे़हनी दुनिया रचने वाला था। जब हम पाँचों विद्यार्थी एम.ए. थर्ड इयर में पहुँचे तो हमारी नई उस्ताद 'खानम सईदी' ईरान से आईं। वह हमें दास्तान-ए-दिलअंगीज़ नामक पुस्तक पढ़ाती थीं जो कलासिक फारसी ग्रन्थों को संक्षिप्त कर के पद व गद्य में विद्यार्थियों के लिए तैयार की गई थी। एक दिन वह दास्ताने-रूस्तम व तहमीना पढ़ा रही थीं। वह क्लास में टहल टहल कर पढ़ाती थीं। किताब उनके हाथ में रहती थी जिसे वह कभी ख़ुद पढ़ती तो कभी हम से पढ़वा कर हमारे उच्चारण को ठीक करती जातीं। एक दिन जब वह पढ़ाते-पढ़ाते उस सीन पर पहुँची जहाँ पर तहमीना रूस्तम के कमरे में आधी रात को पहुँचती है तो वह एकाएक रूक गईं। और पूछ बैंठीं, ''क्या यह काम तहमीना को करना चाहिए था! बाक़ी ने पुस्तक से सर उठा कर कहा 'हाँ' और मेरे मुँह से निकला नहीं'! उनके मुँह से निकला ''बारिकअल्ला' यानी 'बहुत खूब'। चारों ने मुझे देखा फिर ख़ानम सईदी को देखा। दरअसल कोई भी इस सवाल के लिए तैयार न था सब बुरी तरह कहानी से ज़्यादा फारसी गद्य को समझने व पढ़ने में डूबे थे।


समय पानी की तरह गुज़र गया। अरसे बाद जब मैं उस दृश्य को यादों में तैरता पाती हूँ तो ख़ुद से सवाल करती हूँ उस दिन अकस्मात मुँह से 'निकला' 'नहीं' वह आज कितना सच होगा? जबकि स्त्री विमर्श कहेगा कि बिल्कुल अपनी इच्छा क्यों दबाए औरत? धर्म की नज़र से देखूँ तो इस्लाम भी औरतों की इच्छा व पहल का सम्मान करती है यदि हिन्दी साहित्य को लेें तो वहाँ भी औरत मुहब्बत की पहल कर सकती है फिर? अपने से आज पूछती हूँ तो वही जवाब मिलता है 'नहीं'! रूस्तम व तहमीना दोनों किरदार मुझे बहुत प्रिय हैं। रूस्तम के बेटे सोहराब का अपने पिता को ढूढ़ने तूरान से ईरान जाना एक बेहद सम्वेदनशील समस्या थी। जब भी मैं उस हिस्से को पढ़ती तो मुझे कालीदास द्वारा लिखी शंकुतला का किरदार याद आ जाता। जिसका अनुवाद मैंने उर्दू में पढ़ा था। उधर रूस्तम के बेटे को न पहचान पाना इधर राजा दुष्यन्त की अंगूठी खो जाने के कारण शकुन्तला को न पहचान पाना। पता नहीं यह हृदय विदारक बयान मुझे एक ही औरत के दुख जैसे क्यों लगते हैं।


यही नहीं, जाने कितनी भारती भाषायों के महत्वपूर्ण ऐतिहासिक चरित्रों की समानता हमें शाहनामा के किरदारों में झलकती नज़र आ सकती है। मुझे याद है जब कभी कोई यह सुनता की मैं फारसी पढ़ रही हूँ तो वह पहले चैंकता फिर अतीत के गलियारों में भटक जाता। कभी वह अपने नाना, दादा को याद करता तो कभी अपने पिता को तो कोई कहता हमारा बचपन रूस्तम सोहराब की कहानी सुनते गुज़रा है। अग्रेज़ी के प्रकाशक बचानी साहब के पिता ने जब यह बात जानी तो वह अपनी शानदार लाइब्रेरी से 'शाहनामा' का पुराना संस्करण निकाल कर लाए और वह चमकीला चिकना कागज़ों पर छपा रंगीन चित्रों वाला शाहनामा खोल कर बैठ गए। पार्टी एक तरफ चल रही थी। हम दोनों एक तरफ बैठे थे। फारसी के 'शाहनामा' पर अंग्रेज़ी में अपनी यादों को शेयर कर रहे थे। बातों-बातों के बीच वह बड़े आदरपूर्ण अंदाज़ से मुझे 'हैंडसम लेडी' कह कर मुख़ातिब कर रहे थे। ब्यूटीफुल की जगह हैंडसम का प्रयोग मुझे पहले डिस्टर्ब कर गया फिर ख़्याल गुज़रा कि उनके ज़हन में शाहनामा के मैन-वोमन किरदार शायद गुडमुड हो रहे है।


1992 में जब शाहनामा हिन्दी पाॅकेट बुक्स से छप कर आया तो पुस्तक मेले में जाने कितने पाठकों ने मुझ से बीच में रोककर हस्ताक्षर करवाए थे। जिसको देखकर मुझे महसूस हुआ था कि मेरे बचपन में मुझे कभी भी अल्लाह उदल और रूस्तम सोहराब की कहानी नहीं सुनाई गई मगर यह कहानी किस किस की यादों में बिखरी पड़ी है ठीक उसी तरह जैसे बचपन से अल्लाह उदल के बारे में सुना है कि वह शाम को चैपालों में गाया जाता था जिसमें दो भाई जो बहादुरी में अपना एक मुक़ाम रखते थे और पृथ्वीराज चैहान की फ़ौज में थे।


पहली बार शाहनामा मैंने 'ईरानी चायखाना में सुना था जिसके ज़िक्र से मेरा उपन्यास सात नदियाँ एक समन्दर (बहिश्ते ज़हरा) शुरु होता है दौबारा इंडिया इन्टर नेशनल सेन्टर में कुछ वर्ष पहले ईरान से आई कलाकारों की पार्टी द्वारा सुना था। शाहनामा में जगह-जगह हिन्दुस्तान का नाम आता है और सब से बड़ी बात हम साहित्य प्रेमियों के लिए यह है कि उस में जो दास्तान-ए-पैदाईश-ए-शतरंज है वह हिन्दुस्तान की कहानी है जिसकी शुरुआत में फिरदौसी लिखते हैं- शे'र


हुमान बादशाह बूद, बर हिन्दुवान


ख़िरदमन्द व बीना व रौशन रवान


हिन्दुस्तानी बादशाह की तारीफ में कहते हैं कि वह राजा बुद्धिमान, स्वतंत्र विचारों वाला, सूक्ष्म दृष्टि का मालिक था। एक ख़ास भाव और विचार प्यार और सम्मान ईरानी रचनाकारों का भारत के प्रति सदा से रहा है चाहे वह हाफिज़ शीराजी हों या शेख सादी जिनको मन में भारत आने की ललक बदस्तूर बनी रही और यह जज़्बा आज भी ईरान की नई पीढ़ी में  देखने को मिला जब मैं 2017 में इराक़ रमादी कैम्प में क़ैद ईरानियों से मिलने गई जो अब एक नार्मल ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे। उनके अलावा हर व्यक्ति भारत आने की इच्छा रखता है उसका सब से बड़ा कारण अनुवाद है। संस्कृत हो या अन्य भारतीय भाषाएँ उसकी उत्कृष्ट रचनाएँ फारसी में मौजूद हैं। वेदों को पढ़ने के बाद, बौद्ध के विचार और फिर गाँधी नेहरू की पुस्तकों को पढ़ने वाली पीढ़ियों ने जो बयान भारत को लेकर अपने बच्चों को दिए उसके निशान अभी उनके दिल व दिमाग़ से मिटे नहीं है। ऊपर से शहनामा जिसके प्रति उनका बेइन्तहा आदर व अपार गर्व है। उस में हिन्दुस्तान का जिक्र आना अपने में एक महत्वपूर्ण मुददा है। दूसरे अतीत के गलियारों में अपने मुल्क में आतिशकदों का ख़ामोश होना और भारत में पारसियों द्वारा आतिशकदों को रौशन रखना एक तारीख़ का अहम हिस्सा है। मुम्बई में मशहूर लेखक सादिक़ हिदायत का रहना और वहाँ अपनी बेहतरीन रचना 'बूफेकूर (अन्धा उल्लू) उन्होंने लिखी और पहली बार लघु उपन्यास मुम्बई में छपा।


शाहनामा के 60,000 शे'र जो अपने में ईरान का इतिहास समोए हुए हैं उसको पढ़ना अपने में एक सुखद मानसिक व भावनात्मक यात्रा से गुज़रना जैसा है। यहाँ पर कुछ कहानियाँ जो बेहद प्रसिद्ध है उसका अनुवाद पेश है। पाठकों को यह दास्तानें कैसी लगती है मैं जरूरी जानना चाहूँगी। आपका ख़ुलूस व आलोचना मेरे लिए बेहद महत्वपूर्ण है।







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