दास्तान-ए-सियावुश व सुदाबे

एक दिन, भोर के समय, गिव, गूदरज और तूस अन्य साथियों के संग बाज और चीते लेकर प्रसन्नचित्त शिकार खेलने गए। खूब जमकर शिकार किया। शिकार करने के जोश में वे ईरान सीमा से निकलकर तूरान के जंगल में चले गये। शिकार की खोज में निकले तूस और गिव को वहाँ एक सुन्दर लड़की नज़र आई। उसके सौन्दर्य को देखकर ये दोनों सकते में आ गए। उसके समीप पहुँचकर जब उससे पूछताछ की तो उस लड़की ने बताया- “मेरे पिता शराब के नशे में धुत कल रात जब घर आए तो क्रोधित हो उन्होंने मुझे मारने के लिए जहर से बुझी तलवार उठाई। मेरे सामने जान बचाने का इसके अतिरिक्त कोई और चारा न था कि मैं भागकर इस जंगल में आ छिपूँ। आधे रास्ते में घोड़ा मुझे अपनी पीठ पर से गिराकर भाग गया। और मैं तन्हा रह गई। जो कुछ हीरे-जवाहरात लेकर मैं चली थी, वे रास्ते में लुटेरों ने लूट लिए। उनके खंजर से भयभीत होकर मैं इधर भाग आई हूँ।‘‘


 



जब उन्होंने उसके कुटुम्ब के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वह गरसिवज़ के कुटुम्ब से है जो आफरासियाब का भाई लगता है।


तूस और गिव में लड़की को लेकर एकाएक झगड़ा आरम्भ हो गया कि उस पर किसका हक़ है। तूस कहता कि मैंने लड़की को पहले देखा था इसलिए वह मेरी है। गिव कहता कि उसने पहले लड़की को देखा था, इसलिए लड़की पर उसका हक़ है। यह झगड़ा अचानक आपसी तकरार में इतना बढ़ा कि आख़िर यह तय पाया कि इस लड़की का सर धड़ से अलग कर देना ही हमारे लिए अच्छा होगा।


फैसले को सुन कर एकाएक एक पहलवान इनके बीच में बोल उठा-“अच्छा यही है कि इसे अपने शाह काऊस के पास ले चलते हैं। वह जो कहेंगे वह मान लेंगे।‘‘ यह बात सबको पसन्द आई और उन्होंने वैसा ही किया।


शाह काऊस की नज़र जैसे ही उस लड़की पर पड़ी, वह उसके रूप को देखकर उस पर रीझ गया। जब उसे पता चला कि वह अच्छे शाही परिवार से सम्बन्ध रखती है, तो उसे लगा कि कितना अच्छा होता यदि वह उसकी मलिका बन जाती। शाह काऊस ने उन दोनों पहलवानों के बीच होते झगड़े का फैसला बड़ी चतुरता से किया। उन्हें बहला-फुसलाकर धन-दौलत और दस शानदार घोड़े देकर उनका मुँह बन्द कर दिया और लड़की को अपने हरम में भेज दिया।


नौ मास बाद उस लड़की ने एक चन्द्रमा जैसे पुत्र को जन्म दिया। जैसे ही यह समाचार काऊस के पास पहुँचा, वह खुशी से दीवाना हो गया। और उसका नाम सियावुश रखा। फिर ज्योतिषियों और पण्डितों को बुलाया ताकि लड़के की जन्मपत्री बन सके और उसकी भाग्य-रेखा परखी जा सके। ज्योतिषियों ने लड़के का भविष्य अन्धकारमय और उसे पूर्ण रूप से भाग्यहीन पाया। भाग्य-रेखाओं और ग्रह-स्थिति देखकर ज्योतिषी सन्नाटे में आ गये।


कुछ समय बाद शाह काऊस ने रुस्तम को बुलवाया और अपनी इच्छा प्रकट करते हुए कहा कि “तुम सियावुश को अपनी शरण में ले लो। इसे अपने साथ जाबुलिस्तान ले जाओ और सारे ‘हुनर‘ से इसे सुसज्जित कर दो।‘‘


रुस्तम ने सियावुश को शिकार और घुड़सवारी, तलवार और गदा चलाने, शाही तौर-तरीकों व अन्य छोटे-मोटे अस्त्र-शस्त्र चलाने में ऐसा दक्ष और निपुण बना दिया था कि उसका मुक़ाबला कोई भी दूर-दूर तक नहीं कर सकता था। एक दिन सियावुश रुस्तम के समीप आया और कहा-“आपने मुझे विद्या और कला सिखाने में कितने वर्षों तक कष्ट उठाया है, इसलिए मेरी इच्छा है कि मेरे पिता भी आपकी दी शिक्षा का चमत्कार मुझमें देख लें।‘‘ ।


रुस्तम को सियावश की बात पसन्द आई। उसने उसे अनुमति दे दी। मुकुट, सिंहासन और सिपाही यात्रा के लिए तैयार हो गये। रुस्तम सियावुश के साथ शाही दरबार में पहुंचा।


काऊस शाह जैसे ही अपने बेटे के आगमन से अवगत हुआ, उसने आदेश दिया कि विशिष्ट योद्धा उसके स्वागत के लिए जायें और उसके ऊपर सोना लुटाते हुए उसे दरबार तक लायें। जब सियावुश पिता के समीप पहुँचा तो काऊस शाह बेटे का इतना ऊँचा क़द देखकर हैरान रह गया। कितना बड़ा, कितना बुद्धिमान है वह ! दिल-ही-दिल में उसने खुदा को


धन्यवाद दिया। बेटे को गले लगाकर अपने समीप बिठाया। इस शुभ अवसर पर उसने आदेश दिया कि पूरे नगर में मदिरा के घड़े लुढ़काए जाएँ, संगीत और नृत्य का कार्यक्रम रखा जाए!


यह कार्यक्रम हफ्ते-भर चलता रहा। शाही ख़जाने का मुँह खोल दिया गया। शाह ने अपने बेटे को हीरे-जवाहरात, रेशमी कपड़े, तीर और कमान से लाद दिया। इसके अतिरिक्त रेशम पर लिखा कोहिस्तान की हुकूमत का आज्ञा-पत्र भी उसे दिया। वास्तव में काऊस शाह ऐसा बेटा पाकर मन-ही-मन खुशी और गर्व से फूला नहीं समा रहा था।


एक दिन वह सियावुश के साथ बैठा हुआ था। उधर से सुदाबे आ गई जो शाह हामवारान की बेटी और शाह काऊस की मलिका थी। उसकी ललचाई आँखें सियावुश के चेहरे पर टिक गईं। उसके मन में एक अजीबो-गरीब इच्छा ने अंगड़ाई ली। उसने चुपके से सियावुश को सन्देश भेजा कि वह रात को अन्तःपुर में उसके कमरे में आ जाये। सियावुश ने क्रोध में कहलवाया-“मैं इस किस्म का आदमी नहीं हूँ।‘‘ यह उत्तर पाकर सुदाबे ने एक नयी चाल चली। रात को काऊस के पास पहुंची और बोली “अच्छा हो कि आप सियावुश को अन्तःपुर भेज दें ताकि वह अपनी बहनों से मिल ले। बहनें भी उससे मिलने को उत्सुक हैं।‘‘ यह बात काऊस शाह को पसन्द आई। उसने सियावुश को बुलाया और कहा कि


‘‘शाही हरम में तुम्हारी बहनें रहती हैं। इनके अलावा मलिका सुदाबे भी हैं जो तुम्हारी अपनी माँ की तरह वात्सल्य व मातृत्व से भरी हुई है।’’


सियावुश के मन में विचार आया कि इस प्रकर शाह काऊस उसकी परीक्षा ले रहे हैं। उसने उत्तर दिया-“मुझे अन्तःपुर में भेजने के बदले वरिष्ठ योद्धाओं, रण-क्षेत्र और अनुभवी वीरों के पास भेजें तो मेरे लिए अधिक उचित होगा क्योंकि शाही अन्तःपुर में जाकर मैं कौन-सी नयी बात सीखूँगा। औरतें कब बुद्धिमानी की बातें करती हैं।‘‘


सियावुश के इस उत्तर से काऊस प्रसन्न हुआ। फिर भी, उसने अपनी बात दोहराई कि वह वहाँ जाकर औरतों, लड़कियों और बच्चों से मिल आये। पिता के बार-बार कहने से सियावुश मजबूर हो गया और अन्तःपुर जाने को तैयार हो गया। पहरेदार सियावुश को लेकर सुदाबे के महल की ओर बढ़ा।


सियावुश ने जैसे ही महल में कदम रखा, सारी औरतें उसके स्वागत के लिए दौड़ी। सियावुश ने देखा कि महल इत्र और अगरबत्ती की महक से गमक रहा है। मदिरा का दौर चल रहा है। संगीत और साज की मद्धिम ध्वनि ने एक स्पप्नलोक का दृश्य उपस्थित कर रखा है। बीचों-बीच रेशमी कपड़ों से सजा एक सोने का सिंहासन है जिस पर सुदाबे बैठी हुई थी। जैसे ही उसकी नजर सियावुश पर पड़ी, वह अपने स्थान से उठी और आगे बढ़कर सियावुश को गले लगाया। उसकी आँखों का चुम्बन लिया। फिर खुदा को धन्यवाद दिया कि उसने उसको ऐसा पुत्र दिया है।


सियावश सुदाबे के प्रेम की गहराई और उस ऊपरी दिखावे को खूब समझ रहा था। वहाँ से उठकर वह बहनों के पास गया। बहनें उसे देखकर बहुत खुश हुईं। और उसे सोने के सिंहासन पर बिठाया। सियावुश काफी देर तक अपनी बहनों के समीप बैठा रहा। लौटकर पिता के पास आया और बोला-“खुदा ने आपको नेकी के सारे अवसर दिये हैं, फिर आपकी ओर से यह कमी क्यों?” उसका यह कहना काऊस को बहुत अच्छा लगा। रात को जब वह सुदाबे के पास गया तो उसने सियावुश के व्यक्तित्व के बारे में पूछा। सुदाबे ने उसके व्यवहार की प्रशंसा करते हुए बताया कि वास्तव में समझ और अच्छाइयों में उसका कोई जवाब नहीं है। क्या ही अच्छा होता यदि मेरी किसी लड़की से इसका विवाह हो जाता। उससे प्राप्त पुत्र-रत्न कितना महान् और बुद्धिमान पैदा होगा।‘‘


काऊस को सुदाबे की बात पसन्द आई। मगर जब उसने इसी बात को सियावुश से कहा तो उसने उत्तर दिया, “मैं आपका बेटा हूँ। आपकी हर इच्छा और आदेश को आँख बन्द करके मानने वाला हूँ। आपकी इस बात को सुनकर सदाबे जाने क्या अर्थ निकालेगी। वास्तव में मैं सदाबे के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध जोड़ना नहीं चाहता हूँ; न उसके अन्तःपुर में मुझे अब कभी जाना है।‘‘


सियावुश की बात सुनकर शाह काऊस हँस पड़ा। उसे सुदाबे की चालों का पता न था। बेटे को समझाते हुए बोला, सुदाबे ने यह बात मुझसे बहुत प्रेम और सद्भाव से कही है। तुम विश्वास रखो। इस पर यूँ सन्देह करना उचित नहीं है!” पिता के कहने और समझाने से वह ऊपर से तो खामोश रहा, मगर मन की शंका कम नहीं हुई।


सुबह हुई तो सुदाबे ने अपनी बेटियों को बुलवाया। स्वयं सिंहासन पर बैठी और याकूत के लाल अनार जैसे रंग का मुकुट सिर पर रखा। और ‘हीबुद‘ नाम के पहरेदार को सियावुश को बुलाने के लिए भेजा। जब सियावुश आया तो उसने उसे सोने के सिंहासन पर बिठाया और स्वयं उसके समीप खड़ी होकर एक-एक करके अपनी बेटियों को उसके सामने से गुजरने के लिए कहा और बोली, “इनमें से जिसे चाहों पसन्द कर लो।‘‘


सियावुश ने जैसे ही आँखें ऊपर उठाई, उसने लड़कियों को जाने का इशारा किया और जब स्वयं अकेली रह गई तो बोली-“इसको ध्यान से देखो। इनमें से कौन है तुम्हारी पत्नी बनने के काबिल?‘‘ सियावुश का मन देश-प्रेम से भरा हुआ था। वह सुदाबे की चालों को खूब समझ रहा था। सुदाबे के पिता शाह हामवारान ने धोखा देकर उसके पिता शाह काऊस को कारावास में डलवाया था। यदि उसकी पुत्री सुदाबे भी उसी स्वभाव की हुई, तब तो ईरान के भविष्य को अन्धकारमय ही समझना चाहिए।


अपने प्रश्न का उत्तर जब सुदाबे को नहीं मिला तो उसने एकाएक अपने चेहरे पर पड़ा नकाब हटा दिया और बड़ी कामुक चितवन से सियावुश को देखा। वह स्वयं को सूर्य और लड़कियों को चन्द्रमा समझ रही थी, सो कहने लगी, ‘‘जिसने मुझे फिरोजे और याकूत से जड़े मुकुट को पहने हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठे देखा, यदि वह संसार की सारी सुन्दरियों और चन्द्रमा की ओर से आँखें फेर ले तो इसमें आश्चर्य क्या है!


‘‘फिर एक नयी अदा से बोली, ‘‘दिखावे के लिए तुम मेरी बेटी से विवाह कर लो मगर मुझे वचन दो कि हर रात मेरे कक्ष में आओगे। मैं अपना तन-मन सब कुछ तुम्हें अर्पित कर दूंगी!”


‘‘मैंने तुम्हें जब से देखा, तुम पर मर मिटी हूँ। मैं अपने जज्बात एवं जोश से स्वयं परेशान हूँ।’’


इतना कहकर सुदाबे सियावुश के कदमों पर झुक गई और कहने लगी, “इस समय तुम्हारे समीप खड़ी हुई मैं अपना सम्पूर्ण अस्तित्व तुम्हें भेंट करती हूँ। तुम मुझसे जो चाहोंगे मैं तुम्हें दूँगी। तुम्हारे हर आदेश पर अपनी सौ जान निछावर करती हूँ।” यह कहकर उसने वासना से प्रेरित होकर सियावुश को अपनी बाँहों में भींच लिया और एक अद्भुत तृष्णा से उसके कपोलों, होंठों और आँखों का चुम्बन लेने लगी।


सियावुश का मुख शर्म से लाल पड़ गया। मन-ही-मन सोचने लगा, “यह औरत मुझे चाहे जितना उत्तेजित करे, मगर मैं पिता की धरोहर और उसके सम्मान को ठेस नहीं पहुँचने दूंगा।” इस ठोस चाल-चलन और अच्छाई के बावजूद उसने सोचा कि यह औरत इतनी दुष्ट है कि इससे अधिक कटुता भी उचित नहीं। क्या पता, यह षड्यन्त्र कर शाह काऊस को उल्टा-सीधा बहका दे। उचित यही है कि अभी नर्मी और मिठास से समस्या को हल करना चाहिए। यह सोचकर उसने कहा, “तुम्हारी बेटी के अतिरिक्त किसी अन्य की इच्छा मेरे मन में नहीं है। मैं उसी से विवाह करूँगा। अभी तुम अपने प्रेम के भेद को छुपाकर रखो क्योंकि तुम शाही परिवार का मुकुट, ईरान की मलिका और संसार की दृष्टि में मेरी माँ हो!” यह कहकर सियावुश चला गया।


रात को शाह काऊस को सुदाबे ने यह शुभ समाचार सुनाया कि “सियावुश ने सारी लड़कियों में से उसकी लड़की को चुना है।‘‘


काऊस इस समाचार को सुनकर बहुत खुश हुआ और आदेश दिया कि ख़ज़ाने का मुँह खोल दिया जाए। हीरे-जवाहरात, रेशम, आभूषण, मुकुट का ढेर लग गया। सुदाबे यह सब देखकर चकरा गई। उसने सियावुश को अन्तःपुर में बुलाया, इधर-उधर की बातें करके बोली, “तुमको बादशाह ने इतना धन दिया है कि जिसे दो सौ हाथियों पर लादा जाएगा। लेकिन मैं उससे कहीं अधिक धन तुम्हें दूंगी और साथ ही अपनी हसीन बेटी भी। अब बताओ तुम्हें किस बात की प्रतीक्षा है? क्या अब भी मेरे प्यार को ठुकराओगे?‘‘ यह कहकर सुदाबे सियावुश के पैरों पर गिर गई। और उससे रो-रोकर विनती करने लगी-“मैंने तुम्हें जब से देखा है, तभी से तुम्हारी पहली नजर के तीर से घायल हूँ। अपनी भावना को ज्वार और उत्तेजना के उफान से मैं स्वयं पागल हो रही हूँ। इस पीड़ा के कारण मेरे लिए दिन भी रात हो गई है और सूरज को भी जैसे ग्रहण लग गया है। एक क्षण के लिए तुम मेरे अन्दर के लपकते शोलों को बुझा दो। तो मेरा यह बुढ़ापा जवानी में बदल जाएगा।‘‘ इसके बाद उसने सियावुश को धमकी भी दी “यदि तुमने मेरी प्यास नहीं बुझाई तो मैं सच कहती हूँ तुम्हें जीने नहीं दूंगी।‘‘


सियावुश सौतेली माँ के इस समर्पण से बेहद लज्जित हो उठा। एक क्षण भी ठहरना उसके लिए अब मुश्किल हो रहा था। उसने सुदाबे को अपने से परे हटाते हुए कहा-“मुझसे ऐसी आशा रखना बेकार है कि मैं काम-वासना पर अपने धर्म को कुर्बान कर दूंगा। ऐसे बुद्धिमान पिता से मैं बेवफाई करूँ उसके विश्वास को तोड़, उसकी पत्नी पर हाथ डालूँ और वीरता और बुद्धिमत्ता को तज दूं ऐसा नामुमकिन है। तुम ईरान की मलिका हो, तुमको यह बात शोभा नहीं देती।‘‘ इतना कहकर सियावुश क्रोध में भरकर सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और चलने को हुआ अचानक सुदाबे सियावुश की बाँहों में झूल गई और बोली-“चूँकि मैंने अपने दिल की बातें तुमसे कह दी हैं, इसलिए तुम मुझे अब बदनाम करना चाहते हो।” यह कहकर वह चीखने लगी और अपने कपड़े फाड़ने लगी। अन्तःपुर से उसके चीखने की आवाज शाह के कानों में पहुंची और वह बदहवास होकर भागा। जब सुदाबे के समीप पहुँचा तो उसे आँसुओं में डूबा, बेहाल देखा। जैसे ही सुदाबे की नजर शाह पर पड़ी, उसने जोर-जोर से रोना और सिर के बाल नोचना आरम्भ कर दिया। पछाड़ खाकर वह शाह से लिपट गई और बोली-“सियावुश ने मुझ पर बुरी नजर डाली है। उसने मेरे कपड़े फाड़े, मुझसे जबरदस्ती करनी चाही और मेरा मुकुट फेंक दिया।‘‘ यह सुनकर काऊस विचारों में डूब गया। उसने सियावुश को अपने पास बुलाया और पूछा, “वास्तविकता क्या है?‘‘


जो कुछ गुजरा था, सियावुश ने सही-सही बता दिया।


मैंने सुदाबे को नहीं, बल्कि सुदाबे ने मुझे अपने धर्म से विचलित करने पर बाध्य किया था।‘‘


यह सुनकर सुदाबे ने साफ झूठ बोला, ‘‘मैंने इससे कहा था कि मैं बहुत सारा धन-दौलत देकर अपनी लड़की का विवाह तुमसे करना चाहती हूँ। मगर इसने जवाब दिया कि न मुझे तेरी धन-दौलत चाहिए, न तेरी लड़की। मैं तो सिर्फ तेरा दीवाना हूँ और सिर्फ तुम्हे चाहता हूँ।‘‘ फिर उदास होकर बोली, “शाह ! मैं आपसे गर्भवती हूँ और मुझे ऐसा लग रहा है कि जो जबरदस्ती मेरे साथ सियावुश ने करनी चाही है, उससे मेरा गर्भ अब ठहर नहीं पाएगा।‘‘


काऊस के सामने समस्या आन खड़ी हुई थी कि वह सच का पता कैसे लगाए और निर्दोष किसे समझे। काऊस ने चुम्बन के बहाने सियावुश का सारा शरीर सूंघा। वहाँ पर सुदाबे की सुगन्ध न थी। फिर आगे बढ़कर उसने सुदाबे को सूंघा जो पूर्ण रूप से इत्र में भीगी हुई थी। इस हकीकत के प्रकाश में आते ही, काऊस शाह दुखी हो उठा और सुदाबे को दोषी माना।


घृणा से उसने चाहा कि उसका सिर धड़ से अलग कर दे। तभी उसके मस्तिष्क में यह विचार कौंधा कि इस घटना के हामवारान से युद्ध करना पड़ेगा। दूसरे, जब वह हामवारान के कारागार में था तो उस कठिन समय में सुदाबे ने उसकी बड़ी सेवा की थी। तीसरे, चूँकि उसका दिल उसकी ओर से खट्टा हो गया था तो उसे क्षमा करना ही दण्ड लगा। चैथे, उसके जो नवजात शिशु थे, माँ के अतिरिक्त किसी अन्य की गोद के इच्छुक न थे। उन्हें इस उम्र में माँ की आवश्यकता थी। मगर इन सारी बातों के बाद भी मलिका उसकी आँखों से गिर चुकी थी।


सुदाबे ने जब यह बात महसूस की कि काऊस का मन उसकी तरफ से हट गया है तो उसके मन में भी द्वेष की भावना आ गईं उसने एक नया षड्यन्त्र रचा। राजमहल में एक दुष्ट औरत थी। भाग्य से वह उस समय गर्भवती थी। मलिका सुदाबे ने उसे अपने पास बुलाया और अकेले में कुछ गुप्त बातें कीं। फिर कुछ धन देकर उसे इस बात पर राजी कर लिया कि वह दवा-दारू खाकर अपना गर्भ गिरा दे।



उस औरत ने सुदाबे के समझाने के अनुसार अपना गर्भ गिरा दिया। उसके गर्भ से जुड़वाँ बच्चे गिरे। सुदाबे ने एक सुनहरा तसला मँगवाया और उसमें दैत्य रूपी उन बच्चों को डाला और खुद अपने कपड़े फाड़कर चीखने-चिल्लाने लगी। उसकी आवाज सुनकर काऊस राजदरबार से भागा हुआ अन्तःपुर में आया। उसने सुदाबे को लेटा हुआ देखा। पूरे महल में हलचल थी और सामने सोने के तसले में दो बच्चे मरे पड़े थे। सुदाबे शाह को देख फूट-फूटकर रोने लगी-“यह सब कुछ सियावुश के कारण हुआ है। मेरी दुर्दशा देखकर भी क्या आपको विश्वास नहीं होता कि मैं निदोर्ष हूँ।


शाह काऊस इन सारी घटनाओं से चकराया हुआ सीधा ज्योतिषियों के समीप पहँचा और समस्या के समाधान व सत्यता जानने की इच्छा प्रकट की। ज्योतिषियों ने एक हफ्ते के बाद सही घटना शाह को कह सुनाई-“ये दोनों बच्चे शाह के नहीं हैं और न ही मलिका के हैं!” इस बात को सुनकर शाह काऊस और अधिक विचार-मग्न हो गया और पण्डितों बुलाकर इस गुत्थी के सुलझाने के बारे में पूछा।


पण्डितों ने कहा, “केवल एक ही रास्ता है कि दोनों अपना निदोर्ष होना साबित करें। वह रास्ता यह है कि दोनों को आग पर से गुजरना होगा। निर्दोष को आग की लपटें कभी नहीं जलायेंगी।‘‘


यह सुनकर शाह काऊस ने मलिका सुदाबे और पुत्र सियावुश को बुलाया और इस अग्नि-परीक्षा की बात उन्हें सुनाई। सुदाबे का दिल भय से धड़क रहा था, सो उसने बहाना बनाया और कहा कि चूँकि मेरे छोटे बच्चे हैं, इसलिए सियावुश पहले अग्नि-परीक्षा के लिए जाये क्योंकि वही वास्तव में दोषी हैं। मैं तो निर्दोष हूँ। मरे हुए बच्चे आपने स्वयं देखे ही हैं।‘‘


जब शाह काऊस ने सियावुश से अग्नि-परीक्षा की बात कही तो वह सहर्ष तैयार हो गया। ‘‘इस तिरस्कार और बदनामी से कहीं अच्छा है कि मैं आग के पर्वत को पार करूँ।‘‘


काऊस ने आदेश दिया कि ऊँटों के सौ काफिले ईंधन जमा किये जाएँ। उस ईंधन से दो चिताएँ ऊँचे टीले के समान बनाई गईं। सारा नगर अग्नि-परीक्षा देखने के लिए एकत्र हो चुका था। सब भीतर-ही-भीतर सुदाबे को बुरा-भला कह रहे थे। वास्तव में किसी ने ठीक ही कहा कि संसार में पतिव्रता पत्नी को खोजो वरना दुराचारी पत्नी पति को कुख्याति के अतिरिक्त कुछ नहीं देती।


शाह काऊस के आदेश से लकड़ी पर तेल डाला गया। फिर उसमें आग लगा दी गईं लपटें आसमान से बातें करने लगीं। अग्नि-कुण्ड के प्रकाश से रात दिन में बदल चुकी थी। सारे लोग सियावुश की भाग्यहीनता पर खून के आँसू रो रहे थे। सियावुश सफेद कपड़े पहने सर पर सुनहरा मुकुट रखे, काले घोड़े पर सवार मुख पर एक विश्वासपूर्ण गम्भीर मुस्कान लिए पिता के समीप पहुँचा। घोड़े से उतरकर उसने पिता के आगे आदर से झुककर सलाम किया। पिता के मुख पर शर्मीन्दगी के भाव देखकर बोला-“मेरे सिर पर कठिनाइयों और तिरस्कार का बोझ जरूर है, मगर मैं जब इस अग्नि-परीक्षा से गुजरकर निर्दोष होने का सुबूत दे दूँगा, तब मैं वास्तव में इन सारे कष्टों और क्लेशों से मुक्ति पा जाऊँगा।‘‘ इतना कहकर सियावुश घोड़े पर बैठा, उसे ऐड़ लगाई और अग्नि-कुण्ड की ओर बढ़ा। उसने मन-ही-मन खुदा को स्मरण किया। उधर सुदाबे अपने महल की छत पर से यह नज़ारा देख रही थी। उसके मन में एक ही तीव्र इच्छा थी कि इस समय किसी तरह सियावुश उस अग्नि-परीक्षा में जलकर भस्म हो जाये।



सारे दर्शक सियावुश को देख रहे थे। उनकी आँखों में आँसू मगर दिल में आक्रोश था। एकाएक सियावुश घोड़े सहित अग्नि-कुण्ड में कूदा और बड़े आराम से अंगारों-भरा मार्ग तय करने लगा जैसे वह अग्नि न हो बल्कि फूलों से भरी एक क्यारी हो। आग की लपटें आकाश चूम रही थीं। बीच में पहुँचकर सियावुश उन लपटों में खो गया। सभी दर्शकों के दिल धक-धक कर रहे थे कि सियावुश कब इन लपटों के भयानक पर्दे से बाहर निकलता है।


कुछ समय पश्चात् सियावुश मुस्कराते हुए बाहर निकला। दर्शकों की रुकी साँसें हर्ष के मारे चीखों और चीत्कारों में परिवर्तित हो गईं। सियावुश और उसके घोड़े का बाल भी बाँका नहीं हुआ था। उसे देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह किसी बाग की हवाखोरी से प्रसन्नचित्त लौट रहा है।


सियावुश को भला-चंगा देखकर सब एक-दूसरे को मुबारकबाद देने लगे कि खुदा ने निर्दोष को बचा लिया।


उधर महल में सुदाबे क्रोध के मारे अपने बाल नोच रही थी और आँसू बहा रही थी। काऊस के समीप जब सियावुश पहुँचा तो भला-चंगा देखकर उसे अपने सीने से लिपटा लिया और राजमहल में ले गया। ऐसे मुबारक अवसर पर तीन दिन तक नृत्य, संगीत और मदिरा का समारोह आयोजित किया गया।


समारोह समाप्त होने पर काऊस ने अपने सलाहकारों से सुदाबे की समस्या पर बात की। उन्होंने बताया कि इस घटना में सुदाबे ही पूर्ण रूप से दोषी है. अतः उसे उचित दण्ड मिलना चाहिए। यह सुनकर शाह काऊस ने उदास मन, पीले चेहरे और काँपते हए होंठों से सुदाबे को फाँसी का आदेश दिया जब सियावुश ने सुना तो उसने सोचा, कल जब सुदाबे को फाँसी लग जाएगी तो उसकी मृत्यु के कुछ दिन पश्चात् शाह काऊस अपनी पत्नी की मृत्यु का कारण मुझे समझेंगे और उस समय उन्हें पश्चात्ताप होगा। यह सोचकर वह शाह काऊस के समीप पहुँचा और उनसे निवेदन किया कि “उचित यही है कि सुदाबे को क्षमा कर दें ताकि उसे अपने को सुधारने का अवसर मिले और वह दोबारा ऐसी हरकत न करे!‘‘


अन्त में शाह काऊस ने सुदाबे को क्षमा कर दिया और उसे अन्तःपुर में भेज दिया। अभी कुछ ही दिन गुज़रे थे कि शाह काऊस के मन में सुदाबे का प्रेम फिर ठाठे मारने लगा और वह सुदाबे को देखने के लिए व्याकुल हो उठा। वह क्षण-भर के लिए भी सुदाबे के पास से दूर नहीं जाना चाहते थे। इस अवसर का लाभ उठाकर सुदाबे ने शाह पर जादू-टोना करके उनका मन फिर सियावुश की ओर से फेरने का प्रयत्न किया। शाह काऊस मन-ही-मन सियावुश से रुष्ट हो गये। मगर अपनी भावना को उन्होंने सियावुश पर व्यक्त न करके उसे छुपाए ही रखा।


इस बीच एक नई घटना घटी। तूरान के शाह अफरासियाब ने ईरान पर आक्रमण कर दिया। इस समाचार से शाह काऊस चिन्तित हो उठे और युद्ध की तैयारी करने लगे। लेकिन आलिमों और ज्योतीषियों ने उसे सलाह दी कि वह रणक्षेत्र में न जाए बल्कि अपनी जगह एक शूरवीर-बलवान् योद्धा को भेजे जो प्रत्येक कला में दक्ष हो। इधर सियावुश ने मन-ही-मन सोचा कि यह अच्छा अवसर है। मैं काऊस शाह को रणक्षेत्र में जाने की मिन्नत करूँगा ताकि सुदाबे काण्ड से मेरी जान थोड़े समय के लिए छूट जाएगी और रणक्षेत्र में शत्रुओं को हराकर संसार में अपनी बहादुरी का सिक्का भी जमा लूँगा। ऐसा सोचकर वह पिता के समीप पहुँचा और रणक्षेत्र में जाने की आज्ञा माँगी। शाह काऊस ने बड़ी खुशी से उसे आज्ञा दे दी और रुस्तम को बुलाकर सियावुश की जिम्मेदारी उसे सौंप दी। शस्त्रागार से असत्र-शस्त्र निकलवाकर फौज में बँटवा दिये और फौज की कमान सियावुश को थमा दी। फौज जब चली तो शाह काऊस एक दिन उनके पास गया और जब शुभकामनाएँ देकर वापस लौटने लगा तो पिता और पुत्र एक-दूसरे के गले मिले। शाह काऊस की आँखों में आँसू भर आए। दोनों के मन में आशंका थी कि शायद अब वे पुनः न मिल सकें और यह उनकी अन्तिम भेंट ही हो। इस प्रकार भाव-विह्वल होकर पिता-पुत्र एक-दूसरे से जुदा हुए।



सियावुश और रुस्तम फ़ौज के आगे चल रहे थे। कछ दिनों बाद वे बल्ख नगर पहुँच गये। जब तूरान के शाह अफरासियाब के पास यह खबर पहुँची कि रुस्तम और सियावुश जैसे पहलवान उनसे युद्ध के लिए एक भारी फौज के साथ आ रहे हैं तो उसने अपने भाई गरसिवज़ को फौज का सिपहसालार बनाकर भेजा। बल्ख़ नगर के दरवाजे पर दोनों फौजें टकराई। तीन दिन तक घमासान युद्ध चलता रहा। चैथे दिन सियावुश की फौज विजय पताका लहराती हुई बल्ख़ शहर में दाखिल हुई।


सियावुश ने अफरासियाब को एक पत्र लिखा-“मैं युद्ध में विजयी होकर बल्ख शहर में दाखिल हो गया हूँ। यहाँ से जीहून नदी तक मेरी फौजें फैली हैं और संसार पर मेरा साम्राज्य फैल गया है।‘‘


अफरासियाब अपनी हार से क्रोधित हो उठा। उसने फौरन आदेश दिया की ‘सहायता भेजी जाये‘ और दुःख व चिन्ता से बेचैन टहलने लगा। फिर सो गया। अभी उसकी आँख लगी ही थी कि वह एक डरावनी चीख़ के साथ सपने से जागा और पलंग से नीचे गिर गया। गरसिवज़ भाई के पास दौड़ा और उसने देखा कि उसका भाई भय से काँप रहा है। जब वह अपने होश में आया तो उसने उस चीख का कारण पूछा:


‘‘मेरे भय और चिन्ता का कारण एक भयानक सपना है। मैंने देखा कि एक विस्तृत जंगल में जिसमें साँप ही साँप हैं। धरती से आकाश तक धूल ही धूल भरी है। मेरा खेमा उस बियाबान में लगा है। तूरानी योद्धा उसकी रक्षा हेतु तैनात हैं इतने में ज़ोर से आँधी आई और मेरा झण्डा उड़ गया तथा खेमा ढह गया। इसी बीच ईरानी फ़ौज मुझ पर टूट पड़ी। सिपाहियों ने मुझे सिंहासन से नीचे घसीट लिया। और मुझे बन्दी बनाकर काऊस बादशाह के पास ले गए हैं। वहाँ पर एक सुडौल सुन्दर युवक खड़ा था जिसने तलवार से मेरे बदन के दो टुकड़े कर डाले मैं दर्द से चीख उठा।‘‘



अफरासियाब ने फौरन ज्योतिषियों को बुलवाया। उसने सपना बयान करके सपने का अर्थ पूछा। उन्होंने पहले अपनी जान की रक्षा का वचन लिया फिर कहा, ‘‘ईरान की फ़ौज की कमान जो शहज़ादा कर रहा है, वह वीर और अनुभवी है। उसके वध से अपने हाथ रंगना वास्तव में शाह के लिए नए कष्टों और कठिनाइयों का आरम्भ होगा।‘‘ ।


 


यह सुनकर अफरासियाब का मन खिन्न हो गया। उसने युद्ध की बात छोड़कर सन्धि की बातचीत आरम्भ की। उसके विचार से कष्टों से बचने का केवल यही एक मार्ग बचा था कि जिन इलाकों पर ईरानियों ने क़ब्जा कर लिया है, वे उन्हीं को दे दिये जाएँ। अफरासियाब ने ऊँच-नीच सोचकर अपने भाई गरसिवज़ से कहा कि वह जीहून नदी के समीप जाए। उसके साथ हजारों दास और दासियाँ हों और अरबी घोड़े तथा सौ ऊँटों पर केवल कालीन और कीमती वस्तुएँ हों। इसके अतिरिक्त जड़ाऊ मुकुट और सुनहरी म्यानों में रखी तलवारें भी हों।


जीहून नदी पर पहुँचकर गरसिवज़ ने सियावुश के पास सन्देश भेजा। फिर नाव में बैठकर नदी पार करके बल्ख़ शहर पहुँचा। सियावुश ने बहुत प्रेमपूर्वक और सम्मानसहित उसका स्वागत किया। उसे अपने समीप बिठाया। गरसिवज़ ने पहले साथ लाए बहुमूल्य उपहार भेंट में दिए। फिर सियावुश और रुस्तम से निवेदन किया कि अफरासियाब सन्धि का इच्छुक है।


सब कुछ सुनकर रुस्तम ने हफ्ते-भर का समय माँगा ताकि इस बात पर अच्छी तरह सोच-विचार कर ले। अकेले में उसने सियावुश से सलाह-मशविरा किया। अन्त में तय पाया कि अफरासियाब अपने कुटुम्ब के कुछ सदस्यों को बतौर गिरवी उनके पास रखे। इससे उनकी नीयत नेक होने का पता चल जाएगा। दूसरे वह सारी जमीनें ईरान की वापस कर दे जिस पर तूरानियों ने क़ब्जा कर रखा है।


अफरासियाब ने ये दोनों शर्ते मान लीं। उसने अपने परिवार के सौ लोग ‘गिरवी‘ के रूप में भेज दिये। साथ ही वे सारे इलाके भी लौटा दिये। इसके पश्चात् सियावुश ने पिता को एक पत्र लिखा जिसे रुस्तम लेकर शाह काऊस के पास पहुँचा।


शाह ईरान पत्र पढ़कर क्रोध से काँपने लगा। उसने रुस्तम पर कटु वचनों का प्रहार किया। रुस्तम ने सफाई पेश की और तर्कपूर्ण बातें करके शाह काऊस को समझाने का प्रयत्न किया। मगर काऊस तो उस पर आग-बबूला था। उसने रुस्तम पर लांछन लगाया कि “यह सब तुम्हारा किया-धरा है। अपने आलस्य के कारण सियावुश को युद्ध से हटाकर सन्धि के लिए उकसाया, क्योंकि अफरासियाब द्वारा भेजे बहूमूल्य उपहारों ने तेरी आँखें चुँधिया दी थीं।‘‘ उसी क्रोध में भरे उसने आदेश दिया कि “रुस्तम की जगह मेरी फौज का सिपहसालार तूस पहलवान होगा।‘‘


रुस्तम को काऊस के इस व्यवहार से दुःख पहुँचा। वह क्रोध और अपमान से दरबार से बाहर निकला और अपने शहर सीस्तान की ओर चल पड़ा। शाह काऊस ने एक पत्र सियावुश को भी लिखा जिसमें उसके व्यवहार की जी भर कर निन्दा की थी-“तुम सुन्दर स्त्रियों की संगत में पड़कर युद्ध करना भूल गए। अफरासियाब के परिवार के सारे सदस्यों को शीघ्राशीघ्र ईरान के शाही दरबार में भेजा जाए। सन्धि के सारे वचन तोड़ दिए जाएँ और तुम खुद दरबार में हाजिर हों।‘‘


सियावुश को जब यह ज्ञात हुआ तो उसे उस पत्र से बहुत दुःख पहुँचा विशेषकर इस बात से कि पिता ने रुस्तम की सिपहसालार की पदवी तूस पहलवान को दे दी है। यदि वह पिता का आदेश मानकर अफरासियाब के सौ सम्बन्धियों को ईरान भेज देता है तो शाह काऊस उन्हें फौरन फाँसी पर चढ़ा देंगे। यदि सन्धि-विच्छेद करके वह अफरासियाब से दोबारा युद्ध करता है तो संसार उसके नाम पर थूकेगा। यहाँ तक कि खुदा भी उसके इस आचरण को पसन्द नहीं करेगा। यदि यह सब कुछ छोड़कर फौज की कमान तूस के हाथों सौंपकर वह पिता के पास ईरान वापस लौट जाता है तो वहाँ सुदाबे के प्रकोप और षड्यन्त्रों से बचा नहीं रहेगा। ये सारी बातें सोच-समझकर उसका मन दुःखी हो रहा था। उसने पिता का पत्र वरिष्ठ योद्धाओं को दिखाया और कहा कि “मैं ही भाग्यहीन हूँ किसी का क्या दोष है। मुझ पर हर पल एक नई मुसीबत टूटती है। यह सब मेरे ग्रहों का चमत्कार है। मेरे प्रति बादशाह कितने दयालु और कृपालु थे। अपने प्रेम से उन्होंने मुझे कितना विश्वास दिया था लेकिन जब से सुदाबे ने उन्हें भड़काया है, वह मेरे लिए ज़हर हो गया है। उसने मेरी राह में कैसे काँटे बो दिए हैं। शाही महल मेरे लिए अब कारागार से कम नहीं है। मेरे भाग्य का खिलता फूल अब सदा के लिए मुरझा गया है।‘‘



सियावुश ने न सन्धि तोड़ी, न युद्ध के लिए कमर कसी और न ही पिता के पास लौटने का इरादा किया। उसके सामने बस एक उपाय था कि वह कहीं भाग जाए, जाकर छुप जाए और शाह काऊस को इस गुप्त स्थान का पता न चल सके। अन्त में सियावुश ने आदेश दिया कि अफरासियाब के सारे उपहार और सम्बन्धी लौटा दिए जाएँ। साथ ही जो कुछ घटा है, उसे बता दिया जाए। वरिष्ठ योद्धाओं ने उसे समझाया कि यूँ ईरान के साम्राज्य से आँखें फेर लेना उचित नहीं है। मगर उनके उपदेशों का उस पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा। उसने अपनी वफादारी अफरासियाब के प्रति रखी और उसे पत्र लिखा- ‘‘इस युद्ध ने मेरे दामन को केवल ज़हर और कडुवाहट से भर दिया है। मैंने अन्त में यही तय किया है कि ईरान के राजसिंहासन को छोड़कर तुम्हारी शरण में आ जाऊँ!‘‘ अन्त में उसने यह भी लिख दिया कि ‘‘मैं तेहरान के रास्ते से किसी ऐसे गुप्त स्थान पर जाकर तन्हा रहूँगा, जहाँ गुमनाम जीवन ख़ामोशी से गुजार सकूँ।‘‘


अफरासियाब को यह सब पढ़कर और यह जानकर बहुत दुःख हुआ कि सियावुश का भाग्य-चक्र कठिनाइयों में फँस गया है। उसने पीरान से सलाह-मशविरा किया कि इस बारे में क्या किया जाए। पीरान ने कहा, “सियावुश एक गम्भीर, सभ्य और बुद्धिमान शहज़ादा है। वह चाल-चलन से पवित्र और वचन का पक्का है। मेरी राय है कि आप उसे सम्मानपूर्वक आमन्त्रित करें और अपना अतिथि बनायें। काऊस कुछ दिनों बाद इस संसार से चला जाएगा। तब ईरान का बादशाह सियावुश बनेगा और उस समय आपका प्रभाव ईरान-तूरान पर एक समान होगा।‘‘


इस बात को सुनकर अफरासियाब खुश हुआ और पीरान की राय को उसने पसन्द किया। उसने सियावुश के पत्र का उत्तर लिखवाया-‘‘मझे तम्हारे पिता के व्यवहार से वास्तव में दुःख पहुँचा है। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, आज से तुम मेरे बेटे और मैं तुम्हारा पिता हूँ। पिता होने के बावजूद, मैं तुम्हारी हर आज्ञा मानने के लिए तेयार हूँ इस सारी फौज और ख़जानों पर यहाँ तक कि इस देश पर तुम्हारा अधिकार है।


इसके बाद यहाँ से वापस जाने का अब तुम्हारे पास कोई कारण नहीं है।‘‘


इस पत्र को पाकर सियावुश ऊपर से तो प्रसन्न हुआ मगर मन-ही-मन दुःखी हुआ। वह इस समस्या से कैसे आँखें मूंद सकता था कि अफरासियाब का यह व्यवहार न केवल मानवता पर आधारित है, बल्कि उसमें राजनीति लाभ भी निहित है। मित्रता के पर्दे में वह एक-न-एक दिन शत्रुता निभायेगा। इसके पश्चात् उसने एक भावनापूर्ण पत्र पिता के नाम लिखा कि “आपके साम्राज्य की सीमा से मैं दूर जा रहा हूँ।” जब वह अफरासियाब की सीमा में दाखिल हो रहा था तो जीहून नदी को पार करते हुए उसकी आँखें आँसुओं से तर थीं। सियावुश जब तूरान की सीमा में दाखिल हुआ तो पीरान ने बहुत वैभवपूर्ण ढंग से उसका स्वागत किया। उसके सम्मान में फौज थी, हाथी था और सिंहासन था। सबके आगे रेशमी तूरानी झण्डा लहरा रहा था। उसके पीछे, फिरोज़े के सिंहासन को कन्धे पर रखे दास चल रहे थे। पीरान ने आगे बढ़कर सियावुश के सारे शरीर का चुम्बन लिया। इतनी आवभगत देखकर सियावुश को अच्छा लगा कि उसका शत्रु सम्मान और प्रेम का प्रदर्शन कर रहा है। मगर साथ-ही-साथ उसके मन में देश-प्रेम की टीस और उसकी दूरी की कसक भी उसे तड़पा रही थी।


पीरान ने देखा कि सियावुश उदास है तो पीरान ने सियावुश को अपने प्रेम और आदर का विश्वास दिलाते हुए कहा-“अफरासियाब के इस प्रेमपूर्ण व्यवहार पर भरोसा करो और यहाँ से जाने का विचार दिल से निकाल दो। तूरान धरती की हर वस्तु तुम पर दिल व जान से निछावर होने को तैयार है। तुम इस क्षण से प्रसन्नतापूर्वक जीवन व्यतीत करना आरम्भ कर दो।‘‘


पीरान की सांत्वना-भरी बातों ने सियावुश के घायल मन पर मरहम का काम किया। उसकी दुविधा किसी हद तक दूर हो गई। भोजन के समय वह आपस में इतना समीप आ चुके थे कि मानों पिता और पुत्र हों। भोजन के उपरान्त वे दोनों अफरासियाब के राजमहल में उपस्थित हुए। राजमहल से अफरासियाब पैदल सियावुश के स्वागत के लिए आगे बढ़ा। जब सियावुश ने उसे खड़ा देखा तो सम्मान के कारण अपने घोड़े से उतरा और पैदल अफरासियाब की ओर बढ़ने लगा। समीप पहुँचकर दोनों गले मिले और एक-दूसरे के माथे व आँखों का चुम्बन लिया।


इस मुलाकात के बाद अफरासियाब का मन सन्तोष से भर उठा और उसने सियावुश पर अपनी मेहरबानी का दरवाज़ा खोल दिया। फौरन आदेश दिया कि शहज़ादे के लिए एक सुन्दर राजमहल सुसज्जित किया जाए। उसमें सुनहरा सिंहासन रखा जाए। जरबफ्त के गलीचे बिछाए जाएँ। जब सियावुश उस सुनहरे सिंहासन पर विराजमान हुआ तो अफरासियाब ने एक उत्सव का आयोजन किया और बहुमूल्य उपहार अतिथि को भेंट किये।


यह उल्लासपूर्ण उत्सव हफ्ते-भर तक चलता रहा। एक दिन अफरासियाब सियावुश के संग चैगान खेलने गया। दोनों संध्या तक उसी खेल में मस्त रहे। जब शाम को राजमहल लौटे तो दोनों प्रसन्न थे। अफरासियाब को अनुभव हुआ कि सियावुश वास्तव में एक वीर और सुशील शहज़ादा है। उसने फिर इस खुशी में सियावुश को उपहारों से लाद दिया। अफरासियाब वास्तव में सियावुश को मन से प्यार करने लगा था। कुछ दिन बाद तो उसका यह हाल हो गया था कि चाहे दुःख हो या सुख, प्रसन्नता हो या उदासी, वह सियावुश के बिना एक क्षण भी नहीं जी सकता था। उसी की बातें उसके मन को भाती थीं।


इसी तरह एक वर्ष गुज़र गया। एक दिन पीरान और सियावुश बातें कर रहे थे। पीरान ने कहा-“अफरासियाब का तो यह हाल है कि तुम्हारे अतिरिक्त उन्हें कोई अच्छा ही नहीं लगता। मुझे तो लगता है, तुम उसकी खुशियों की बहार, उनके नृत्य और संगीत की महफ़िलों के बेहतरीन साथी और उनके दुःख के भागीदार हो। मगर तुम्हें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि तुम काऊस शाह के बेटे, ईरान के साम्राज्य की बागडोर सँभालने वाले भविष्य के बादशाह हो। कहीं ऐसा न हो कि तुम राज्य से हाथ धो बैठो। तुम्हारा अपना कौन है? न भाई, न बहन, न पत्नी। बल्कि तुम उस पुरुष की तरह हो जो उपवन से अलग है। अच्छा हो कि इस अकेलेपन को दूर करने के लिए तुम किसी लड़की को विवाह के लिए पसन्द कर लो जो तम्हारे दुःख-दर्द की भागीदार बन तुमको अपना सके। अफरासियाब और गरसिवज़ के तीन-तीन सुन्दर कन्याएँ हैं। मेरी चार लड़कियाँ हैं। बड़ी लड़की जरीरा सितारों में चन्द्रमा समान है। संक्षेप में, तुम जिसे चाहों पसन्द कर लो।‘‘


सियावुश ने उत्तर दिया कि “इन लड़कियों में से मुझे सबसे अधिक जरीरा पसन्द है। मेरा रिश्ता उसी से उचित है।‘‘


पीरान खुशी-खुशी घर गया और जरीरा से उसका विवाह पक्का कर दिया। रात को अपनी बेटी का सोलह सिंगार करवाकर उसे सियावुश के समीप भेज दिया।


अफरासियाब के दरबार में सियावुश का सम्मान और दबदबा दिन-दूना रात-चैगुना बढ़ता जा रहा था। एक दिन पीरान ने सियावुश से कहा-“तुमने कभी इस ओर ध्यान दिया है कि अफरासियाब की शान-शौकत और ख्याति तुम्हारे कारण है? अफरासियाब रात-दिन तेरा ही मुख देखता है। उसकी आत्मा तू है। वह सौ जान से तुझ पर निछावर है। तेरा प्रेम है जो उसे अभी तक सँभाले हुए है। यदि यह प्रेम व आदर की भावना पारिवारिक सम्बन्ध के गठबन्धन में परिवर्तित हो जाये तो यह भावना अटूट और अमर हो जाएगी और तुम्हारा सम्मान भी दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाएगा। सच यह है कि मेरी बेटी तुम्हारी पत्नी है, मगर मुझे तो तुम्हारा ही ख्याल हरदम सताता रहता है। तुम्हें शाही दरबार में जो महान पदवी प्राप्त है उसका तकाजा है कि तुम शाह के दामन में पड़े मोतियों में से एक को चुन लो। इससे तुम्हारा सम्मान बढ़ेगा और उन्नति होगी। अफरासियाब की लड़कियों में से सबसे सुन्दर लड़की फिरंगीस है। यदि तुम आज्ञा दो तो मैं बादशाह से गुप्त चर्चा चलाऊँ।‘‘


सियावुश अपनी महान् आत्मा और कोमल एवं निर्मल हृदय के कारण इस बात पर राजी न हुआ। वह जरीरा का दिल तोड़ना नहीं चाहता था। उसकी भावनाओं को ठेस पहँचाना नहीं चाहता था। इसलिए उसने पीरान की बातों का उत्तर दिया कि-‘‘मेरा जीवन तो जरीरा है, वही मेरी श्वास है और वही मेरी आत्मा! मैं उसके अतिरिक्त किसी से प्यार नहीं करता। न मुझे सम्मान की भूख है, न उपहारों का लालच। न मुझे चाँद और सूरज पाने की कोई लालसा है, न राज्य और सिंहासन को लेने की इच्छा। मेरे लिए जरीरा मेरा वर्चस्व है, मेरे अच्छे-बुरे दिनों की साथी। मैं उसे किसी भी मूल्य पर छोड़ना नहीं चाहूँगा, चाहे मुझे उसके लिए बड़ी-से-बड़ी हानि क्यों न उठानी पड़े।”


लेकिन पीरान ने उसको जरीरा की ओर से हर प्रकार का विश्वास दिलाया। अन्त में पीरान के बहुत अधिक दबाव और समझाने से वह मान गया। “अब जब मैं ईरान से सदा के लिए बिछुड़ गया हूँ, अपने पिता और रुस्तम जैसे पहलवानों से दूर तूरान में हूँ तो बाकी ज़िन्दगी भी मुझे देश से दूर इसी तूरान की धरती पर गुज़ारनी पड़गी। ऐसी स्थिति में अफरासियाब की बेटी से विवाह करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।”


पीरान अफरासियाब के सम्मुख उपस्थित हुआ और उससे फिरंगीस का हाथ सियावुश के लिए माँगा। अफरासियाब ने पहले बहाना किया कि “ज्योतिषियों ने मुझसे कहा था कि मेरा कोई भी नवासा शाह कबाद और तूर बादशाह की नस्ल से नहीं होना चाहिए।‘‘ यह सुनकर पीरान ने कहा-“ज्योतिषियों की बातों में तथ्य नहीं है।” इधर-उधर की बातें करके उसने किसी तरह अफरासियाब को विवाह के लिए राजी कर लिया। पीरान प्रसन्नचित्त हो विजयी भाव से सियावुश के पास पहुँचा और कहा-“नये विवाह के लिए तैयार हो जाओ।” मगर सियावुश इस विवाह से झिझक रहा था। उसका मन जरीरा से बेवफाई के लिए तैयार न था। उसका अन्तर्मन पाप-भावना से भर रहा था और मुख लज्जा से लाल हो गया था। उसके मन में बार-बार प्रश्न उठ रहा था कि जरीरा जैसी तन-मन निछावर करने वाली प्रिय को छोड़कर दूसरी कन्या को कैसे अपना लूँ?


इधर पीरान घर लौटा और अपनी पत्नी गुलशहर को ख़ज़ाने की कुंजी दी ताकि फिरंगीस को उपहार देने के लिए वह बहुमूल्य वस्तुएँ निकाले। गुलशहर ने जबरजद के तख्रन, फिरोजे के प्याले, जड़ाऊ ताज, कान के बुन्दे और बहुमूल्य जूते निकाले। इसके अतिरिक्त उसने सौ बड़ी थालियों में अलग-अलग जाफरान और इत्र सजाए। साठ ऊँटों पर बहुमूल्य कालीन-जरबफ्त और सोने के सिंहासन लादे गये। तीन सौ कनीजों को भी, जो सुनहरी अमारी में बैठी थीं, फिरंगीस को विवाह में भेंट स्वरूप भेजा।


ईरानी रस्म और रिवाज के अनुसार, फिरंगीस और सियावुश का शुभ विवाह सम्पन्न हो गया। विवाह-समारोह में दूल्हा-दुल्हन को देखकर लग रहा था जैसे सूर्य और चन्द्र का मिलन हो गया हो। सारे देश में हफ्ते भर तक धूम-धाम से उत्सव मनाया गया। जनता तरह-तरह की मदिरा और अनेक स्वादिष्ट व्यंजनों का मज़ा लेती रही।


एक वर्ष पलक झपकते बीत गया। इस बीच कोई अनहोनी घटना न घटी। अफरासियाब ने चीन तक फैले अपने विस्तृत साम्राज्य का एक बड़ा इलाक़ा सियावुश को दे दिया। सियावुश फिरंगीस और पीरान के साथ उस नए भाग की ओर चल पड़ा। चलते-चलते काफिला एक ऐसे स्थान पर पहुंचा जहाँ एक ओर ऊँचे पर्वत थे तो दूसरी ओर समन्दर ठाठे मार रहा था। सियावुश को वह स्थान बहुत भाया। उसने आदेश दिया कि यहाँ उसके लिए एक सुन्दर महल बनाया जाए। राजगीरों और मजदूरों ने रात-दिन मेहनत करके एक बहुत ही सुन्दर किला ‘गुँग‘ बनाया जो वैभव, सौन्दर्य और बाग़ की हरियाली में अपना जवाब आप था।


सियावुश एक दिन पीरान को लेकर किला देखने गया। उसे देखकर प्रसन्नता हुई कि किला हर प्रकार की सजावट के साथ तैयार है। ज्योतिषियों को बुलाकर उसने पूछा कि यह महल मेरे लिए शुभ है या नहीं।


ज्योतिषियों ने कहा-“यह आपके लिए अशुभ है।” सियावुश, जो पहले से ही अपने भाग्य से खिन्न और उदास था, उनकी बात सुनकर अधिक दुःखी हो उठा। फिर पीरान को ज्योतिषियों की बात बताता हुआ बोला-“इस महल का लाभ कोई और ही उठाएगा। मैं तो इससे भी वंचित रहूँगा।‘‘


पीरान ने उसे दिलासा दिया। फिर जब वह तूरान शहर लौटा तो उसने अफरासियाब से सियावुश के महल की बहुत तारीफ की। अफरासियाब सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और गरसिवज़ से बोला-“जाकर देखो तो कि सियावुश ने कैसा वैभवपूर्ण महल बनवाया है। जाकर फिरोजे और हाथी दाँत के बने उसके राज-सिंहासन के सौन्दर्य को देखो। जहाँ पर कल तक झाड़-झंखाड़ा था, वहाँ पर सियावुश ने बाग़ बनवा दिया है। मगर हाँ, सियावुश से बहुत सम्मान और आदर देकर मिलना। वरिष्ठ और बूढ़े दरबारियों के सामने उसकी खूब प्रशंसा और उसकी बहुमुखी प्रतिभा की चर्चा करना।‘‘


गरसिवज़ अफरासियाब का सन्देश और उपहार लेकर यात्रा पर निकल पड़ा। सियावुश को उसके आगमन का समाचार मिला तो वह उसकी अगवानी के लिए पैदल गया। दोनों एक-दूसरे से गले मिले। सियावुश प्रेमपूर्वक गरसिवज़ को महल में लाया। उसके आने की खुशी में एक शानदार समारोह का आयोजन किया। इसके पश्चात् जब वह फिरंग़ीस के महल में गया तो उसने देखा कि हाथी दाँत के सिंहासन पर बड़ी शान से फिरंगीस बैठी हुई है। ऊपर से उसने अपनी प्रसन्नता प्रकट की; मगर मन-ही-मन सोचा, यदि इस तरह से वर्ष-भर गुजर गया तो सियावुश किसी को पूछेगा भी नहीं। आज भी उसके पास किस चीज़ की कमी है। महल है, राजसिंहासन है, ख़जाना है, फ़ौज है और इतना विस्तृत इलाक़ा है।


संक्षेप में, जब तक गरसिवज़ वहाँ पर रहा सियावुश के ऐश्वर्य और महिमा को देखकर उसके दिल पर साँप लोटता रहा। उसके मुख का रंग वह सब रंगीनी देखकर उड़ गया था, मगर ऊपर से वह हँसता-मुस्कराता रहा। दूसरे दिन सियावुश ने उसे चैगान खेलने का निमन्त्रण दिया। दोनों ने खेलना आरम्भ किया। गरसिवज़ जो गेंद मारता उसे सियावुश फुर्ती से लौटा देता था। चारों ओर ईरानी और तुर्की घुड़सवार घोड़े दौड़ा रहे थे। सभी खेल में व्यस्त थे, मगर अन्त में ईरानी घुड़सवार तुर्की घुड़सवारों पर विजयी हुए। सियावुश को अपने देशवासियों की यह विजय देखकर बहुत प्रसन्नता हुई।


सियावुश और गरसिवज़ जब खेल चुके तो आकर सुनहरे सिंहासन पर बैठ गये और दूसरे खिलाड़ियों का मुक़ाबला देखने लगे। मगर अन्दर-ही-अन्दर अपनी हार से गरसिवज़ अपमान की ज्वाला से तड़प रहा था। अन्त में जब उससे न रहा गया तो उसने सियावुश को चुनौती देते हुए कहा कि चलो हम दोनों कुश्ती लड़ते हैं। यदि मैं तुम्हें पटक दूं तो मैं तुमसे बलवान् रहा, यदि तुमने मुझे हराया तो मैं कभी रणक्षेत्र से नहीं उतरूँगा।‘‘


सियावुश ने गरसिवज़ के सम्मान के कारण उसकी चुनौती क़बूल नहीं की और कहा-“आपके साथ बल का प्रदर्शन मुझे शोभा नहीं देता है।” सियावुश गरसिवज़ से लड़ना नहीं चाहता था क्योंकि वह अफरासियाब का भाई और उसका अतिथि था। उसने यह सोचकर गरसिवज़ से कहा कि “आप किसी अन्य पहलवान को मुझसे कुश्ती लड़ने का आदेश दें।‘‘ ।


यह सुनकर गरसिवज़ ने दो प्रसिद्ध पहलवान, ‘गवी‘ और ‘दमूर‘ को सियावुश से कुश्ती लड़ने को भेजा जो वास्तव में नामी पहलवान थे और अपना कोई जवाब नहीं रखते थे।


सियावुश तूरानी पहलवानों ‘गर्वी‘ और ‘दमूर‘ के साथ मैदान में उतरा। पहले वह गर्वी की ओर बढ़ा। उसकी कमर पर बँधी पेटी को पकड़ा और उसे जमीन पर दे मारा। अब वह दमूर की ओर मुड़ा और उसे गर्दन से पकड़कर जमीन से यूँ उठा लिया जैसे उसके हाथ में कोई छोटा-सा पक्षी हो और उसी हालत में वह उसे उठाकर गरसिवज़ के पास ले गया और ठीक सामने


धरती पर छोड़ दिया। उसके बाद सियावुश घोड़े से उतरा, आगे बढ़कर गरसिवज़ से हाथ मिलाया और सब मगन, मस्त और हँसी-खुशी के साथ महल में लौट आये।


गरसिवज़ एक हफ्ता ठहरने के बाद अपने शहर वापस लौटा। वह ऊपर से सियावुश की योग्यता की भूरि-भूरि प्रशंसा करता रहा, मगर उसके मन में सियावुश के विरुद्ध अपने अपमान का आक्रोश भरा हुआ था और वह उस पराजय से बहुत लज्जित था। जब वह शाह दरबार में पहुंचा तो अवसर निकालकर वह सियावुश के विरुद्ध में अफरासियाब के कान भरने लगा-“कभी-कभी सियावुश के पास शहंशाह काऊस का ऐलची आता है। उसके मधुर सम्बन्ध चीन और रोम से भी हैं। इस सबको टाला जा सकता है, मगर इस सच्चाई से आँखें कैसे मूंदी जा सकती हैं कि वह शाह ईरान काऊस की याद में मदिरा के प्याले तो खाली करता है, मगर भूल से भी मदिरा का प्याला उठाते हुए शाह अफरासियाब का अभिनन्दन नहीं करता है।‘‘


गरसिवज़ की बातें सुनकर अफरासियाब को दुःख हुआ। उसने कहा-“मैं तीन दिन तक इस समस्या पर विचार करूँगा।‘‘ अफरासियाब ने हर एक कोण से सोचा मगर उसे सियावुश में कोई बुराई नजर नहीं आईं उसने गरसिवज़ से कहा, ‘‘सियावुश ने ईरान के तख़्त को त्याग कर मेरे प्रति वफादारी दिखाई है और मेरे प्रति इसी निष्ठा को अपना धर्म बना लिया है-


‘‘उसने कभी मेरे आदेश से मुँह नहीं मोड़ा और मैंने भी उसके सदाचारी स्वभाव के बदले में उसके साथ भलाई की है।’’


इतना कहकर अफरासियाब ने कुछ पल सोचा और कहा कि “वास्तव में मेरे सामने सियावुश के विरुद्ध कोई बहाना नहीं है। यदि उसके बाद भी मैंने उसके साथ बुरा व्यवहार किया तो लोग मुझ पर ऊँगली उठाएँगे। मुझे बुरा-भला कहेंगे। इससे तो अच्छा है कि मैं उसे वापस ईरान भेज दूं।‘‘


गरसिवज़ ने इस बात का विरोध करते हुए कहा-‘‘सियावुश हमारे साम्राज्य के सारे भेदों से वाकिफ है। यदि वह ईरान चला गया तो हमारे लिए कष्ट ही कष्ट है। आपने शेर पाला है और शेर पालने वाले को तो सदा खतरा लगा रहता है।‘‘


संक्षेप में, गरसिवज़ ने सियावुश और फिरंगीस की जी भरकर निन्दा की। यहाँ तक कि अफरासियाब का मन उन दोनों की ओर से फिर गया। अन्त में गरसिवज़ को अफरासियाब ने आदेश दिया कि वह जाकर फिरंगीस और सियावुश को ले आये।


गरसिवज़ मन में शत्रुता छिपाए सियावुश के समीप पहुँचा और अफरासियाब का सन्देश देते हुए कहा कि “बादशाह ने तुम्हें और फिरंगीस को कुछ दिनों के लिए बुलाया है ताकि तुम उनसे भेंट भी कर लो और कुछ दिन महल में रहकर आराम करो और शिकार इत्यादि करके जीवन का आनन्द ले सको।‘‘


सियावुश यह आमन्त्रण पाकर बहुत प्रसन्न हुआ। गरसिवज़ ने जब उसका यह निश्छल प्रेम और आदर देखा तो सोचा कि यदि वह इतने प्रसन्न मन से शाह के समीप पहुँचेगा, तो सब किये-कराए पर पानी फिर जायेगा। उसने दिखावे के लिए मुँह उतार लिया और घड़ियाली आँसू बहाने लगा।


उसकी यह दशा देखकर सियावुश ने पूछा-“रोने की क्या बात है?‘‘ गरसिवज़ ने आँसू पोंछते हुए कहा-“अफरासियाब ऊपर से तो तुम पर मेहरबान है, मगर अन्दर से वह तुमसे


द्वेष रखता है। उसका कोई भरोसा नहीं है। इससे पहले भी वह अपने निदोर्ष भाई और न जाने कितने सरदारों को मौत के घाट उतार चुका है। अब उसके मन में छुपा दैत्य तेरे खून का प्यासा हो रहा है। अपना ध्यान रखना।” सियावुश ने कहा-“मैं बादशाह को मना लूँगा। उसका दिल मेरी तरफ साफ हो जायेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।‘‘


गरसिवज़ ने कहा-“अफरासियाब ने जो क्रूर व्यवहार अपने कुटुम्ब के सदस्यों व फौजी सरदारों के साथ किया है, उसको मत भूलना। यह तो उसका जाल है, तो उसने तुम पर फेंका है। मेरी राय है कि तुम पहले पत्र लिख दो ताकि मैं शाह को पत्र दूँ और वातावरण के ख़तरे की आशंका को आकूँ। यदि ख़तरा न हुआ तो तुम्हें आने की इत्तिला दे दूंगा। मेरा तो सिर्फ इतना ही कहना है कि दूध के जले को छाछ भी फूंक-फूंककर पीना चाहिए।‘‘


सियावुश का निर्मल मन गरसिवज़ की बातों से प्रभावित हो गया और उसने एक पत्र अफरासियाब को लिखा-“आपका निमन्त्रण मिला हमें हार्दिक प्रसन्नता हुई। चूँकि इन दिनों फिरंगीस बीमार है, उसकी देखरेख के कारण इस समय यात्रा करना मेरे लिए असम्भव है। जैसे ही उसकी तबियत ठीक हो जायेगी, हम फौरन आपकी सेवा में उपस्थित होंगे।‘‘


गरसिवज़ पत्र लेकर चला। रात-दिन यात्रा करता हुआ तीन दिन में ही दरबार पहुँच गया। उसको इतनी जल्दी वापस आया देखकर अफरासियाब अचम्भित हुआ। गरसिवज़ ने पहुंचते ही अपनी बातों के जाल में अफरासियाब को फँसाना आरम्भ किया-“न तो सियावुश मेरे सम्मान में मुझे लेने आया और न मेरा आदर-सत्कार किया। उसने सिंहासन के नीचे मुझे उकडूँ. बिठाया। मैंने आपका पत्र दिया तो उसे बिना पढ़े किनारे डाल दिया। ज़बानी सन्देश कहना चाहा तो उसने मुझे रोक दिया। उसके पास ईरान से बराबर पत्र आते हैं। पत्र-व्यवहार का यह सिलसिला ईरान से घनिष्ठ मित्रता को दर्शाता है। उसके दरवाज़े जहाँ ईरानियों के लिए खुल रहे हैं, वहाँ पर तूरानियों के लिए बन्द हो रहे हैं। यदि आप सियावुश के सम्बन्ध में देरी से काम लेंगे तो आपको पछताना पड़ेगा। यदि आपकी ओर से ढील हुई तो सच कहता हूँ सियावुश स्वयं तूरान पर आक्रमण करके ईरान और तूरान दोनों साम्राजयों की बागडोर अपने हाथ में ले लेगा।‘‘


इधर गरसिवज़ के जाने के बाद सियावुश चिन्ता और दुःख के सागर में डूब गया। उसने सारी परेशानी फिरंगीस को कह सुनाई। सारी बातें सुनकर फिरंगीस ने सिर पीट लिया और रोने लगी। उसने व्यथित होकर कहा, “अब क्या होगा। इस


द्वेष का अन्त कैसे होगा जो मेरे पिता के मन में आपके लिए है।


इधर आप ईरान जाना नहीं चाहते, उधर चीन आपको पसन्द नहीं है। फिर बताएँ, हमको सिर छुपाने के लिए कौन-सा आकाश मिलेगा जो खुदा आपको अपनी पनाह में रखे और आपका भविष्य उज्ज्वल बनाए।‘‘


सियावुश ने उसे आशा दिलाते हुए कहा कि “दुःखी न हो, आँसू पोंछ डालो। चिन्ता से कया लाभ? खुदा पर विश्वास रखो, वही हमारी सहायता करेगा।‘‘


इस घटना के तीन दिन गुज़र गये। चैथे दिन सियावुश रात को सोते से चीखकर उठ बैठा। उसका शरीर काँप रहा था। फिरंगीस ने फौरन शमा जलाई और पूछा, “क्या बात है?‘‘ ।


सियावुश ने बताया कि “मैंने सपने में देखा है कि एक बहुत बड़ा दरिया बह रहा है। उसके दोनों किनारों पर आग जलाने के ईंधन के पहाड़ बने हुए हैं। साथ-ही-साथ ढेरों योद्धा अस्त्र-शस्त्र में सुसज्जित जमा है। उसमें सबसे आगे अफरासियाब हाथी पर सवार है। मुझे देखते ही अफरासियाब के माथे पर बल पड़ गये। उसने फौरन वहाँ जहाँ ईंधन में फूंक मारी और गरसिवज़ ने उसे हवा दी। जब लपटें उठने लगी तो उन लपटों वाली चिता में मुझे डालकर जला दिया गया।‘‘


फिरंगीस ने सियावुश को दिलासा दिया और समझाते हुए कहा, “सपना तो केवल सपना है।‘‘


अभी आधी रात ही गुजरी थी कि समाचार मिला कि अफरासियाब एक भारी फौज के साथ आ रहा है। उसी समय गरसिवज़ का भेजा घुड़सवार सन्देशवाहक सियावुश के समीप पहुँचा और सन्देश दिया कि “मैं अफरासियाब के मन पर छाई ईर्ष्या और प्रतिशोध की भावना को न धो सका। जो कुछ मैंने कहा, उसका कुछ भी फल न निकला। केवल उसकी सुलगती लकड़ियों के धुएँ ने मेरी आँखें भी आँसुओं से भर दी हैं। मुझे सम्मान के स्थान पर केवल अपमान मिला। इस काले धुएँ में डूबा मैं तुम्हारे लिए दिशा ढूँढ़ रहा हूँ।‘‘ ।


फिरंगीस ने सियावुश को समझाया, “पल-भर की देर भी तम्हारे लिए हानिकारक हो सकती है। फौरन घोड़े पर बैठो और यहाँ से फरार हो जाओ।‘‘ मगर सियावुश पर फिरंगीस की बातों और आँसुओं का प्रभाव न पड़ा। वह समझ गया कि उसका सपना सच निकला है। अब पीठ दिखाने से कोई फायदा नहीं है। आने वाली घटना के लिए उसे कमर कस लेनी चाहिए। उसने फिरंगीस से विदाई ली जो पाँच मास की गर्भवती थी। “तुम एक ऐसे पुत्र को जन्म दोगी जो एक महान बादशाह बनेगा। उसका नाम खुसरू रखना। मेरे भाग्य का सूर्य अफरासियाब के हाथों अस्त हो रहा है। मेरा निर्दोष अस्तित्व उसके हाथों धूल में मिल जायेगा। न मुझे कफ़न मिलेगा, न कब्र मिलेगी। यहाँ तक कि मेरी मृत देह के समीप आँसू बहाने वाला भी कोई नहीं होगा। जब मेरा सिर धड़ से अलग होगा तो उस अनजाने बियाबान


धरती पर मेरा यह तन किसी लावारिस लाश की तरह सड़ता रहेगा और तुम्हारा अन्त भी मेरे समान ही है। अफरासियाब के योद्धा तुम्हें नंगा कर देने में भी पीछे नहीं रहेंगे। उस समय केवल पीरान तुम्हारी सहायता को आयेगा और तुम्हें अफरासियाब से माँगकर अपने संग ले जाएगा। उसी के महल में तुम मेरे बच्चे को जन्म दोगी। कुछ दिन बाद जब खुसरू बड़ा होगा तो गिव नाम का एक पहलवान ईरान से आयेगा और खामोशी से तुम्हें और मेरे बेटे को ले जाएगा। मेरा बेटा ईरान के राजसिंहासन पर बैठेगा, मेरी इस निर्मम निर्दोष हत्या का प्रतिशोध लेगा और सारे संसार को अपने साम्राज्य में शामिल कर लेगा। उसकी सेवा और सत्ता में केवल इंसान ही नहीं बल्कि पशु-पक्षी भी नतमस्तक होंगे।‘‘


इसके बाद दर्द की पीड़ा से व्याकुल हृदय को संभालकर उसने फिरंगीस से विदा ली। उसके काँपते होंठ और पीले चेहरे पर एक अनकही यातना थी। फिरंगीस इस दृश्य को सहन न कर सकी और भावना से दीवानी हो, दुःख से अपने बाल और मुँह नोचने लगी।


सियावुश ने अपने घोड़े के कान में कुछ कहा। फिर उस पर उछलकर बैठा और रण क्षेत्र की ओर चल पड़ा। उसके साथ थोड़े-से ईरानी योद्धा थे जो जान हथेली पर लिए थे। तूरानी योद्धाओं को देखकर वे बेकाबू हो गये मगर सियावुश ने उन्हें रोका और आगे बढ़कर अफरासियाब को सम्बोधित करके बोला, “आप क्यों युद्ध के इच्छुक हैं और मेरे वध का प्रण करके क्यों आये हैं?‘‘ ।


इससे पहले कि अफरासियाब उत्तर दे, गरसिवज़ ने ललकारा-“यदि तुम निर्दोष हो तो इतने योद्धाओं के संग क्यों आये हो?‘‘


इस वाक्य से सियावुश सारी बात समझ गया और बोला-“यह सब तुम्हारा फैलाया ज़हर है। तुमने ही मुझे कहा था कि बादशाह मुझसे रुष्ट हैं।‘‘ फिर सियावुश ने अफरासियाब को सम्बोधित किया-“मेरा रक्त बहाना आपको अकारण कठिनाइयों में फँसाएगा। गरसिवज़ की बातों में आकर आप तूरान के लिए मुसीबत मोल न लें।‘‘


गरसिवज़ ने सियावुश से अफरासियाब का वार्तालाप बढ़ने नहीं दिया और कहा कि “शीघ्रता से युद्ध आरम्भ हो ताकि सियावुश को बन्दी बनाया जा सके।‘‘


इधर सियावुश अफरासियाब से सन्धि किये बैठा था। उसने न तो स्वयं हथियार उठाए; न ही योद्धाओं को म्यान से तलवारें निकालने दीं। उधर अफरासियाब ने बिना समझे युद्ध करने का आदेश दे दिया। तूरानी फौज ईरानियों पर टूट पडी। देखते-देखते ईरानी टुकड़ी का सफाया हो गया और मैदान खून से नहा गया। सियावुश का शरीर तीर से बेध दिया गया और वह धरती पर औंधा गिर गया। गवी ने उसके हाथ पीछे से बाँधे और गर्दन पर तलवार रखकर उसे घसीटता हुआ अफरासियाब के समीप लाया।


अफरासियाब ने आदेश दिया-‘‘इसका सर तन से जुदा कर दो ताकि इस जड़ से कोई भी कोंपल न फूटे। इस बियाबान तपती धरती की प्यास इसके खून से बुझा दो और लाश को फेंक दो ताकि वह बिना कफन के सड़ जाए।‘‘


यह सुनकर योद्धाओं ने विरोध में अपनी जबान खोली, “सियावुश ने आपके साथ कोई अनुचित व्यवहार नहीं किया है, फिर क्यों आप उसे मारना चाह रहे हैं? उसके वध पर सारी दुनिया खून के आँसू बहाएगी।”


पीरान के भाई पीलसम ने भी अफरासियाब को समझाया कि “अफरासियाब! यह वध करना एक पाप है। यह याद रहे आपको कि इस निर्दोष की हत्या का प्रतिशोध ईरान के शाह, रुस्तम पहलवान, अन्य वरिष्ठ पहलवान और योद्धा आपसे लेकर रहेंगे। इसलिए मेरा निवेदन है कि शाह अभी सियावुश को बन्दीगृह में रखें और इस जल्दबाज़ी से अपने को रोकें और उचित समय की प्रतीक्षा करें।‘‘



अफरासियाब पीलसम की बात सुनकर शान्त हुआ, लेकिन गरसिवज़ ने उसको भड़काते हुए कहा-“सियावुश वास्तव में चोट खाया सर्प है। उसका सर न कुचला गया तो वह अधिक हानिकारक साबित होगा। यदि आपने उसे जीवित छोड़ा तो मैं आपकी सेवा से अलग हो जाऊँगा। मैं या तो किसी गुप्त स्थान में जा छिपूँगा या फिर मृत्यु को गले लगा लूँगा।‘‘


गर्वी और दमूर ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई और बादशाह को सियावुश का साथ छोड़ने की धमकी दी और उसे सियावुश की हत्या पर उकसाया अफरासियाब दोराहे पर खड़ा चिन्ता में डूबा था कि क्या करे। यदि सियावुश को मारता है तो बुरा है, यदि छोड़ता है तो उससे भी बुरा है।


 


इस बीच फिरंगीस के पास सारा समाचार पहुँचा। जब उसने स्थिति को इतना जटिल पाया तो वह रोती हुई शाह के सम्मुख पहुँची और सियावुश की स्वतन्त्रता की भीख माँगने लगी। फिरंगीस ने अन्त में कहा कि यदि आप सियावुश का वध करवाते हैं तो ईरानी योद्धा इसका बदला अवश्य लेंगे। और सारी दुनिया आपके इस कार्य पर थूकेगी। इस लोक में आपको निन्दा मिलेगी और परलोक में नरक की ज्वाला आपको जलाकर ध्वस्त कर देगी। फिर वह सियावुश की तरफ मुड़कर उसे सम्बोधित करते हुए बोली-“जो तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार कर रहा हो, खुदा उसे कभी क्षमा न करे। काश, मेरी आँखें फूट जाती ताकि मैं तुम्हें इस तरह खून में डूबता न देखती। मैंने कब सोचा था कि पिता के कारण एक दिन मेरी माँग सूनी होगी।‘‘


अफरासियाब के सिर पर खून सवार था। उसने फिरंगीस की बातों से रुष्ट होकर आदेश दिया “इसकी दोनों आँखें फोड़ दी जायें। फिर इसे दूर जंगल में कैद कर दिया जाये ताकि इसकी आवाज किसी के कानों तक न पहुँचे।” फिर आगे कहा ‘‘सियावुश को भी ऐसे स्थान पर ले जाया जाये कि उसकी चीत्कार किसी के कान में न पड़े।‘‘


अफरासियाब का आदेश मिलते ही गरसिवज़ ने गवी को इशारा किया। वह आगे बढ़ा और उसने सियावुश की दाढ़ी पकड़ ली और उसे धरती पर घसीटने लगा। उस समय सियावुश ने इच्छा की, उसकी नस्ल से ऐसा अभिमानी पैदा हो जो उसके इस अपमान का बदला ले सके। फिर पीलसम की ओर मुँह करके उसने पीरान के लिए सन्देश दिया, “मेरा अभिवादन पीरान को देना और कहना कि तुमने एक बार कहा था कि यदि मेरा बाल भी बाँका हुआ तो तुम एक लाख पैदल सवार लेकर मेरी सहायता और रक्षा के लिए पहुँचोगे। आज मुझे गरसिवज़ ने इतना अपमानित किया है कि मेरे पास उसके वर्णन के लिए शब्द नहीं हैं। मैं आज इस स्थिति में हूँ कि मेरे लिए सांत्वना के शब्द कहने और दो बूँद आँसू बहाने वाला भी कोई अपना नहीं है।‘‘


गर्वी सियावुश के बाल घसीटता हुआ उस स्थान पर ले गया जहाँ पर कभी सियावुश और गरसिवज़ ने तीरंदाजी की थी। गर्वी ने एक सुनहरा तख्त लाने का आदेश दिया और उसे सियावुश की गर्दन के नीचे रख बकरे की तरह उसे हलाल कर दिया। सियावुश की गर्दन से खून के फव्वारे उफन पड़े। तख्त खून से भर गया। कातिल ने उस खून को वहीं धरती पर उलट दिया। थोड़ी देर बाद वहाँ से एक घास उगी जिसका नाम सियावुश पड़ गया।


‘‘जब सर्व के ऊँचे वृक्षों के उस पार क्षितिज में सूर्य अस्त हुआ तो सियावुश गहरी निद्रा में सो गया। या खुदा! यह कैसी निद्रा थी जो समय के इतने बड़े अन्तराल के बाद, वर्ष और युग बीतने के बाद भी उसने न तो करवट बदली और न उसने आँखें खोलीं।’’


हत्या की ख़बर जैसे ही फिरंगीस को मिली, उसके दिल पर बिजली गिरी। दुःख की पराकाष्ठा पर पहुँचकर उसने अपने बाल और मुँह नोचना आरम्भ कर दिया। पुष्प के समान गुलाबी मुँह खून से तर हो गया। सारे तूरान में हाहाकार मच गया। जब यह खबर अफरासियाब के पास पहुँची तो उसने आदेश दिया कि ‘‘फिरंगीस के बाल कटवा दिए जाएँ और उसके कपड़े फाड़ दिए जाएँ। उसे इतनी यातनाएँ दी जायँ कि उसके पेट का गर्भ जाता रहे। मैं नहीं चाहता हूँ कि सियावुश की नस्ल धरती पर बाकी बचे।‘‘


पीरान के पास जब सियावुश के क़त्ल का समाचार पहुंचा तो वह सिंहासन से गिरकर बेहोश हो गया। जब उसे होश आया तो दुःख की पराकाष्ठा से दीवाना हो अपने कपड़े फाड़ने लगा और मुँह पीटने लगा। सियावुश के शोक में उसकी आँखों से आँसुओं का बरसाती नाला बह रहा था और मुख से दर्दनाक शब्दों का झरना झर रहा था।


लोगों ने पीरान के पास जाकर कहा कि फौरन अफरासियाब को फिरंगीस की हत्या करने से रोको, वरना यह दुख उनकी कमर तोड़ देगा। पीरान फौरन अफरासियाब के समीप पहुँचा और उसे बुरा-भला कहा-“तुमने निर्दोष सियावुश की हत्या से अपनी ख्याति को मिट्टी में मिला दिया है। जिस पापी ने तुम्हें यह मार्ग दिखाया है, खुदा उसको गारत करे। तुम एक दिन अपने इस आचरण पर रोओगे और हाथ मलोगे। फिर भी, नरक के ईंधन से अपना दामन बचा नहीं पाओगे बल्कि खुद उसी


ईंधन में परिवर्तित हो जाओगे। सियावुश के बाद तुम अब अपने जिगर के टुकड़े फिरंगीस के वध की तैयारी कर रहे हो? तुम वास्तव में पागल हो गये हो वरना यह भयानक खूनी दृश्य कभी भी सामने न आता।‘‘


पीरान ने अफरासियाब को अन्त में कहा कि “तुम फिरंगीस को मेरी सुरक्षा में दे दो। जब उसके बच्चे का जन्म हो जाएगा तो मैं फिरंगीस को दोबारा तुम्हें लौटा दूंगा। उस समय जो चाहो वह सजा दे देना।‘‘ अफरासियाब को अन्त में पीरान की बात माननी पड़ी। उसने फिरंगीस को पीरान के हवाले कर दिया। पीरान फिरंगीस को लेकर शहर ‘खतन‘ चला गया।


पाकिस्तान के राष्ट्रपति के आखरी ख्सूम को कवर करने के लिए नई दुनिया उर्दू समाचार पत्र की तरफ से अगस्त, 1988 में पाकिस्तान जाना हुआ। साथ में ढ़ेरों पत्रकार थे। कई पत्रकार इस बात को लेकर स्टोरी तैयार कर रहे थे कि पाकिस्तान के एक गाँव या क़स्बा है जहाँ बड़े पैमाने पर हथियार बनते हैं जिसको वह आतंक से जोड़ कर देख रहे थे। उसका सिलसिला पुराना बताया जा रहा था। मेरे ज़हन में बार-बार सवाल उठ रहा था कि तब तो यह भारत का ही हिस्सा था। जब मैं 1992 में शाहनामा की दास्तानों से अनुवाद के सिलसिले से गुज़र रही थी तो जगह जगह जंग के दृश्यों में हिस्तुस्तानी तलवारों का ज़िक्र आता तो मुझे पाकिस्तान में स्थित हथियारों का वह कस्बा याद आता जिसको वर्तमान आतंक से जोड़कर पुरानी कला को देखा जा रहा था। अक्सर ख़्याल आता है जितना कम जानो उतनी गलतफहमी और जब ज़्यादा जान लो तो गलतफहमी को दूर करने का समय बीत चुका होता है।


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