दास्तान-ए-ज़हाक़ व कावेह आहंगर

शाह जमशेद की हुकूमत के आखिरी दिनों में ज़हाक़ सितमगर ने ईरान पर आक्रमण किया और ईरान का तख्त हासिल कर लिया। शाह जमशेद ईरान का एक प्रभावशाली बलवान बादशाह था। उसके राज्य में लोग खुशहाल और सुरक्षित थे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि कपड़ा बुनना और कपड़ा सिलना शाह जमशेद ही ने लोगों को सिखाया था। घर, महल और गर्माबे को उसने ही पहली बार बनाया था। पहली बार उसने दरिया में नाव डाली थी और उसी ने लोहे को गर्म करके औजार बनाना सिखाया था। शाह जमशेद ने लोगों के साथ नेकी और नई चीजों का आविष्कार करके जीवन को सुखमय और संसार को पहले से ज़्यादा सुन्दर बनाया था।


जब शाह जमशेद का प्रभाव अपनी ऊँचाइयों पर पहुँच गया, तो उसका दिमाग खराब हो गया। उसके व्यक्तित्व में विस्तार तो था मगर गहराई नहीं थी जिससे वह इन गुणों की महिमा को अपने में समा सके। एक दिन उसने उसी उत्तेजना की हालत में बुद्धिमानों और बुजुर्गों को अपने इर्द-गिर्द जमा किया और कहा कि मेरे अलावा इस संसार में कोई दूसरा बादशाह नहीं है। संसार में हुनर की शुरूआत मैंने की है, जिससे यह संसार रहने के क़ाबिल बना है। तुम्हारा यह सुख-चैन मेरी खोजों का नतीजा है। संक्षेप में, मैंने जब यह सब रचा है, तो मुझे इस दुनिया को सँवारने वाला स्वीकार करो।”


‘‘शाह जमशेद का घमण्ड से यों फूल जाने और अपने को संसार का रचयिता समझने की गलती से लोगों का मन उसकी तरफ से हट गया और भाग्य भी रूठ गया। धीरे-धीरे जनता में विरोधी स्वर फूटने लगे। उसके प्रभाव और सम्मान में कमी आने लगी। शाह जमशेद का पछतावा या सुधार भी लोगों के दिल व दिमाग को बदलने में समर्थ नहीं थे, क्योंकि तीर तरकश से निकल चुका था। जनता ने बग़ावत पर क़मर कस ली थी।


शाह ज़हाक़ एक ज़ालिम बादशाह था। जब उसने शाह जमशेद की जनता के प्रति लापरवाही की खबरें सुनी तो उसने ईरान पर आक्रमण कर दिया।


ज़हाक़ का पिता मरदास, एक इंसाफ-पसन्द नेक दिल सरदार था। एहरिमन एक शैतान था जिसका काम सिर्फ संसार में कलह व दुःख फैलाना था। उसने ज़हाक़ को बहकाने के लिए अपनी क़मर कस ली। एहरिमन ने अपनी शक्ल एक नेक आदमी में बदली और बड़ी शराफत व नम्रता के साथ ज़हाक़ के यहाँ पहुँचा और उसकी प्रशंसा के मीठे गीत रात-दिन उसके कान में इस तरह से गुनगुनाए कि ज़हाक़ उस नेकमर्द पर फिदा हो गया।


 



  1. कावेह आहंगर: लोहार।


जब एहरिमन ने देखा कि उसका प्रभाव ज़हाक़ पर अपनी जड़ें जमा चुका है, तो उसने एक दिन बड़ी सादगी से कहा: “ऐ ज़हाक़! मेरा दिल कहता है कि मैं तुमको अपने भेद में भागीदार बनाऊँ। मगर पहले सौगन्ध खाओ कि मेरा यह भेद किसी को नहीं बताओगे।‘‘ ।


ज़हाक़ ने सौगन्ध खाकर एहरिमन को विश्वास दिलाया। जब एहरिमन को पूरा इत्मीनान हो गया तो वह ज़हाक़ के कान में धीरे से फुसफुसाया: यह तुम कैसे जवान हो जो तुम्हारी जगह तुम्हारे बूढ़े पिता तख़्तेे शाही पर बैठे हैं। क्यों देर कर रहे हो। अपने पिता को बीच से हटा दो और खुद बादशाह बन जाओ। उस समय यह राजमहल, यह फ़ौज, यह ख़जाना सबके तुम अकेले मालिक होगे।


ज़हाक़ एक खाली दिमाग जवान था। इस तरह की बातें सुनकर दिल भी उसके हाथ से जाता रहा। बाप की हत्या करने के षड्यन्त्र में वह एहरिमन का साथी बन गया, मगर उसको तरक़ीब पता नहीं थी कि आखिर वह कैसे पिता को खत्म करे। उसकी परेशानी देखकर एहरिमन ने उसका कन्धा थपथपाया और कहा: ‘दुखी मत हो। तरक़ीब बताना मेरा काम है।‘


मरदास के पास एक बेहद खूबसूरत बाग़ था। रोज सूरज निकलने से पहले वह उस बाग़ में जाकर इबादत करता था। एहरिमन ने मरदास के जाने वाले रास्ते पर बाग़ के बीच में एक कुआँ खुदवाकर उसे घास-फूस से ढक दिया। दूसरे दिन जब मरदास इबादत के लिए बाग़ में गया, तो उस कुएँ में गिरकर मर गया। उसकी मौत के बाद ज़हाक़ को शाही तख्त पर बिठाया गया।


जब ज़हाक़ बादशाह बन गया, तो एहरिमन ने अपने को एक बुद्धिमान तेजस्वी जवान की शक्ल में बदला और शाह ज़हाक़ के पास पहुँचकर बोला: मैं कलाकार हूँ। एक ऐसा कलाकार जो शाही व्यंजनों की तैयारी में अपना जबाब नहीं रखता।


शाह ज़हाक़ ने उसको खाना पकाने और दस्तरख्वान सजाने का काम सौंप दिया। एहरिमन ने तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन पिरन्दों व चैपायों से बनाकर शाह के सामने इतनी खूबसूरती से सजाये कि ज़हाक़ बेहद खुश हुआ। प्रत्येक दिन पहले से अधिक स्वादिष्ट भोजन बड़े सलीके से ज़हाक़ को परोसा मिलता! चैथे दिन जब शाह ज़हाक़ का पेट खाने से सेर हो चुका तो उसने खुश होकर उस रसोइये से कहा: “जो इच्छा रखते हो, मुझसे कह दो।‘‘


एहरिमन तो इसी अवसर की तलाश में था। फौरन बोल पड़ा: “शाह! मेरा दिल आपकी मोहब्बत से भरा हुआ है। आपसे सिर्फ खुशी के अलावा मुझे कुछ नहीं चाहिए। सिर्फ एक इच्छा रखता हूँ कि यदि आप आज्ञा दें, तो अपना सम्मान आपके प्रति प्रकट करने के लिए मैं आपके इन दोनों कन्धों को चूम लूँ।‘‘


ज़हाक़ ने आज्ञा दे दी। एहरिमन ने शाह के दोनों कन्धों का चुम्बन लिया और एकाएक अदृश्य हो गया। उसके होंठों ने शाह के कन्धों पर जहाँ चुम्बन लिया था। वहाँ दो काले नाग उग आए। जो हरदम अपनी जबान से शाह की खोपड़ी चाटते रहते थे। उन साँपों को जड़ से काट डाला गया, मगर फिर वे कन्धों पर उग आए। वैद्य हक़ीम हर तरक़ीब करके हार गए, मगर कोई फायदा नहीं हुआ। जब सारे हक़ीम थक गए तो एहरिमन भेष बदलकर हकीम के रूप में ज़हाक़ के पास पहुँचा और बोला:


‘‘इन साँपों को जड़ से काटने का कोई लाभ नहीं है। सिर्फ इंसानी दिमाग़ ही इनको खत्म करने में सहायक साबित होगा। साँप बादशाह को न काटें इसके लिए जरूरी है कि हर दिन दो इंसानों के ताजे दिमाग से इनके लिए भोजन तैयार किया जाए। शायद इसी दवा से साँप अपने आप मर जायेंगे।’’



शैतान यानी एहरिमन इंसानियत का दुश्मन यही चाहता था कि किसी भी तरह दुनिया में अमन-चैन न रहे। इस दवा के ज़रिये इंसानों की संख्या घटते-घटते एक दिन बिल्कुल खत्म हो जायेगी। उस दिन उसके लिए खुशी का दिन होगा।


यही वह समय था जब जमशेद अपने गुणों पर इतराया था और घमण्ड में अन्धा होकर उसने अपने को खुदा कहा और अपनी किस्मत और जनता को नाराज कर दिया। ज़हाक़ ने मौके से फायदा उठाया और ईरान पर हमला कर दिया। ईरानी जो इस बात की तलाश में थे कि कैसे जमशेद से पीछा छुड़ाएँ, वे एकाएक ज़हाक़ की ओर आशा से देखने लगे।


‘‘ईरान के सारे सिपाही भी ज़हाक़ की ओर आकर्षित हो गए और उसको ईरान का बादशाह कहकर उसका स्वागत करने लगे।’’


इधर जमशेद का बुरा हाल था। उसने अपना सब कुछ ज़हाक़ के हवाले कर दिया। क्योंकि अरब एवं ईरानी दोनों फ़ौजें उसके विरोध में एक साथ खड़ी थीं। वह बादशाह जो सौ साल तक किसी की ओर नज़र उठाकर नहीं देखता था, वही आज लोगों की नजरों से ओझल हो गया।


‘‘ज़हाक़ जब शाही तख्त पर बैठा तो उसकी बादशाहत हजार साल तक चलती रही।’’


जमशेद ने जान छुड़ाने के चक्कर में ईरानियों ने जो कदम उठाया था, उसने साबित कर दिया कि वे पहले से भी बुरी हालत में पहुंच गए हैं। ज़हाक़ ने जुल्म व सितम का बाजार गर्म कर दिया। कोई भी भलाई और नेकी का काम नहीं होता था।


जमशेद की दो बहनें थीं। एक का नाम शहरनाज़ और दूसरी का नाम अरनबाज़ था। दोनो को ज़हाक़ ने जबरदस्ती अपने पास बुलाया। दोनों शहज़ादियाँ काँपती हुई उस साँप वाले बादशाह के पास पहुँची। ज़हाक़ के पास कड़वी जबान थी और उसका काम कत्ल, गारतगरी और आतशज़नी थी। उसमें एक काम यह भी शामिल था कि-


‘‘रोज रात को पहलवानों की नस्ल से दो जवान लाए जाते। जिनको शाही रसोइया महल में ले जाता और शाह की बीमारी दूर करने की दवा उनको मारकर उनके भेजे से बनाता था, जिसको दोनों अजदहे रात को खाते थे।’’


शाह के देश के दो सदाचारी आदमी थे। एक का नाम अरमायल था और दूसरे का करमायल था। जब वे आपस में मिले तो ज़माने भर की बातों के बाद-शाह ज़हाक़ के जुल्म और शाही फ़ौज के अत्याचार के साथ दो इंसानों के दिमागों से बने भोजन का भी ज़िक्र आया। दोनों दुःखी होकर तरक़ीबें सोचने लगे कि किस तरह इस मुसीबत से लोगों को मुक्ति दिलाई जाए।


बहुत सोचने के बाद उनको एक तरकीब समझ में आई कि वह शाह के पास हाज़िर हो कर अपने को शाही व्यंजनों का रसोइया बताएँ। जब उनको शाह नौकरी पर रख लें तो वह दो जवानों को मारने की जगह एक को मारें और दूसरे को आज़ाद कर दें। इस तरह से वह एक इंसान को मरने से बचा सकते हैं और उसकी जगह भेड़ का भेजा इंसान के भेजे के साथ पकाकर साँपों को खिला दें।


जब यह दोनों सदाचारी शाही रसोई तक पहुँच गए तो उन्होंने अपना कार्यक्रम आरम्भ कर दिया और हर महीने तीस जवानों को मरने से बचाने लगे। धीरे-धीरे । लोगों के मन में ज़हाक़ के लिए नफ़रत बढ़ने लगी। उनका गुस्सा इस बात पर भी था कि वह शाह की बेटियों को बिना विवाह के महल में रखे हुए हैं।


‘‘जब चालीस साल उसकी हुकूमत के बचे तो देखो, उस समय खुदा ने उसको कौन से दिन दिखाए।’’


एक दिन ज़हाक़ अरनबाज़ के साथ अपने बिस्तर पर सोया था कि उसने सपना देखा कि तीन योद्धा उसकी तरफ बढ़ रहे हैं। उसमें सबसे छोटे ने जो सबसे ज़्यादा ताकतवर नज़र आ रहा था, अपनी गदा से उसके सिर पर वार किया। उसके बाद उसका हाथ चमड़े के फीते से बाँधा और उसे खींचता हुआ दमाबन्द पर्वत की तरफ ले गया। उसके पीछे लोगों की बहुत बड़ी भीड़ चल रही थी। ज़हाक़ एकाएक सपने से चैंककर उठ बैठा और इतनी भयानक चीखें मारने लगा कि महल के खम्भे तक थर्रा उठे।


अरनबाज़ तो उसके पास मौजूद थी। वह ज़हाक़ के इस तरह भयभीत होकर चीखने का कारण पूछने लगी। ज़हाक़ के मुहँ से सपने के बारे में सुनकर उसने राय दी कि शाह को देश के कोने-कोने से ज्योतिषियों को बुलाकर उनसे इस सपने का अर्थ जानना चाहिए।


ज़हाक़ ने वैसा ही किया। जब सपने का अर्थ बताने वाले बुद्धिमान जमा हो गए तो ज़हाक़ ने अपना सपना कह सुनाया। सुनकर सब चुप रह गए। आखिर एक निडर ज्योतिषी ने कहा-शाह! यह सपना तो यह बताता है कि आपकी बादशाहत के दिन अब बहुत कम रह गए हैं। आपकी जगह अब इस तख़्त पर कोई दूसरा राजा बैठेगा। उस राजा का नाम फ़रीदून होगा जो एक बड़ी गदा से आप पर आक्रमण करेगा और आपको कारावास में डाल देगा।


इन बातों को सुनकर ज़हाक़ बेहोश हो गया। जब होश में आया तो उसने इस समस्या का समाधान ढूँढ़ना आरम्भ किया। सबसे पहले उसने हुक्म दिया कि देश भर में फरीदुन नाम के जितने भी लोग हों, उनको पकड़कर लाया जाए और उसके बाद उसने चैन की साँस ली।


 


ईरान में ‘आतवीन‘ नाम के एक आदमी का रिश्ता ईरान के पुराने शाह तहमूरस देवबन्द से था। उसकी पत्नी का नाम फरांक था। उसके दो पुत्र थे जिनमें से एक का नाम फरीदुन था। उसका चेहरा भी शाही खानदान की तरह शानदार था।


एक दिन शाह के आदमी साँप के भोजन के लिए जवान ढूँढ़ रहे थे। एकाएक उनकी नजर आतबीन पर पड़ी। वह उसको पकड़कर ले गए। बेचारी फरांक शौहर के बिना रह गई। जब उसने सुना की ज़हाक़ की तबाही फरीदुन नाम के युवक के हाथों होगी, तो वह बुरी तरह भयभीत हो उठी। फरीदुन जो अभी नवजात शिशु था। उसको फरांक ने गोद में उठाया और चरागाह की तरफ चली गई! चरागाह के मालिक के पास दूध देने वाली एक गाय थी। उसके पास पहँचकर फरांक ने अपनी दुःख भरी कहानी उसे सनाई और कहा कि वह फरीदुन को अपने बेटे की तरह पाले और इसकी सुरक्षा के लिए बेहतर है कि उसको गाय के दूध पर ही पाले। चरागाह के शरीफ मालिक ने फरीदुन को पालने की ज़िम्मेदारी कबूल कर ली।


चरागाह के रखवाले ने तीन साल तक फरीदुन की भली-भाँति देख भाल की। मगर यह भेद/ज़हाक़ से छुपा नहीं रह सका कि फरीदुन नाम के एक बच्चे की देखभाल एक दुधारू गाय कर रही है। जिसके थन मोर के परों के रंग के है जिससे निकला दूध पीने वाला मगरमच्छ की तरह बलवान बन जाता है। ज़हाक़ ने अपने गुमाश्तों को भेजा कि वह फरीदुन को पकड़कर लाएँ। जैसे ही फरांक को इस बात का पता चला, वह भागती हुई चरागाह गई और वहाँ से फरीदुत को उठाकर सहरा की तरफ भागी और दमाबन्द पहाड़ की ओर निकल गई।


अलबुर्ज पर्वत पर एक सदाचारी का घर था। फरांक ने फरीदुन को उसे सौंपते हुए कहा कि ए नेक मर्द! इस लड़के का बाप ज़हाक़ के साँपों का भोजन बन चुका है। यह लड़का फरीदुन एक दिन ज़हाक़ की मौत का सबब बनेगा। मेरी विनती है कि आप इसको अपने बेटे की तरह पालें। संसार के सारे झंझटों से दूर, तनहा जीवन व्यतीत करने वाले उस सदाचारी ने यह ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली।


 


कई वर्ष गुज़र गए। फरीदुन धीरे-धीरे बड़ा होता चला गया और कुछ दिन बाद एक लम्बे क़द के मजबूत जवान में ढल गया। लेकिन यह नहीं जानता था कि वह किसका पुत्र है। जब वह सोलह साल का हुआ तो, एक दिन पहाड़ से उतरकर मैदान की तरफ आया और सीधे माँ के पास पहुँचकर पूछने लगा कि आखिर मेरे बाप का नाम क्या है?


उसकी माँ फरांक ने फरीदुन के सामने भेद को खोलते हुए कहा कि बेटे! तुम्हारा बाप एक आजाद इंसान था। वह ईरानी था और कियानि नस्ल का था। ‘‘उसके खानदान का सिलसिला शाह तहर्मस से था। वह बुद्धिमान और सदाचारी था। किसी को कभी दुःख नहीं पहुँचाता था। एक दिन शाह के आदमी उसको पकड़ ले गए ताकि उसका भेजा निकाल कर उससे ज़हाक़ के साँपों का भोजन तैयार किया जा सके बस, उस दिन से मैं बिना शौहर की और तू बिना पिता का हो गया।


फरांक ने फरीदुन को दूसरा भेद बताते हुए आगे कहा कि सपने का अर्थ बताने वाले जयोतिषियों ने ज़हाक़ को बताया कि एक दिन फरीदुन नाम का लड़का उसके विरोध में खड़ा होगा और अन्त में ज़हाक़ को खत्म कर देगा। सपने का यह अर्थ जानकर ज़हाक़ आतंकित हुआ और वह तेरी जान के पीछे पड़ गया। मैंने तुम्हें चरागाह के मालिक के पास छुपाया। मगर इसकी खबर ज़हाक़ तक पहुँच गईं उसने उस गाय को मरवा डाला और हमारा घर बर्बाद कर दिया। मैं तुम्हें वहाँ से लेकर अलबुर्ज पहाड़ की तरफ भागी और वहाँ उस बूढ़े सदाचारी को तुम्हारी ज़िम्मेदारी सौंप आई। इतना कहकर फरांक चुप हो गई।


इतनी दर्दनाक कहानी सुनकर फरीदुन के मन में नफ़रत की आग भड़क उठी। उसका खून जोश मारने लगा। उसने माँ से कहा-“माँ, जब ज़्ाहाक़ ने हमें बरबाद कर ही डाला है और ईरानियों के खून का प्यासा है, तो फिर मैं इसको ज़िन्दा नहीं छोडूंगा। हाथ में तलवार उठाऊँगा और सीधा राजमहल पहुंचकर उसको खाक़ खून में डूबो दूंगा।‘‘


फरांक ने बेटे को शान्त करते हुए कहा-“मेरे बहादुर बेटे! यह समझदारी की निशानी नहीं है। तुमने अभी दुनिया देखी नहीं है। ज़हाक़ ज़ालिम और ताक़तवर है और उसके पास हजारों सिपाही हैं। जब भी वह चाहेगा एक लाख फ़ौजी उसकी सेवा में हाज़िर हो जाएँगे। जवानी के जोश में नादानी मत दिखाओ। माँ की बात गिरह में बाँध लो कि जब तक इस समस्या के


समाधान की कोई ‘तरक़ीब समझ में न आए, तब तक तलवार हाथ में मत उठाना।


इधर ज़हाक़ फरीदुन के खयाल से हरदम भयभीत रहता और बेख़्याली और घबराहट में कई बार उसके मुँह से फरीदुन का नाम निकल जाता। ज़हाक़ को मालूम था कि फरीदुन जिन्दा है और उसके खून का प्यासा है, मगर वह कहाँ छुपा है, इसका पता ज़हाक़ को नहीं था। इसी उलझन और परेशानी में उसके दिन गुज़र रहे थे।


एक दिन ज़हाक़ ने बारगाह सजाने को कहा और स्वयं हाथी दाँत के तख़्त पर बैठा। सर पर फीरोजे का ताज रखा और हुक्म दिया कि शहर के इबादत करने वाले सभी लोगों को हाज़िर किया जाए। जब ये सारे पुजारी शाह ज़हाक़ के सम्मुख पहुँचे, तो उसने उनकी तरफ चेहरा घुमाकर कहा कि “क्या तुम लोगों को पता है कि एक जवान मेरी जान का प्यासा हो रहा है। मेरे तख़्त व ताज को उलटने के पीछे लगा है। कहने को जवान है, मगर बहुत ताक़तवर और दिलेर है। मेरी जान को हमेशा उस जवान से ख़तरा लगा रहता है। मुझे इस भय से मुक्त होने का कोई रास्ता निकालना पड़ेगा। इसलिए आप लोगों की लिखित गवाही मुझे चाहिए कि मैं एक दयावान, न्यायप्रिय, क्षमादान करने वाला, जनता-प्रेमी शाह हूँ। जब तक कोई दुश्मन मुझे हानि पहुँचाने की नीयत से मेरी तरफ नहीं देखता, तब तक मैं सच्चाई और नेकी के गुणों से भरे रास्ते को नहीं छोड़ता। आप सबसे प्रार्थना है कि आप मेरे गुणों को लिखित गवाही अपने हस्ताक्षरों के साथ दें।‘‘


शाह ज़हाक़ की बात सुनकर धार्मिक, बुद्धिमान, सदाचारी जो भी बड़े-बड़े व्यक्ति वहाँ मौजूद थे, उन्हें साँप सूंघ गया। उन्हें मालूम था कि ज़हाक़ एक क्रूर राजा है। उसकी आज्ञा से इंकार करने का क्या हाल होगा उन्हें यह पता था, लेकिन कोई दूसरा चारा न देखकर सबने अपनी लिखित गवाही देना स्वीकार कर ली।


एकाएक दरबार के दरवाज़े पर तेज़ शोर उठा और एक आदमी न्याय की दुहाई देता हुआ सीधा शाह के सम्मुख आन खड़ा हुआ और बोला-“शाह! मैं कावेह आहंगर (लोहार) हूँ। आपसे न्याय की भीख माँगने आया हूँ। अगर आपका काम न्याय देना है, तो थोड़ा-सा न्याय मेरी झोली में भी डाल दें, क्योंकि मैंने आपके कारण बहुत दुःख उठाए हैं। यदि आप इंकार करते हैं कि आपने मुझ पर कोई अन्याय नहीं किया है, तो बताएँ कि मेरे बेटों को मुझसे क्यों छीना गया?‘‘


‘‘मेरे अट्ठारह लड़के थे जिसमें से यह आखिरी लड़का बचा है। इसको जीवन-दान दे दें, क्योंकि मैं पहले ही हर बेटे का जख्म खाया हुआ हूँ। मैं एक बेजबान लोहार हूँ जिस पर शाह के हाथों यह मुसीबत आन पड़ी है।’’


काबेह लोहार ने रोते हुए कहा-“शाह! आप तो सात देशों के शहंशाह है फिर यह सारे दुःख हमारे भाग्य में क्यों आए? आप मेरा गुनाह बताएँ कि मुझे यूँ एक-के-बाद एक दर्द से तड़पने की सज़ा क्यों दी जा रही है। आपको न्याय देना होगा। मेरे आखिरी बेटे की मौत के मुँह से छुड़ाना होगा।‘‘


शाह ज़हाक़ ने बड़े दयालु अन्दाज से कावेह लोहार को देखा और चेहरे पर दुःख के भाव लाया और मन-ही-मन इस लोहार की दिलेरी पर आश्चर्य करते हुए कोई तरकीब सोचने लगा। फिर उसने बड़ी नम्रता से लोहार को दिलासा दिया और सिपाहियों को हुक्म दिया कि फौरन इसके बेटे को रिहा कर दें। सिपाही शीघ्रता से गए और उस लोहार के बेटे को लेकर वापस आए और बाप के हवाले कर दिया। कावेह आहंगर बेटे को देखकर सारा दुःख भूल गया।


अकस्मात ज़हाक़ ने कावेह लोहार से कहा कि देखा तुमने मेरा न्याय? अब तुम दयावान, नेकदिल शाह होने की गवाही इन बुद्धिमानों की तरह लिख दो। कावेह लोहार ने घृणा से भरकर प्रताड़ना भरी फटकार सारे उपस्थित धार्मिक जनों एवं बुद्धिमानों को सुनाई “ओ कायर हृदयहीन लोगो! तुमने अपनी जान की कीमत पर अपना नरक़ खरीदा है। इस ज़ालिम के भय से तुम सबने ग़लत गवाही दे दी, लेकिन यह काम मैं हरगिज़ नहीं करूँगा।” इतना कहकर वह काँपता हुआ उठा और उस गवाही को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दिए और बेटे को लेकर दरबार से बाहर निकाल गया।


कावेह लोहार ने अपनी कमर पर बंधा चमड़े का वह टुकड़ा जो आग की चिंगारी से बचाव के लिए बाँधता था, खोला और उसको अपने भाले पर लगाकर उससे पताका बनाई और बाजार की तरफ गया और चैराहे पर खड़ा होकर जनता को


सम्बोधित करने लगा-“सुनो लोगो! साँपों वाला ज़हाक़! एक अत्याचारी दुष्ट बादशाह है। उससे छुटकारा पाने के लिए उठो और चलो मेरे साथ ताकि फरीदुन आए और इस अपवित्र दैत्य से हमें छुटकारा दिलाए।‘‘


यह ललकार हर खासो-आम के मन की इच्छा थी। जिसने सुनी वही कावेह लोहार के पीछे हो लिया। सभी के दिलों में ज़हाक़ की नफरत का ज्वालामुखी धधक रहा था। कावेह को फरीदुन के रहने की जगह पता थी। वह जुलूस लेकर उसी तरफ गया ताकि अपने नये हाकिम के नेतृत्व में यह फ़ौज ज़हाक़ के विरोध में युद्ध शुरू करे।


फरीदुन ने ऊपर से जो नीचे नज़र डाली तो सामने लोगों का समन्दर अपनी तरफ आते देखा। नारे लगाने वालों में सबसे आगे कावेह आहंगर (लोहार) चमड़े का झण्डा लेकर चल रहा था। उसी निशान को फरीदुन ने अपने लिए मुबारक़ जाना और उसके पास पहुँचकर उसने अत्याचार सहने वाली जनता का दुःख-दर्द सुना। फिर फरीदुन ने उनसे कहा कि इस चमड़े के झण्डे को रोम की दीबा और हीरे-जवाहरात से सजाकर इसका नाम ‘काबियानी पताका‘ रखा जाए। इतना कहने के बाद वह लौटा और उसने जिरह-बख़्तर पहन, कमर पर तलवार कसी और सीधे फरांक के पास पहुँचा और बोला:


“माँ! प्रतिशोध का समय आ गया है। मैं रणक्षेत्र की ओर जा रहा हूँ ताकि ज़हाक़ के जुल्म के इस किले को ध्वस्त कर दूँ। आप खुदा पर भरोसा रखें। डरने की कोई बात नहीं है। खुदा हमारे साथ है।‘‘ फरांक की आँखें बेटे की बातें सुनकर आँसुओं से भर गईं। उसने बेटे को खुदा की शरण में दिया।


फरीदुन के दो बड़े भाई और थे। उनके पास फरीदुन गया और उनसे कहने लगा: भाई! हमारे सर उठाने का समय आ गया है और ज़हाक़ के अस्तित्व के मिटने की घड़ी आन पहुँची है। इस संसार में जीत तो अन्त में नेकी की होती है। यह काबियानी राज सिंहासन हमारा है और हमको वापस मिलेगा। अभी मैं ज़हाक़ से युद्ध करने जा रहा हूँ। आप लोग लोहे और लोहार का इन्तजाम करें ताकि मेरे लिए एक बड़ी और मजबूत गदा तैयार हो सके।


दोनों भाई लोहारों के मोहल्ले की तरफ गए और देख-भालकर सबसे बढ़िया काम करने वाले लोहारों के फरीदुन के पास ले आए। फरीदुन ने जमीन पर, एक गदा की तस्वीर जो गाय के मुख के आकार से मिलती थी, खींची। उसी को देखकर लोहारों ने गदा गढ़ना शुरू कर दिया।


जब गाय के मुख की शक्ल वाली गदा तैयार हो गई तो उसको लेकर फरीदुन घोड़े पर बैठा और उस जन-समूह का नेतृत्व करने लगा जो ज़्ाहाक़ के विरोधी थे। ईरानियों का यह जन-समूह पल-पल संख्या में बढ़ रहा था। फरीदुन ज़हाक़ के राजमहल की तरफ इस विरोधी समन्दर के सँग बढ़ा। चलते-चलते शाम हो गई। रात के अन्धेरे में एक स्वर्ग की अप्सरा सुगन्ध से लिपटी हुई उस फौजी पड़ाव में दाखिल हुई और सीधे फरीदुन के सम्मुख प्रकट हुई। उसकी शक्ल देखकर फरीदुन ने सोचा, कहीं यह शैतान तो नहीं है। मगर जब उस परी ने ज़हाक़ को मारने की तरकीब बताई, तो वह समझ गया कि यह खुदा का भेजा फरिश्ता है और मेरे लिए नेक शगुन है।


थोड़ी देर बाद रसोइया स्वादिष्ट खाने का थाल फरीदुन के पास ले आया, जिसको बड़े चाव से भरपेट फरीदुन ने खाया। खाते ही उसको नींद ने आ दबोचा और वह गहरी नींद में सो गया। फरीदुन के दोनों बड़े भाई यह अवसर पाकर सीधे ऊँचाई पर चढ़कर बड़ा पत्थर लुढ़काने लगे ताकि वह ऊपर से


सीधे फरीदुन के सर पर गिराकर उसका काम तमाम कर दे। मगर पत्थर ठीक फरीदुन के सर के पास जाकर गिरा और वहीं अटक गया। उस धमाके की आवाज से घबराकर फरीदुन जाग गया। उसने इस घटना की चर्चा किसी से भी नहीं की।


सुबह होते ही वह दज़ला नदी की तरफ चल पड़ा। नदी किनारे पहँच कर उसने मल्लाहों को आज्ञा दी कि वह अपनी नावें और किश्तियाँ लेकर हाजिर हों ताकि फौज नदी के पार उतर सके। मल्लाहों के सरदार ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा कि बिना शाह ज़हाक़ के आज्ञा-पत्र के वह ऐसा नहीं कर सकता। यह सुनकर फरीदुन को क्रोध आया। वह घोड़े पर बैठा और पानी पार करने लगा। उसको देखकर सारे सिपाही अपने-अपने घोड़े के साथ नदी पार करने लगे। उनके कंधे और सर पानी में डूब रहे थे। यह देखकर मल्लाह दूर हट गए और कुछ ही देर में सारे सिपाही नदी के उस पार पहुंच गए।


जब वे बगदाद शहर के समीप पहुँचे तो, मील भर दूर से उन्हें गगनचुम्बी महल नजर आया, जो किसी नयी दुल्हन की तरह सजा हुआ था। समझने में देर नहीं लगी कि यह ज़हाक़ सितमगर का ही महल है। सारा लश्कर उसी महल की ओर फरीदुन के पीछे-पीछे चल पड़ा। पता चला कि शहर में ज़हाक़ जालिम मौजूद नहीं है। महल के दरबान दैत्यों की तरह रास्ता रोककर खड़े हो गए। फरीदुन ने अपनी गदा के वार से दरबानों को मार गिराया और अन्दर दाखिल हुआ। उसी तरह से आगे बढ़ता रहा। आखिर वह ज़हाक़ के तख्त के करीब पहुंच गया। तख़्ती खाली था। फरीदुन ने तख्त पर कब्जा कर लिया और उस पर बैठ गया। इस तरह से सारे सिपाही पूरे महल में फैलकर अपने-अपने आसन पर जम गए।


इसके बाद फरीदुन ज़हाक़ के हरम में दाखिल हुआ जहाँ पर ज़हाक़ ने शाह जमशेद की बहनों शहरनवाज और अरनवाज को कैद कर रखा था। वे दोनों ज़हाक़ से भयभीत मौत के समीप पहुँच गई थीं। उनको फरीदुन ने आजाद किया और बाहर निकाला। शाह जमशेद की दोनों बहनें खुशी के मारे रोने लगी और कहने लगी कि हम वर्षों से ज़हाक़ की कैद में थे। उसके साँपों ने हमकों बहुत परेशान किया। खुदा का हजार शुक्र है कि आपने हमें उस सितमगर के पंजे से आज़ाद कर दिया।


फरीदुन ने उन दोनों शहज़ादियों से कहा कि वह दोनों अब अपने को ज़हाक़ द्वारा दिये गए दुःखों से पाक करें और इत्र व अम्बर से बसे लिबासों और जवाहरात से अपने को सजाएँ। अब उनके दुःख के दिन दूर हो चुके हैं। .


फरीदुन जब तख्त पर बैठा तो उसने एक तरफ शहरनबाज को बिठाया, और दूसरी तरफ अरनवाज को और कहा कि वह जल्द से जल्द ईरान से ज़हाक़ का वुजूद उखाड़ फेंकेगा। इस ज़ालिम ने उस बेजुबान गाय को मरवा डाला था, जिसका दूध पीकर मैं बड़ा हुआ था। वास्तव में वह गाय मेरी माँ थी। मैं आतवीन का बेटा हूँ और मेरा प्रण है कि:


‘‘उसका चेहरा उसी गाय के चेहरे वाली गदा से कुचल दूंगा। न उसको क्षमा करूँगा और न ही उस पर तरस खाऊँगा।’’


ये बातें सुनकर अरनवाज़ ने अपने दिल की बात कहने में कोई झिझक महसूस नहीं की। और निडर होकर कहा कि:


‘‘ज़हाक़ की समाप्ति आपके हाथों ही लिखी है। इसके प्रभाव को उखाड़ना आपके ही बस की बात है। ’’


अरनवाज़ की इच्छा सुनकर फरीदुन ने उसको विश्वास दिलाते हुए कहा कि वह उस अपवित्र साँपों वाले ज़ालिम को मारकर इस संसार को उसके आतंक और अत्याचारों से जरूर मुक्त कराएगा। मगर अरनबाज़ को बादशाह का पता बताना पड़ेगा कि वह आखिर हैं कहाँ?


शहरनवाज और अरनबाज ने फरीदुन की बात सुनकर ज़हाक़ का भेद खोल दिया और बताया कि “वह हिन्दुस्तान की तरफ गया हुआ है। उसको फरीदुन द्वारा मारे जाने का भय सताए हुआ था कि इसी बीच उसको किसी ज्योतिषी ने बताया है कि अगर तुम्हारा सर और बदन खून से धो दिया जाए, तो उस सपने का अर्थ बदल जाएगा, ज्योतिषी झूठा साबित होगा और तुम पर से मनहूस साया हट जायेगा। स्वयं ज़हाक़ के लिए अब यह धरती भारी पड़ रही है। उसके दोनों कन्धे के साँप उसे कहीं चैन नहीं लेने देते और साँपों के खाने के लिए हजारों लोगों के खून से अपने हाथ रँगने पड़ रहे हैं, जिसके लिए उसको एक मूल्क से दूसरे मुल्क की ओर जाना पड़ता है।‘‘


ज़हाक़ का एक वफादार नौकर था जिसका नाम ‘कन्दवर‘ था। जहाक़ ने जाते हुए अपने ख़जाने की कुंजी, राजमहल की ज़िम्मेदारी उसको सौंपी थी। कन्दवर राजमहल की तरफ दौड़ा आया। महल में पहुँचकर उसने देखा कि राजसिंहासन पर तो एक सजीला जवान बादशाह बना बैठा है। जिसके एक तरफ शहरनवाज और दूसरी ओर अरनवाज बैठी हैं। पूरा शहर फौज से भरा हुआ है और यहाँ भी हथियारबन्द सिपाही क़तार से खड़े हैं। कन्दवर ने किसी से कुछ न कहा, न सुना, न आश्चर्य प्रकट किया बल्कि बिना मुँह से कुछ बोले अन्दर गया और चुपचाप फरीदुन के समीप जाकर सम्मान से झुका और आदर के साथ उसने कहा: “शाह! आप ही इस सात देशों के शहनशाह बनने के काबिल हैं।‘‘


फरीदुन ने उसको महफिल सजाने का हुक्म दिया। कन्दवर ने सारा बन्दोबस्त कर दिया, जिसका हुक्म फरीदुन ने उसको दिया था। गायकों ने तान उठाई और साक़ी ने जाम भरे। वातावरण खुशी से झूम उठा। फरीदुन भी प्रसन्नता से शराब के घूट भरने लगा।


जैसे ही सुबह का तारा डूबा, कन्दवर घोड़े पर सवार हुआ और तेजी से ज़हाक़ की तरफ लपका। वहाँ पहुँचकर उसने जो देखा था वह ज़हाक़ को कह सुनाया कि “ए शाह! आप यहाँ पर बैठे हैं और तीन जवान एक लम्बी फौज के साथ ईरान से बगदाद पहुंच गए हैं। उनमें से सबसे छोटे लड़के का मुखमण्डल एक विचित्र तेज से प्रकाशमान है। उसके पास एक गदा है और वह पहाड़ों को भी उखाड़ने का बल रखता है। वह इस तरह हाकिम बना आपके तख्त पर बैठा है जैसे कि हाथ बाँधे सारे दरबारी, बुद्धिमान और सिपाही उसके आज्ञाकारी बन चुके हैं!‘‘


ज़हाक़ ने कन्दवर की बात सुनकर बड़ी लापरवाही से जवाब दिया कि हो सकता है कि वह अतिथि हो और उसकी आवभगत में आँखें बिछाई जा रही हों। यह सुनकर कन्दवर बोला कि वह आपके तख़्त व ताज सब पर अधिकार जमाए हुए है।


ज़हाक़ ने उसी लहजे में कहा कि अतिथि की इतनी ग़्ाुुस्ताख़ी को अच्छा शगुन मानकर टाल दो, इसको लेकर दुखी मत हो।‘‘


क़न्दवर ने शाह ज़हाक़ का यह सहज उत्तर सुनकर तनिक कटाक्ष भरे स्वर में कहा “अगर वह दिलावर आपका मेहमान है, तो उसको आपके हरम से क्या लेना-देना। वह शहरनवाज और अरनवाज को जनानखाने से बाहर निकाल लाया है जो कभी आपके दिल का सुकून थीं। अब वह दिलावर एक तरफ शहरनवाज का हाथ पकड़ता है और दूसरी तरफ अरनवाज के होठों का स्पर्श करता है। रात को उनके लम्बे बालों के साए में तकिये पर सर रखता है। इन बातों को सुनकर एकाएक ज़्ाहाक़ की गैरत जाग गई और वह आग-बबूला हो उठा। उसने बड़े कठोर स्वर से कन्दवर को फटकारते हुए कहा ‘तुमसे महल की रक्षा भी न हो सकी। मैंने तमको वहाँ किसलिए छोड़ा था? आज से तुम मेरे रक्षक नहीं हो।‘


शाह ज़हाक़ ने घोड़े पर जीन कसने का हुक्म दिया और उसी समय बगदाद की तरफ चल पड़ा। उसके पीछे उसके सिपाही भी थे। इधर फरीदुन की फौज को ज़हाक़ की वापसी की खबर मिली। सारे फौजी उस तरफ चल पड़े। शहर के बूढ़े जवान सभी जहान के विरोध में उठ खड़े हुए जो आज तक उसके अत्याचारों से भयभीत घरों में छुपे हुए थे। उसके नारों की आवाज से पहाड़ गूंज रहे थे और घोड़ों की टापों से जमीन धमक रही थी। वातावरण में धूल के काले बादल छा गये थे। एकाएक आतिशकदेह से आवाज उभरी कि अब शाह ज़हाक़ को सहन करना कठिन है।


उस उत्तेजित भीड़ में सूरज की तरह चमकता एक चेहरा नजर आया जो जिरह-बख्तर पहने हुए था ताकि उसको राजमहल में कोई पहचान न सके। वह वास्तव में शहरनवाज थी, जो फरीदुन की सहायता के लिए निकली थी और ज़हाक़ के विरोध में हथियार उठाना एक नेक काम समझ रही थी। फरीदुन की गदा काम आई और ज़हाक़ को कैद कर लिया गया। उसके हाथ-पैर चमड़े की रस्सी से बाँध दिए गए। फिर उसको आग में डाल दिया गया और उसके मुंह पर पत्थर रख दिए गए ताकि संसार के लोग सुख की साँस ले सकें। इसके बाद फरीदुन ने शहर के बुजुर्गों और बुद्धिमानों को जमा करके कहा कि “ज़हाक़ जैसे अत्याचारी शाह ने वर्षों राज किया और इस ज़मीन को लोगों के खून से रंगा। उसने न खुदा को याद किया और न नेकी की राह पर चला। खुदा ने मुझे भेजा ताकि मैं उसके जुल्म से जनता को मुक्त करूँ। खुदा ने मुझे इस क़ाबिल बनाया और मैं इस परीक्षा में सफल हुआ। अब आप मुझसे नेकी के अतिरिक्त कुछ और नहीं देखेंगे। आप सब खुदा का शुक्र अदा करें। हथियार और युद्ध को भूलकर अपने परिवार के साथ सुख-चैन से रहें।”


ये बातें सुनकर जनता खुश हुई। फरीदुन शाही तख्त पर बैठा और न्याय और सत्य के रास्ते पर चला। जुल्म की रस्म खत्म हुई और लोगों ने चैन की साँस ली।



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