रुस्तम व सरफिरा दैत्य

ईरान का बादशाह खुसरू एक दिन पहलवानों के साथ बैठा हुआ था। और युद्ध व शूरवीर योद्धाओं के बारे में वार्तालाप चल रहा था कि इसी बीच जंगल से गड़ेरिया राजभवन में आया और फरियाद की, “एक गूरखर (जंगली गधा) भेड़ों के झुंड में घुस आया है और ऐसा उत्पात मचा रहा है जैसे कोई दैत्य कैद से स्वतंत्र हुआ हो।



शेर के समान चिंघाड़ता


इधर से उधर दौड़ रहा है और उसी जंगलीपन में उसने कई घोड़ों की गर्दनें तोड़ डाली हैं। उसका रंग सूर्य के समान है, चमक ऐसी जैसे सोने का पानी, शरीर पर चढ़ा हुआ हो।‘‘


गड़ेरिया की बातों को शाह खुसरू ने ध्यान से सुना और समझ गया कि यह गूरखर नहीं है बल्कि वह सरफिरा दैत्य है जो उसी स्थान पर चश्में के किनारे रहता है और लोगों को दुःखी कर रहा है। गड़ेरिया को वापस भेजकर अपने समीप बैठे पहलवान से बोला, “कौन ऐसा होगा जो इस दैत्य को मारने का बीड़ा उठायेगा और लोगों को दुःख से मुक्ति देगा?‘‘


थोड़ा रुककर विचार में डूबा सा बोला, “रुस्तम के अतिरिक्त और कौन हो सकता है जिसका नाम लिया जाये?‘‘


इतना कहकर खुसरू ने उसे बुलाने का पत्र लिखा। उसपर राजसी मोहर लगा कर गुलाम को दे दिया।


पत्र रुस्तम के पास जैसे ही जाबुलिस्तान नगर पहुँचा वह फौरन ही कमर क़स के चल पड़ा। रुस्तम जब राजभवन पहुँचा तो खुसरू ने उस नामवर पहलवान का स्वागत किया और जैसा कि गड़ेरिया से सुना था दैत्य के बारे में कह सुनाया।


सुनकर रुस्तम ने उत्तर दिया, “वह दैत्य, शेर या अज़दहा जो भी होगा मेरी तलवार से बच कर नहीं निकल सकता है।‘‘ यह कह कर वह तेजी से दरबार से बाहर निकला और कमन्द हाथ में लेकर जंगल की ओर चल पड़ा। तीन दिन तक उस जंगली मैदान में फिरता रहा। चैथे दिन जाकर कहीं उसने दैत्य को जो सोने के घोड़े पर बैठा था देखा। देखते ही मन किया कि तलवार से सर धड़ से अलग कर दें फिर सोचा, “उचित लोगा यदि मैं इसे जीवित शाह खुसरू के हुजूर में उपस्थित करूँ” यह सोचकर रुस्तम ने कमन्द फेंकी पर उससे पहले ही दैत्य रुस्तम का इरादा भांप गया था और अदृश्य हो गया।


रुस्तम दिन भर व रात भर उसे ढूँढ़ता रहा पर बेकार  आख़िर थकन से चूर व प्यास से व्याकुल चश्मे के किनारे पहुँचा, रख्श से उतरा और उसे पानी पिलाया और स्वयं चश्मे के किनारे आंख बन्द करके लेट गया।


जैसे ही रुस्तम गहरी नींद में डूबा एकदम से दैत्य हवा की तरह आया और रुस्तम को दोनों हाथों से उठा कर सर के ऊपर ले गया।


रुस्तम की आँख खुल गई अपने को यूँ दैत्य के चंगुल में फँसा देखकर वह दुःख व क्रोध से पागल हो उठा, उसका मस्तिष्क तेजी से तरकीबें सोचने लगा। इस तरह से मुझे युद्ध के बिना ही यह मार डालेगा, धिधकार है मुझ पर, मेरे बाहुबल पर, मेरी तीरन्दाजी व तलवार के जौहर पर, जो सुनेगा उसका सर लज्जा से झुक जायेगा कि मैने वीरता के नाम पर कैसा कलंक लगाया है। आह! मुझे धोखे से इसने तबाह किया है, मेरा नाम डुबोया। रुस्तम को हिलता जानकर उस सरफिरे उल्टे काम करने वाले देव ने रुस्तम से कहा, “पीलतन (हाथी समान शरीर वाले) तुम स्वयं इच्छा व्यक्त करो कि तुम्हें आबादी से कितनी दूर और कहाँ फेंकू” पानी की ओर फेंकू या ऊंचे पहाड़ पर।” यह सुनकर रुस्तम ने सोचा कि अब तो देव के कब्जे में हूँ। इसी की बात को सुनना उचित होगा यदि देव ने मुझे पहाड़ पर उठाकर फेंका तो मेरी हड्डी पसली का पता न चलेगा और यह सरफिरा दैत्य वही करेगा जो कह रहा है, न वचन जानता है न


सौगन्ध। अगर मैं इस दुष्ट से सच बात कहता हूँ कि पानी में फेंको तो यह पहाड़ पर फेंकेगा अच्छा यही है कि ऐसा कुछ करूँ जो यह मुझे पानी में फेंके।” ऐसा सोचकर रुस्तम ने देव से कहा, ‘‘मुझे पानी में न फेंकना वरना मछलियां मुझे नोच-नोच कर खा जायेंगी। मुझे पहाड़ पर फेंकना ताकि शेर और चीता तुम्हारी वीरता का बखान करें।‘‘


सरफिरे दैत्य ने जैसे ही रुस्तम की बातें सुनी, जोर से दहाड़ा, “ऐसी जगह फेंकूँगा कि तुम्हें कोई देख न पायेगा।‘‘ कह कर उसने रुस्तम को उठाकर दूर दरिया में फेंक दिया।


जैसे ही रुस्तम दरिया में गिरा। गिरते ही तेजी से म्यान से तलवार निकाली और अपनी ओर बढ़ते घड़ियालों का सर काटने लगा। बायें हाथ और पैर से तैर रहा था और दाहिने हाथ से तलवार चलाकर शत्रुओं को मौत के घाट उतार रहा था। अपनी पौरुषता के प्रदर्शन के बाद वह दरिया के किनारे पहुँचा। इतना थक चुका था कि किसी प्रकार से पानी से निकल कर खुशकी पर आया और आते ही पहले खुदा को जान बचाने के लिए धन्यवाद दिया।


इसके बाद खुशकी पर चलता हुआ वह आगे बढ़ने लगा। चलते-चलते उसी चशमें के किनारे पहुँच गया। जहाँ पर पहले सोया था। बरेव्यान (रुस्तम का विशेष वस्त्र जो युद्ध के समय वह पहनता था) को उतारा और सुखाया। सूखने के बाद दोबारा पहना। अपने प्रिय घोड़े को जितना खोज सकता था आस-पास खोजा पर रख़्श का कहीं पता न चला। दुःखी होकर उसने जीन व लगाम को कन्धे पर डाला और रख़्श के मिलने की आशा में पैदल चलने लगा।


इस नश्वर संसार का विचित्र खेल है कभी-आदमी जीन पर बैठता है तो कभी जीन आदमी के कन्धों पर। इसी तरह से चलते और विचार करते हुए रुस्तम एक खुले मैदान में पहुँच गया।


मैदान में पहुँच कर देखा कि रख़्श दूसरे घोड़ों के साथ चर रहा है और रखवाला सो रहा था। रुस्तम ने जीन तेजी से रख़्श के पीठ पर रखी और उचक कर बैठा। बैठते ही हवा से बातें करता उसी चश्में के समीप पहुँच गया।


जैसे ही उसे सिरफिरे देव ने रुस्तम को फिर से देखा। कटाक्ष किया, “लगता है अभी लड़ाई से दिल नहीं भरा है शायद? घड़ियालों से लड़कर अब खुशकी पर दोबारा लड़ाई के इरादे से आये हो? इस बार तुम देखना ऐसा मजा चखाऊँगा कि दोबारा मेरे सामने नजर नहीं आओगे।


तहमतन (रुस्तम की दूसरी उपाधि) ने यह शब्द सुने और उसका खून खौल उठा। मस्त हाथी की तरह चिंघाड़ पड़ा। और घुमाकर जो कमन्द फेंका तो देव के कमर में जाकर कस गई। फिर गदा को घुमाकर देव के सर पर इस प्रकार से चोटें करने लगा जैसे कील पर हथौड़ी मारी जाती है। देव का सर फट गया, भेजा निकल आया और वह खड़े-खड़े झूमने लगा। आगे बढ़कर रुस्तम ने खंजर निकाला और उसका सर धड़ से अलग कर दिया। इस काम से निपट कर उसने खुदा का शुक्र अदा किया कि इस देव से पिंड छुटा और रख़्श पर बैठकर वह राजमहल की ओर चल पड़ा।


शाह खुसरू को जैसे ही दैत्य की हत्या का सुखद समाचार मिला वह स्वयं रुस्तम के स्वागत के लिए राजभवन के द्वार पर आया और उसकी प्रशंसा की। योद्धा पहले से ही जमा हो गये थे, शाह खुसरू ने प्रेमपूर्वक कहा, “तुम तलवार के धनी, इस आकाश के समान हो जो अच्छे-भले की पहचान कर उनके कर्म के अनुसार उन्हें दंड देता है जो भी इन्सान मानवता से गिर गया उसकी गिनती राक्षसों में होती है इन्सानों में नहीं।


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