फ़िरदौसी जीवन और शाहनामा

जिस शायर को समय ने नकारते हुए तूस के क़ब्रिस्तान में दफ़न होने की इजाज़त महज़ इसलिए नहीं दी कि वह काफ़िर' शिया है, हज़ार वर्ष बाद आज उसकी आरामगाह पर दर्शकों का मेला लगा हुआ है। साठ हजार शेरों को महाकाव्य में ढालने वाला अबू अल क़ासिम हसन बिन अली तूसी (फ़िरदौसी) एक खुशहाल खेतिहर परिवार (323 हिज्री क़मरी) में पैदा हुआ था। इसीलिए शाहनामा की कई दास्तानों के शुरू में फ़िरदौसी अपने लिए दहक़ान (ग्रामवासी) शब्द का प्रयोग करते हुए लिखते हैं कि अब इस दहक़ान से यह कहानी सुनो।


जो कहानी फ़िरदौसी कविता द्वारा शाहनामा के


काव्यखण्डों में निरन्तर सुनाते चले जाते हैं, वह वास्तव में ईरान का इतिहास है जिसके आरम्भ में उन्होंने खुदा की तारीफ़ की है और उसकी बनाई चीजों जैसे चन्द्रमा एवं सूर्य की प्रशंसा की है। पैगम्बर और उनके मित्रों का ज़िक्र किया और इसके बाद बताया कि शाहनामा रचने का ख़्याल उनको क्यों कर आया। इस बात की व्याख्या करते हुए वह ईरान के प्रसिद्ध कवि दक़ीक़ी का ज़िक्र करना नहीं भूलते हैं जिन्होंने शहनामा को 'गशतासब नामा' के नाम से लिखना शुरू किया था, मगर अपने ही गुलाम के हाथों क़त्ल हो जाने के कारण वह काम अधूरा छूट गया। उसको जब फ़िरदौसी ने पढ़ा तो उस काम को पूरा करने का प्रण लिया। इसके बाद अबू मंखूर बिन मोहम्मद और सुल्तान महमूद के प्रशंसा-गान के बाद वास्तव में शाहनामा की शुरुआत होती है जिसका शीर्षक है 'ईरान का पहला बादशाह गेउमर्त जिसका राज तीस वर्षों तक चला' यानी शाहनामा की शुरुआत ईरानी नस्ल के आरम्भ से होकर सासानी काल के पतन पर जाकर समाप्त होती है।


शाहनामा को तीन भाँगों में बाँटा जा सकता है। पहला वह जो लोक-साहित्य पर आधारित है, दूसरा वह जो काल्पनिक अफसानों पर है और तीसरा वह जो ईरान का इतिहास है। इस महाकाव्य में फ़िरदौसी को अमर बनाने वाली कालजयी रचनाएँ हैं जो आज बार-बार पढ़ी और गाई जाती हैं। जिससे दास्तान-ए-बीज़न व मनीज़ा, सियावुश व सुदाबे, रुदाबे व ज़ालज़र, रुस्तम व सोहराब, शतरंज की पैदाइश, शाह बहराम के क़िस्से, सिकन्दर व कैदे, हिन्दी, ज़हाक़ व कावेह आहंगर इत्यादि उल्लेखनीय हैं।


अरब सत्ता का ध्वज जब ईरान पर फहराने लगा, तो ईरानी बुद्धि जीवियों के सामने भारी संकट आन खड़ा हुआ कि आखिर इस विदेशी सत्ता के साथ, वे कैसा व्यवहार करें। क्या वह बाकी लोगों की तरह देश से भाग कर पड़ोसी देशों में पनाह लें। (जैसा गुजरात के राजा जूडीराना के दरबार में ज़रदुश्तियों के जत्थे ने जाकर रहने की इजाज़त मांगी थी। उन्हें पनाह मिली। वह आज भी भारतवर्ष में आतिशकदा में आग की पूजा करते हुए अपनी पारसी पहचान को बनाए हुए हैं) क्या यह उचित होगा? इसी मुद्दे पर ईरानी बुद्धिजीवी वर्ग दो भागों में बँट गया। एक वर्ग वह था जो अरबी भाषा के बढ़ते सरोकार को सम्पूर्ण रूप से दरबार, धार्मिक स्थलों और जनसमुदाय में पनपता देख रहा था और सोच रहा था कि इस तरह से ईरानी भाषा और साहित्य का कोई नामलेवा नहीं बचेगा। शायद ईरानी विचार की भी गुंजाइश बाकी नहीं बचेगी और अरबी भाषा के साथ अरब विचार भी ईरानी दिल व दिमाग़ पर छा जायेंगे। इसलिए ज़रूरी है कि भाषा के झगड़े में न पड़कर ईरानी सोच को जीवित रखा जाए। इस वर्ग के ईरानी लेखक बड़ी संख्या में अरबी भाषा में अपना लेखन-कार्य करने लगे और दरबार एवं विभिन्न स्थलों पर महत्त्वपूर्ण पद भी पाने लगे।


दूसरा वर्ग पूर्ण रूप में अरब सत्ता से बेज़ार था। वह उसकी तरफ पीठ घुमाकर अपनी भाषा-साहित्य के प्रति अत्यधिक सम्वेदनशील हो उठा। ईरानी संस्कृति और इतिहास को बचाने और संजोने की तीव्र इच्छा उसमें मचल उठी। सत्ता के विरोध में वह तलवार लेकर खड़ा तो नहीं हो सकता था, मगर वर्तमान को नकारते हुए भविष्य के लिए ज़रूर कुछ रच सकता था। इस श्रेणी के बुद्धिजीवियों में सबसे पहला नाम है फ़िरदौसी का जिन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि


''यानी तीस वर्ष की अनथक कोशिशों से मैंने यह महाकाव्य रचा है और फ़ारसी ने अजम (गूंगा) को अमर बना दिया है। ''


यहाँ अजम शब्द की व्याख्या करना जरूरी हो जाता है।



अरबी भाषा का उच्चारण चूँकि हलक़ पर ज़ोर देकर होता है, तो उसकी ध्वनि में एक तेज़ी और भारीपन होता है जबकि फ़ारसी भाषा में उच्चारण करते हुए अधिकतर जीभ के मध्य भाग और नोक का प्रयोग होता है जिससे शब्द मुलायम व सुरीली


ध्वनि लिए निकलते हैं। इतनी मद्धिम ध्वनि सुनने की आदत चूँकि अरबों को नहीं थी, इसलिए उन्होंने उपेक्षा भाव से ईरानियों को गूंगा कहना शुरू कर दिया था। फ़िरदौसी आगे कहते हैं


''यानी मैं कभी मरूँगा नहीं, क्योंकि मैंने फ़ारसी शायरी के जो बीज बिखेरे हैं, वे दुनिया के रहने तक लहलहाते रहेंगे और मैं उनके कारण सदा जीवित रहूँगा।''


खुरासान प्रान्त की राजधानी मशहद से कुछ दूर पर नीशापुर में फ़िरदौसी तूसी. की क़ब्र थी। मशहद पहुँचकर आरामगाह-ए-फ़िरदौसी पर जाना न हो सके, ऐसा तो हो नहीं सकता था। इसलिए ईरान तूर की बस पर बैठी। मैं (1976 में) उस महान् कवि के बारे में सोच रही थी जिसके सन्दर्भ में कई दर्दनाक कहानियाँ मशहूर हैं, जिन्हें शाहनामा पर काम करने वाले शोधकर्ता अपनी-अपनी दृष्टि में उद्धृत करते रहते हैं। जैसे सुल्तान महमूद ने शाहनामा खुद फ़िरदौसी के मुँह से कई दिनों तक सुन कर कहा: “शाहनामा अपने में कुछ भी नहीं है सिवाए रुस्तम के। मेरी फौज में हजारों योद्धा रुस्तम जैसे भरे हुए हैं'' फ़िरदौसी ने सुल्तान के सामने केवल इतना कहा “नहीं जानता खुदा की बनाई इस दुनिया में कितने सिपाही रुस्तम की तरह है लेकिन इतना जानता हूँ कि खुदा ने एक भी बन्दा रुस्तम की तरह नहीं बनाया।'' इतना कह ज़मीन चूमी और चले गये (जीवन और काल सुल्तान महमूद पन्ना 162)


दूसरा किस्सा जो बहुत प्रचलित है वह यह है कि फ़िरदौसी ने ईरान की तारीख और शोर्यगाथा उस समय लिखी जब अरब शासक ईरान पर राज कर रहा था और माहौल अरब भाषा साहित्य का था। सरकारी ज़बान अरबी बन चुकी थी। किसी को शाहनामा या ईरान के गुज़रे काल खंडों से क्या रुचि हो  सकती थी। फ़िरदौसी ईरान की भाषा पहलवी को जानते थे। अपने गाँव में जब वह मदरसा या बुर्जगों की महफ़िलों में बैठते तो उनके मुँह से पुराने क़िस्से सुनते जो उनके दिमाग़ में अंकित हो गये थे। पहलवी भाषा की हस्तलिपि तकनीकी तौर पर इतनी व्यावहारिक और पुख्ता ग्रामर वाली नहीं थी जितनी अरबी भाषा की थी जिसके कारण अरबी लिपि शीघ्र ही अपना ली गयी। फ़िरदौसी ने लोक-साहित्य एवं इतिहास की इस महान धरोहर को अरबी लिपि द्वारा फ़ारसी भाषा में कागज़ पर उतारा। ऐसे काल में इस महान कार्य का फ़ारसी में आना एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। उसकी अहमियत सुल्तान समझ नहीं पाया और जितनी उम्मीद फ़िरदौसी को थी उस पैमाने पर उन्हें इनाम-इकराम नहीं मिला, यह वह वक़्त था जब पिता


द्वारा मिली पूँजी लगभग समाप्त हो चुकी थी। उनकी मेहनत का फल सामने था मगर वह कंगाल हो चुके थे।


सुल्तान महमूद ने सोने के दिरहम की जगह उन्हें चाँदी के 60 हजार दिरहम भेजे। जिस समय वह हमाम में थे, फ़िरदौसी के दिल को गहरी ठेस पहुँची। उन्होंने ईरान का वह काल खंड जिया था जब ईरान में बादशाह के बाद पहलवानों और फिर दहक़ानो (किसानों) का स्थान होता था जो गाँव का पूरा बन्दोबस्त देखते थे। उनकी पहुँच बादशाह तक सीधी हुआ करती थी। अब यह व्यवहार बादशाह का देख उन्होंने 60 हजार चाँदी की दिरहम में से 20 हजार दिरहम इनाम लाने वाले को बख्शा 20 हज़ार दिरहम उठाने वाले को और 20 हजार हमाम में मालिश करने वाले को उनकी मेहनताना के बदले में दिया और अपमान की चरम पीड़ा से व्याकुल हो उन्होंने एक हज्व (निन्दा) लिखी और अपनी ज़मीन छोड़ अपने दोस्त की तरफ चले गये। इसी तरह के अनेक किस्से शाहनामा के साथ जुड़े हए हैं।


कुछ शोधकर्ताओं का लिखना है कि फ़िरदौसी ने चालीस वर्ष की आयु में (380 हिज्री क़मरी में) शाहनामा रचना आरम्भ किया और 400 हिज्री क़मरी में उसे समाप्त किया। वे 393 हिज्री क़मरी में सुल्तान महमूद के दरबार में हाज़िर हुए। यह वह दौर था, जब फ़िरदौसी ने अपनी जमा-पूँजी शहनामा लिखने में खर्च कर दी थी और दाने-दाने को मोहताज हो गए थे। उस समय उनको अपनी गरीबी से छुटकारा पाने की केवल एक राह नज़र आई कि शाहनामा को वह महमूद बिन नासिर उद्दीन खब्कतगीन के नाम कर दें। वह सुल्तान महमूद के पहले वज़ीर, अहमद इसफरायनी के ज़रिए दरबार में पहुँचे। सुल्तान सुन्नी था। और शाहनामा शिया शाहों के प्रशंसा-गान से भरा हुआ था। यह देखकर सुल्तान की भवों पर बल पड़ गए और उसने उपेक्षा भाव से सोने की दीनार की जगह चाँदी की दिरहम दी। फ़िरदौसी के आक्रोश ने उन्हें ग़जनी शहर छोड़ने पर मजबूर कर दिया। और वह खुरासान चले गए। उन्होंने छः मास इस्माइल वराक़ के यहाँ गुज़ारे जो अज़रकी नामक कवि के पिता थे। उसके बाद वह तबरिस्तान की तरफ बढ़ गए। आलबावन्द के हाकिम के पास गए और वहाँ जाकर एक लम्बी हज़्व (निन्दा कविता) लिखी। चूँकि आलबावन्द का हाक़िम फ़िरदौसी की इज्ज़त करता था इसलिए उसने वह हज़्व फ़िरदौसी से खरीद ली और उसको धो डालने का हुक्म दिया ताकि फ़िरदौसी किसी परेशानी में न पड़ जायें। फ़िरदौसी यहाँ से माज़नदरान की तरफ बढ़ गए और वहाँ से खुरासान की तरफ लौट आए। बाक़ी जिन्दगी उन्होंने अपने गाँव में ही बिताई और 411 या 416 हिज्री क़मरी में इस संसार से विदा हुए।


कुछ शोधकर्ताओं ने इसके बाद की घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है कि फ़िरदौसी का इकलौता बेटा भी मर गया। बेटी अपने शौहर के घर थी। - फ़िरदौसी गरीबी और बेचारगी से अपने दिन गुज़ार रहे थे। इसी बीच सुल्तान को किसी ने बताया कि शाहनामा एक अमर हो जाने वाली कृति है। आपका व्यवहार उस कवि के प्रति ऐसा होना चाहिए, ताकि तारीख आपको याद रखे। सुल्तान को अपनी चिन्ता सताने लगी। उन्होंने सोने की 60,000 दीनारें ऊँटों पर लदवाकर फ़िरदौसी के पास भेजीं। जब वह सम्मान फ़िरदौसी के घर की चैखट पर पहुँचा, तो उसी समय फ़िरदौसी का जनाज़ा निकल रहा था। सोचा गया कि अब वह धन बेटी को दिया जाना चाहिए। बेटी ने यह कहकर उसे लेने से इंकार कर दिया कि जब मेरे पिता ने इसको अपने जीवन में स्वीकार नहीं किया, तो इस पर मेरा अधिकार कैसे हो सकता है।


ये अफसाने कितने सच्चे हैं. इसे परखने और उस पर बहस करने से बेहतर है कि हम उस सत्य को जानें और पहचानें जो महाकाव्य के रूप में हमारे सामने है।


फ़िरदौसी के मज़ार पर


मशहद से नीशापुर का रास्ता सरसब्ज था, दिमाग फ़िरदौसी के बारे में सोच रहा था। ईरान तूर की बस रुकी और सारे मुसाफ़िर उतरे। कुछ दूर पैदल चलकर आरामगाह-ए-फ़िरदौसी के दरवाज़े पर पहुंची। चन्द सीढ़ियाँ चढ़कर बाग़ का फैलाव बाँहे पसारे हुए था।


फ़िरदौसी की संगमरमर की बड़ी-सी मूर्ति बाग़ के एक भाग में थी जिसके सामने खड़े होकर लोग लगातार तस्वीरें खिंचवा रहे थे। सामने फ़िरदौसी की क़ब्र का ऊँचा चबूतरा था। उसकी दीवारों पर शेर लिखे हुए थे। हज़ार वर्ष पहले जब इस महान कवि की लाश को क़ब्रिस्तान में जगह नहीं मिली, तो वह बग़ीचा अपने मालिक की लाश अपने सीने में छुपाने के लिए मजबूर हो गया था। उस समय किसे पता था कि आगे चलकर यही नन्हा बग़ीचा, जिसमें शायर दफ़न है, एक बड़े बाग़ में बदल जायेगा और ईरानियों के साथ फ़ारसी भाषा एवं साहित्य-प्रेमियों के लिए यह जगह सबसे प्रिय दर्शन स्थल बन जायेगी।


चबूतरे के नीचे तहखाने में रुस्तम के 'हफ़तखान' के क़िस्से बादामी पत्थर की दीवारों पर खुदे थे। कहीं वह सफेद दैत्य से लड़ रहा है तो कहीं गदा उठा रहा है। कहा जाता है, कि रुस्तम की एक बाँह की मछलियों की गिनती अस्सी थी। उसका जिस्म जितना बलवान् था दिल उतना ही नम्र । वास्तव में रुस्तम जहाँ शाहनामा का सबसे वीर पहलवान और महत्त्वपूर्ण योद्धा है, वहीं पर सच्चे इंसान का प्रतिनिधित्व करता है तो अँधेरे से लड़कर रोशनी के पैरों की जंजीरें काटता है। इसीलिए शाहनामा का यह पात्र केवल ईरान में ही नहीं, वरन् सर्वव्यापी सम्मान का


अधिकारी है। हाफिज़ ख़य्याम, सादी जैसे कवियों की आरामगाहों की तरह इस बाग़ में एक पुस्तकालय भी था जिसमें फ़िरदौसी पर हुए शोध एवं शाहनामा:की, विभिन्न आकारों में छपी प्रतियाँ बड़े पैमाने पर रखने का विचार चल रहा था।


1975 में जश्नवार-ए-तूस (तूस महोत्सव) खत्म हुआ था। दानिशमन्दों का, यह मेला आरामगाह-ए-फ़िरदौसी पर लगा था। शाहनामा ईरानी राष्ट्रीयता की भावना का प्रतीक माना गया है, अतः सभी आदरभाव से इसके आगे सिर झुकाते हैं। कहते हैं कि जब फ़िरदौसी का जन्म हुआ तो उसके पिता मौलाना अहमद फलद्दीन ने सपना देखा कि फ़िरदौसी छत पर खड़े होकर एक दिशा की ओर कुछ बोलते हैं और उसकी


प्रतिध्वनि पलटकर वापस आती है। यही हाल बाक़ी तीनों दिशाओं की ओर बोलने से हुआ और हर बार फ़िरदौसी की आवाज़ की प्रतिध्वनि गूंजी। सुबह जब उठे तो इस अजीबो-गरीब सपने का बयान किया। इसे सुनकर बुद्धिमान लोगों ने कहा कि ज़रूर आपका बेटा भविष्य में एक ऐसा, शायर बनेगा जिसकी शोहरत एवं लोकप्रियता का डंका चारों दिशाओं में बजेगा।


शाम हो रही थी मशहद लौटने का समय नजदीक था। हम सारे फ़ारसी भाषा एवं साहित्य के विद्यार्थी एक अजीब अहसास में डूबे लौटने की तैयारी करने लगे। वर्षों पहले. फ़िरदौसी से परिचय का वह पहला अनुभव बेहद शायराना था जिसमें सिर्फ मिठास थी। आज उन यादों के बीच अनुभव का नया कालखण्ड उभर आया है जिसने शब्दों की मिठास को तो कम नहीं किया है, मगर उसे एक ठोस विस्तार अवश्य दे दिया है। आज जब मैं ईरान के पिछले बारह वर्षों को और शाहनामा को एक साथ रखकर देखती हूँ, तो महसूस होता है कि शाहनामा उस समय एक सियासी अंकुश के बीच विरोधी सत्ता को नकारने की भावना से लिखी एक ऐसी कृति थी जो भाषा की दृष्टि से खालिस फ़ारसी है, जिसमें अरबी भाषा के सुन्दर शब्दों से जान-बूझकर परहेज़ किया गया है। इस बात का अहसास ईरान के अन्तिम बादशाह रज़ा शाह पहलवी को भी था, जो अपने को आर्यमेहर कहलाना पसन्द करते थे। अरबों की तलवार के जोर पर ईरानियों ने भले ही इस्लाम धर्म कबूल कर लिया और तीन सौ वर्षों की अरब सत्ता में रहने के कारण फ़ारसी लिपि भी बदलकर अरबी लिपि अपना ली थी, मगर वे अपना ईरानीपनं कभी नहीं भूल पाए और अरबों को शत्रुता की नज़र से आज भी देखते हैं।


शाहनामा पर शोध


रजा शाह पहलवी ने फ़ारसी भाषा को ख़ालिस बनाने के लिए 'फरहंगिस्तान' नाम से एक संस्थान खुलवायी थी, जिसका काम था फ़ारसी भाषा में प्रयुक्त अरबी भाषा के शब्दों को निकालकर उसकी जगह फ़ारसी के शब्दों को इस तरह जड़ना कि वह भाषा को सुन्दर प्रवाह दें, और बोलने में जल्द से जल्द ज़बान पर चढ़ जायें। इसी तरह, प्राचीन साहित्य को सजाने और उसको आसान बनाकर आम आदमी तक पहुँचाने के लिए उन्होंने एक संस्थान 'बुनियाद-ए-फरहंग-ए-ईरान' के नाम से स्थापित किया था, जो हर बड़ी कृति को लेकर उसका संक्षेप रूप छोटी-छोटी पुस्तकें में छापता था ताकि मामूली आदमी भी अपने प्राचीन साहित्य को पढ़ सके।


फ़िरदौसी के शाहनामा' पर भी शोध कराने के लिए 'बुनियाद-ए-शाहनामा' नामक संस्थान शुरू हुआ था, जिसका काम फ़िरदौसी के 60,000 शेरों को जहाँ सिलसिलेवार तरतीब देना था, वहीं फ़िरदौसी द्वारा वर्णित स्थानों के नामों का उनके भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में पता लगाना भी था। जिस में हिमालय पर्वत की स्थिति और दिशा पर भी चर्चा चल रही थी। इस तरह की अनेक बातें थीं जिस पर शोध हो रहा था।


शाहनामा में कई जगह फ़िरदौसी ने अपने बुढ़ापे और थकन का ज़िक्र करते समय अपनी उम्र का भी जगह-जगह उल्लेख किया है, जो सिलसिलवार लिखे उनके काव्य पर कई तरह के प्रश्नचिह्न लगाता है। हो सकता है उस दौर में वर्षों की गिनती पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता हो। इसलिए शाहनामा के शेरों में एक बिखराव-सा-नज़र आता था, जिसको सिलसिलेवार तरतीब देना 'बुनियाद-ए-फ़िरदौसी' का काम था। बहरहाल अभी शाहनामा पर जमकर काम शुरू भी नहीं हुआ था कि एकाएक 1979 की ईरानी क्रान्ति ने पहलवी साम्राज्य का तख़्ता ही पलट दिया।


और नफरत का तूफान


शाहनशहियत से नफरत का एक ऐसा तूफ़ान ईरान में उठा कि बुनियादें ही हिल गईं। 'शाहनामा संस्थान' भी बन्द हो गया। उसके बुद्धिजीवी शोधकर्ता और कर्मचारियों को अपनी जान के लाले पड़े गए और कर्मचारियों ने बेदर्दी से उन पुस्तकों में आग लगाना शुरू कर दिया जिन पर शाही मोहर या शाह और उसके परिवार के चिह्न अंकित थे। पुस्तकालयों में शाहनामा की वे प्रतियाँ भी भस्म हो रही थीं जो सोने की स्याही से लिखी गई थीं। उनमें छपे चित्रों में सोने का सुनहरा रंग लगा हुआ था। उनको उन शाहों का इतिहास समझकर जलाया जा रहा था, जिसने आज वतन को अमेरिका की झोली में डालकर बर्बाद कर दिया था। जो ईरान का इतिहास समझकर शाहनामा व अन्य करोड़ों साहित्यिक पुस्तकों को महत्त्व दे रहे थे, वे लगातार चीख रहे थे कि यह रजाशाह पहलवी नहीं, बल्कि कई नस्लों की मेहनत है, सोच है, भावना है, इसलिए उन्हें बर्बाद मत करो। यदि तुम्हें शाह से नफ़रत है तो किताब को जलाने की जगह उस पर चिपकी शाही मोहर. शाह और उसके परिवार की तस्वीरें फाड़ दो। मगर कौन सुनता है! ज़माना बदल रहा था और इसी बदलाव को इंकलाब का नाम दिया जा रहा था।


यह आन्दोलन ईरान से चलकर अन्य कई देशों तक भी फैला। भारत भी आया और खुमैनी के अनुयायी 'फरहंगे-ईरान' पर छापा मारकर उसकी पुस्तकों को आग की भेंट करने लगे। क्रान्ति से वर्ष-भर पहले मैंने शाहनामा के पाँच खण्ड । काम करने की खातिर 'फहरंगे-ईरान' के पुस्तकालय से लिए थे। वापस करने से पहले ही सारा माहौल ही बदल गया और फ़िरदौसी के हजारवें जन्म-दिवस के अवसर पर पाँच खण्डों में (1935 में) छपा यह शाहनामा मेरे पास ही रह गया। आज उसी को पढ़कर, विभिन्न काव्यखण्डों का अनुवाद करते हुए, मैं सोच रही थी कि सियासत के कितने चेहरे हैं और कलाकर की नियति कितनी एक जैसी है जिसमें दर्द के पैबन्द ही पैबन्द हैं।


शाहनामा की विशिष्टताएँ


विशलता और व्यापकता की दृष्टि से 'शाहनामा' की तुलना होमर के 'इलियड' ''और महर्षि व्यास के 'महाभारत' से की जा सकती है। तीनों में वही पाँच भाव विद्यमान हैं, जो मानवीय उच्च भाव जगाने और साहित्य को अमर बनाने में सहयोग देते हैं। प्रेम, घृणा निष्ठा, ईर्ष्या एवं बलिदान का समन्वय 'शाहनामा' है। शाहनामा को केवल इतिहास कहकर मुर्दा तारीखों का घटनाक्रम क़रार देना उचित नहीं है क्योंकि 'शाहनामा' मानवीय सरोकारों, भावनाओं और उसकी टकराहट की जीती-जागती धड़कन है, जिसमें एक तरफ बुराई 'जहाक़ शाह' के रूप में है, तो अच्छाई 'फरीदुन शाह' की शक्ल में, नेकी की मूर्ति सियावुश और निराशा की तस्वीर फरिद्वन के रंग में एक ओर तूरानी पहलवान पीरान सज्जनता की कसौटी है, तो दूसरी तरफ बहादुरी और हमदर्दी का प्रतीक ईरानी पहलवान रुस्तम है।


'शाहनामा' कहने को एक महायुद्ध की महागाथा है, मगर वस्तुतः यह एक ऐसी इंसानी किताब है, जिसमें वर्णित है कि हालात के गलियारों से गुज़रते-गुज़रते इंसान कैसे-कैसे रंग बदलता है। एक जज्बा किसी इंसान के दिलो-दिमाग़ में वर्षों तक उसी तीव्रता के साथ विद्यमान नहीं रह सकता है क्योंकि आसपास घटने वाली घटनाएँ उस जज्बे को धुंधला बनाने के लिए तत्पर रहती है जिन्हें रोकना इंसान के हाथ में नहीं है क्योंकि वे घटती ही किन्हीं दूसरे कारणों से हैं। इसलिए फ़िरदौसी केवल उपदेश नहीं देते हैं, बल्कि परिवेश और हालात में इंसान की कमज़ोरी को बड़ी सूक्ष्मता से दर्शाते हुए उसका तर्क भी सामने रखते हैं।


दूसरी बात मनोवैज्ञानिक दृष्टि से 'शाहनामा' में महत्त्वपूर्ण है, वह है इंसान का इंसान से मोहब्बत करना। ईरान व तूरान की दुश्मनी पुरानी है। लेकिन यह दुश्मनी केवल राजाओं के बीच सक्रिय रही है और जब ईरानी और तूरानी मिलते है तब तहमीना और रुस्तम, बीज़न और मनीज़ा, रुदाबे और ज़ालज़र जैसी प्रेम कथाओं का जन्म होता है।


'शाहनामा' की तीसरी खूबी है कि उसमें गुणों एवं अवगुणों को काला और सफेद करके देखा गया है। उसको मिलाकर सुरमई रंग बनाने की कोशिश कहीं नहीं की गई है। अच्छाई और बुराई को विरासत के रूप में भी नहीं देखा गया है। आदर्श भी कहीं थोपा नजर नहीं आता है, बल्कि हर युग में हर नस्ल एक नये तरीके से हमारे सामने आती है और विचार के धरातल पर हमें झिंझोड़ जाती है कि दुश्मनी को पीढ़ियों तक जीवित रखना व्यर्थ है और अच्छाई की कोख से बुराई उसी तरह जन्म ले सकती है जैसे कि बुराई की कोख से अच्छाई।


'शाहनामा' की चैथी सबसे बड़ी खूबी है उसके महिला पात्र। चाहे वह रुदाबे हो या फरांक तहमीना हो या सीनदुख्त, गुर्दआफरीद हो या फिरंगीस, सबकी सब बहादुर, सच्ची, सुन्दर, अपने व्यक्तित्व पर विश्वास रखने वाली औरतें हैं जो अंकुश, घुटन, अत्याचार और अधिकार-हनन के विरोध में बड़ी सहजता के साथ खड़ी होकर अपने मन की बात बड़ी सरलता से कह देती है। उनमें आत्मविश्वास की चमक और ईमानदारी की दमक अपनी पूरी ओज के साथ सामने जलवागर नज़र आती है, जिसको नकारा नहीं जा सकता। क्योंकि वह इंसान की सम्पूर्ण गरिमा के साथ हमारे सामने उभरकर आती हैं और उस दौर के कवि द्वारा लिखा जाना सराहनीय है। लेकिन वहीं सुदाबे जैसी मक्कार और बेवफा औरत का किरदार भी पेश किया है दूसरी ओर कवि ने औरत-मर्द में फर्क न डालकर उनके बीच दीवार नहीं उठाई है, बल्कि मानवीय सम्वेदनाओं और गुणों के धरातल पर उन्हें बराबर से खड़ा किया है।


'शाहनामा' के अलावा एक बात जो 'शाहनामा' को सरस बना देती है, वह है उसका प्रवाह जो किसी नदी की तरह समतल भूमि पर निरन्तर बहे चला जाता हैं शायद इसी कारण 'शाहनामा' में लड़कियों की सुन्दरता का बयान, पहलवानों की बहादुरी की चर्चा में जो उपमाएँ आती हैं, वे बार-बार अपने को दुहराती हैं, यहाँ तक कि कुछ घटनाएँ भी जैसे रुस्तम और सोहराब का बचपन में एक ही तरह से घोड़े की इच्छा करते हुए माँ से हठ करना और बेहतरीन घोड़े को पाने की उत्सुकता एवं उत्तेजना लगभग एक जैसे शब्दों में बयान की गई हैं। इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि फ़िरदौसी इतना बड़ा महाकाव्य लिखने के कारण चीजें दोहराने लगे थे बल्कि इसका कारण है फ़ारसी भाषा का अपना मिजाज़ जिसमें शब्दों की तकरार एक लय और अहसास का दोहराना एक ताल है।


'शाहनामा' भी 'आल्हा-ऊदल' की तरह गाया जाता है विशेषकर जूरखानों (कुश्ती के अखाड़े) और कहवाखानों में। जब 'शाहनामा' नगाड़ो के साथ गाया जाता था तो एक अलग ही समाँ बँध जाता था।''


शाहनामा के अनुवाद


'शाहनामा' का सबसे पहला अनुवाद अरबी भाषा में छठी शताब्दी में हुआ था। क़वाम उद्दीन अबुलफतेह ईसा बिन इब्ने मोहम्मद इसफ़ाहवी ने यह अनुवाद अयूब अल फातेह ईसाबिन मुल्क अब्दुल अबूबकर के नाम समर्पित किया था। इसके पश्चात् 914 हिज्री में तातार अली अफनदी ने सम्पूर्ण 'शाहनामा' का अनुवाद तुर्की भाषा में किया था। तुर्की भाषा गद्य में अनुवाद का काम मेंहदी साहिबमनसबान उस्समान के दरबार में पूरा हुआ। यह अनुवाद उस्मान द्वितीय को 1030 हिज्री में भेंट किया गया। कुछ वर्षों बाद 1043 हिज्री में दाराशिकोह के बेटे हुमायूँ के समय में लाहौर में, उसके दरबार में तवककुल बक ने शमशीर खाँ की फरमाइश पर 'शाहनामा' के कुछ चुने हिस्सों का गद्य व पद्य में अनुवाद-'मुनताखिब उल तवारीख' नाम से फ़ारसी से किया था।


पश्चिमी देशों में 'शाहनामा' का अनुवाद सबसे पहले लन्दन में 1774 में सर डब्लू, योन्स (Sir w, Yones) ने किया, मगर सम्पूर्ण 'शाहनामा' का अनुवाद करने वाले प्रथम विदेशी जोज़फ शामय्यून का अनुवाद जो कलकत्ता में 1785 में छपा था। इसके बाद लोडाल्फ (Ludolf) हैगरमैंन (Hegerman) पेरिस में 1802 में जान ओहसान (John Ohsson) के अनुवाद सामने आये।


ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 'शाहनामा' को अनुवाद कराने की इच्छा व्यक्त की थी। फोर्ट विलियम कालेज में अरबी-फ़ारसी के अध्यापक लुम्सडन (Lumsden) ने इस काम की ज़िम्मेदारी उठाई थी। इस तरह 1811 में 'शाहनामा' का अनुवाद हुआ। इस तरह नामों की एक लम्बी सूची है, जिन्होंने फ़ारसी भाषा पढ़ी या किसी कारण वे ईरान में रहे या फिर उन्होंने ईरान पर शोध-कार्य किये और 'शहनामा' का थोड़ा-बहुत अनुवाद किया या फिर ज़िक्र उन्होंने जहाँ-तहाँ अपने लेखने में भी किया था।


डॉ. गुलाम मक़सूद हेलाली की 'बंगला पर अरबी-फ़ारसी का प्रभाव' नामक पुस्तक के अनुसार 'शाहनामा' के कुछ हिस्सों का अनुवाद बंगाली भाषा में भी हुआ है। गुजराती, मराठी भाषा पर फ़ारसी का बहुत प्रभाव रहा है। इससे लगता है कि इन भाषाओं में 'शाहनामा' के किसी खण्ड का लेखन या अनुवाद के रूप में प्रयोग अवश्य हुआ होगा।


शाहनामा और अन्य कलाएँ


शाहनामा फ़िरदौसी की कहानियों पर शायद दुनिया में सबसे ज़्यादा चित्रकारों ने अपने को व्यक्त किया है। ईरान के प्रसिद्ध चित्रकार बहरोज़ से लेकर आज तक जाने कितने चित्रकारों ने नयी-नयी विधाओं में अपने को व्यक्त किया है। सबसे ज्यादा चित्र रुस्तम को लेकर हैं। कैनवस पर ही चित्र नहीं उभारे गये हैं बल्कि कालीनों और मुनब्बत कारी द्वारा भी तरह-तरह से इन दास्तानों का प्रयोग किया गया है। इस पुस्तक में जो चित्र दिये गये हैं, वो गूगल से लिए गये हैं, इसके चयन में कई तरह की कठिनाइयाँ आयीं। सबसे बड़ी कठिनाई यही थी कि कौन सा चित्र छोड़ा जाये और कौन सा रखा जाये। इस सिलसिले से मैं अमन हबीब को धन्यवाद दूंगी कि उन्होंने चित्रों को एकत्रित करने में मेरी मदद की।


हिन्दी भाषा में 'शाहनामा' की कुछ महत्वपूर्ण कहानियों का अनुवाद आपके सामने है। फ़ारसी भाषा की चाशनी के लिए मैंने सुन्दर काव्यखण्ड की कुछ फ़ारसी पंक्तियों के अनुवाद नागरी लिपि में दे दी हैं। आज वर्षों बाद फ़िरदौसी की ये पंक्तियाँ कानों में गूँज रही है कि:


''हर वह, जो साहित्य को परखने की दृष्टि रखता है, वह मेरे मरने के बाद मेरी इस साहित्य-रचना की प्रशंसा अवश्य करेगा।''


फ़िरदौसी का यह शेर एक लम्बी कड़ी मेहनत के फल के रूप में हमारे सामने है जो हमें विश्वास देता है कि ईमानदारी, चाहे जिस रूप में हो, वह जिन्दा रहती है। यह अनुवाद उसी महान कवि फ़िरदौसी को मेरी श्रद्धांजलि के रूप में है। आशा है, पाठक 'शाहनामा' की इन कहानियों को पढ़कर फ़िरदौसी की याद ताज़ा करेंगे।


जब यूनेस्को द्वारा हुई घोषणा के अनुसार संसार में शाहनामा के पाँच साल (1990-1995) मनाये जा रहे थे, तो शाहनामा का महत्व एक बार फिर से पाठकों के सामने आया। ऐसी स्थिति में शाहनामा का प्रकाशन विशेष अर्थ रखता है। जो यह बताता है। यह कृति किसी एक भाषा, देश की न होकर सम्पूर्ण विश्व साहित्य समाज की धरोहर है! साहित्य मरने की जगह शताब्दियों तक जीने और अमर हो जाने वाली शै है।



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