‘अभिव्यक्ति’

‘अभिव्यक्ति’ हिन्दी के प्रचार, प्रसार और आत्मविकास को समर्पित एक सार्थक एवं सशक्त संस्था है। दिल्ली में लगभग तीस वर्ष पूर्व इसकी स्थापना हुई थी जो आज भी बड़े मनोयोग से अपनी सार्थकता सिद्ध कर रही है। किताबें पढ़ना और लेखकों को आमंत्रित कर उनकी पढ़ी हुई रचना पर संवादरत होना आत्मविकास का एक मनोरंजक श्रेष्ठतम माध्यम एवं स्वस्थ सांस्कृतिक अभ्यास है। मैं अभिव्यक्ति की लगभग चार-पाँच गोष्ठियों में शामिल हो चुका हूँ। संस्था की कार्यशैली एवं सांस्कृतिक परिवेश से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। मैंने देखा कि जिस उत्साह और जिज्ञासाओं के साथ सदस्याएँ लेखकों के साथ छोटे-छोटे मुद्दे उठाती हैं- उससे साबित होता है कि साहित्य में उनकी रुचि केवल मनोरंजन ही नहीं बल्कि कहीं न कहीं गहरे फलसफे से भी उनका जुड़ाव उजागर होता है।


‘अभिनव इमरोज़’ भी अभिव्यक्ति की तरह एक परिवार है जिसने साहित्य के पठन-पाठन को जीवन यापन का सार्थक माध्यम बनाया हुआ है। साहित्य को संजीवनी मानकर पाठकों तक श्रेष्ठ साहित्य पहुँचाने में कार्यरत है और मैं आश्वस्त हूँ कि जैसे नीले आकाश के विराट वितान तले सूर्य की सुनहैली धूप में जीवन खिलखिला उठता है वैसे ही साहित्य सरिता की समरसता के सत्य सेतु से जीवन आनन्द विभोर होकर नैसर्गिक प्रेम से सराबोर हो जाता है।


जीवन परिवेश के तीन अहम् परिदृश्य हैं- सुखान्त, दुखांत और एकांत इन तीनों परिस्थितियों में साहित्य हमारा सखा बनकर हमारे दुःख, दर्द और उदासी को सोख लेता है। और सुख में हमारे उल्लास को उसी सखा भाव से दुगना कर कर देता है। और एकांत में साहित्य, सहचर समीक्षक बनकर जीवन दर्शन को समझने में सहायता करता है। साहित्य के पठन-पाठन एवं मनन से जीवन की विशालता, विराटता, विरलता, विनयशीलता एवं विविधता का आभास होता है और अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति बनकर हमारे व्यक्तित्व को आकर्षण प्रदान करता है। जीवन को जितने विस्तार की आवश्यकता है तो उतनी गहराई भी वांछित है। जो हमें ‘अपने होने की’ अहमीयत से वाक़िफ़ कराती है।


‘मैं’ से ‘आप’ और ‘आप’ से ‘हम’ और ‘हमसे’ ‘ब्रह्म’ और फिर एक उद्घोष- अहं ब्रह्मास्मि।


प्रेमचंद की लिखी हुई एक उक्ति, जिसके सांचे में ढल कर पिछले साठ साल से मैं अपना जीवन यापन कर रहा हूँ।


 


मेरा जीवन एक सरिता की भाँति है,


जिसने प्रेम तो पर्वत से किया लेकिन मिलन सागर में।



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