‘हैलो’ कहानी: समाज का दर्पण

बी.एल. गौड़ जी की कहानी हैलो पढ़ी। कहानी कई स्तर पर कई कई अर्थों की परत खोलने में समर्थ है। एक सच्चा कहानीकार या कहा जाए कि सजग साहित्यकार का एक घटना को मात्र चित्रित करना, उसका उद्देश्य नहीं होता है। वह तो वास्तविक घटना जिसे यथार्थ कहते हैं, उसके माध्यम से यथार्थ समाज की वास्तविकता को प्रस्तुत करने के साथ-साथ उसके समाधान की ओर भी संकेत करता चलता है। यही कारण है कि कालजयी रचनाकारों के नाम गिने-चुने हैं। ऐसे रचनाकार हमेशा समाज में याद किए जाते हैं और पाठकों द्वारा पढ़े भी जाते हैं। कहानीकार बी.एल. गौड़ का नाम हिंदी  साहित्य जगत के लिए अपरिचित नहीं है। उनकी हर कहानी मात्र मनोरंजन के लिए नहीं होती है, उसमें एक संदेश छुपा होता है। उनकी कहानी कल्पित नहीं, अपितु समाज में घटित घटना पर आधारित होती हैं।


हैलो कहानी भी यथार्थ घटना पर घटित कहानी है, जैसा कि इसके नामकरण से ध्वनित होता है ।हैलो अर्थात् फोन की घंटी बजने की प्रक्रिया के उपरान्त देशबंधु गुप्ता जी द्वारा फोन उठाना उधर से यह आवाज आना - तुम जो भी हो मुझे बचा लो, आज यह आदमी मुझे छोड़ेगा नहीं। यह ग्रेटर कैलास पार्ट टू है। रात्रि के समय अपनी पत्नी पुष्पा के साथ लेटे गुप्ता जी को यह फोन की घंटी परेशान कर देती है। पुत्र का न्यूयॉर्क (अमेरिका) में अपने परिवार के साथ रहना, कहने को परिवार बेटा-बहू सब कुछ हैं लेकिन फोन पर ही बातचीत जीवन-चर्चा बन कर रह गई है। कहीं उसी का तो फोन नहीं ?  कोई दुखद समाचार तो नहीं  यह द्वंद  कुछ मिनट रहा जरूर, लेकिन ग्रेटर कैलाश पार्ट टू कहते ही अपने पुत्र के दुख से उभरना, बाद में यह कौन हो सकता है, कैसी हालत में है। इसकी चिंता करना, परेशान होना और कुछ करने का संकल्प रखना एक अच्छे नागरिक, अच्छे अध्यापक और एक जिम्मेदार व्यक्ति  का  कर्तव्य है। देशबंधु गुप्ता जी दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त थे। प्रतिदिन खुराना जी और एक अन्य मित्र  के साथ सैर पर जाते थे। उस दिन उनका मन सैर पर नहीं लगा और वे अपने पूर्व छात्र रामबीर सिंह, जो आजकल  दिल्ली पुलिस में कार्यरत था  को साथ लेकर ग्रेटर  कैलाश के थाने  जा पहुँचे। वहां पहुंच कर पता चलता है कि 15-16 साल की एक लड़की बालकनी से कूद कर भागने में असमथ्र्य रही और अब वह  तलवार नर्सिंग होम में है। थाने के लोग उसी भाग दौड़ में लगे हैं। गुप्ता जी सीधे तलवार नर्सिंग होम पहुँचते हैं, उस लड़की के बेड के साथ एक अधेड़ उम्र की महिला बैठी है, जो रामबीर सिंह  और गुप्ता जी को   बुरी तरह से हड़का देती है। थाने का एस. एच. ओ. भी उस महिला के इशारे पर दुम हिलाता नजर आता है। अपमानित, उपेक्षित होकर वे दोनों वापस चलने लगते हैं तो रामसिंह गुप्ता जी से मीडिया का सहारा लेने की बात करता है। गुप्ता जी को  अपनी शिष्या मोहनी याद आ जाती है और वे दौनों  टाइम्स ऑफ इंडिया के कार्पयालय की ओर चल देते हैं। मोहिनी उनसे कल तलवार नर्सिंग होम 10 बजे पहुँचने को कह देती है। मोहिनी अपनी टीम के साथ जब वहाँ पहुँचती है, तो उस धनी परिवार की महिला के होश उड़ जाते हैं, एस. एच. ओ. भी भीगी बिल्ली बनकर रह जाता है। लड़की के बयान पर उसके पति को जेल हो जाती है। लड़की का बलात्कार करने की कोशिश करता महिला का  शराबी पति, संवेदनहीन उसकी पत्नी दौनों ही घर में काम करने वाली उस  लड़की की चीखोंको नजरंदाज करदेते हैं । लड़की ठीक होकर अपने गाँव चली जाती है और अखबारों में गुप्ता जी और रामबीर सिपाही की सराहना होती है। मोहिनी को पूर्व गुरू पिता के रूप में मिल जाते हैं, उसके जीवन का एकाकीपन दूर हो जाता है और भाई के रूप में मोहिनी को रामबीर मिल जाता है।


इस लघु कथा में एक ओर भारत में अकेले रह जाने वाले दम्पत्ति के दर्द को उकेरा गया है, अच्छी नौकरी अधिक पैसे की चाहत बच्चों की और कभी कभी माता-पिता की इच्छा भी उन्हें वृद्धावस्था में कैसे अकेला छोड़ देती है। बच्चे बाहर जाकर, वहाँ की संस्कृति में बस जाते हैं। सप्ताह में एक बार, कुछ  महीनों, वर्षों बाद में फोन पर बात करके, वीडियो कॉल से पुत्र धर्म का निर्वाह करते हैं। कभी-कभी तो माँ की मौत पर, तेरहवीं तक रूकने का उनके पास समय नहीं होता है। ऐसा दर्द प्रवासी साहित्यकारों की रचनाओं में खूब नजर आता है। गुप्ता जी भी भारी कर्ज लेकर अपने पुत्र को मकान खरीदने के लिए पैसे देते हैं, नितिन किश्त समय पर जरूर दे देता है। अच्छे मित्र बुढापे में साथ देते हैं। इस कहानी के तीन पात्र लेखक, गुप्ता जी और खुराना जी हैं। कहानी को कहानीकार ने गुप्ता जी के ऊपर केन्द्रित किया है। आदमी जैसा बोता है, वैसा काटता है। गुप्ता जी का जीवन एक आदर्श अध्यापक के रूप में रहा, मोहिनी की  सहायता करना, रामबीर की   पिता की तरह मदद करना, इसका उन्हें वृद्धावस्था में भी फल  मिलता है, उन दोनों की मदद से गुप्ता जी उस लड़की को बचा सके। जिस रूप में हम काम करते हैं, उसमें ईमानदारी, नैतिकता रहनी चाहिए। एक अच्छा नागरिक सजग होता है, उसका उम्र से कोई संबंध नहीं होता है। 80 वर्ष की आयु में सजगता होने के कारण गुप्ता जी लड़की की जान बचा सके। हमें क्या? की सोच से उभरना होगा, तभी समाज आगे बढ़ेगा। हम इतने संदेवनहीन हो गए हैं कि हम हर समय अपने बारे में सोचते हैं, हमें क्या मिलेगा, हम क्यों इसमें पड़े? हमारा इससे क्या लेना देना? इस नीच प्रवृत्ति से उठना समाज और इंसानियत के लिए जरूरी है। अन्यथा इस प्रकार की घटनाएँ और अधिक बढ़ती जायेंगी। ऐसी सोच से निजात दिलाना अप्रत्यक्ष रूप से कहानीकार का उद्देश्य भी है। कहानीकार ने एक सजग नागरिक के रूप में गुप्ता जी के पात्र को समाज से लेकर कहानी को वास्तविक घटना के आधार पर गढ़ा है, जिसके कारण यह कहानी कोरी उपदेशात्मक न होकर, जीवन जीने का ढंग सिखाती है।


लेखक अप्रत्यक्ष रूप से हर कहानी, उपन्यास में विद्यमान रहता है। वह मात्र नरेटर नहीं होता है, उसका व्यक्तित्व, उसकी सोच इधर-उधर झाँकती, संकेत देती नजर आती है। कहानी के तत्वों के आधार पर यह कहानी उम्दा है। कम पात्र, एक घटना, सहज-सरल भाषा की रवानगी ने कहानी को सुंदर बना दिया है। कहानी का मूल प्राण जिज्ञासा होती है। इस कहानी में आरंभ से लेकर अंत तक पाठक की जिज्ञासा बनी रहती है। ऐसी कहानियाँ समाज के हर पहलू को दर्शाती हैं। बुरे, रिश्वतखोर अफसर हैं, तो रामबीर जैसे अच्छे लोग भी समाज में हैं। मीडिया का कार्य आज भी महत्वपूर्ण है, मीडिया ने कितने लोगों को बचाया है, समाज की आवाज को सरकार तक पहुँचाने का कार्य मीडिया करती है। मीडिया लोकतंत्र में गरीबों की आवाज है। कहानीकार का मुख्य उद्देश्य समाज को जागरूक और संवेदनशील बनाना है।


एक विशेष बात - कहानी के लेखक श्री बी  एल गौड़ ने बताया कि सबसे पहले इस कहानी को हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका “ अभिमव इमरोज “ के विद्वान संपादक श्री डी के बहल ने अपनी पत्रिका में स्थान देकर कहनीकार को प्रोत्साहन दिया ,उसका मान बढ़ाया । मैं सुधांशु शुक्ला श्री डी के बहल संपादक अभिनव इमरोज के विषय में इतना अनुमान लगा पाया हूं कि वे एक साहित्य पारखी विद्वान हैं और उन्हें साहित्य की परख है।


सुधांशु कुमार शुक्ला, चेयर हिंदी, आई.सी.सी.आर., वार्सा यूनिवर्सिटी, वार्सा, पोलैंड


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