हिन्दी: भारतीय अस्मिता की पहचान

किसी भी देश के निवासियों में राष्ट्रीय एकता की भावना के विकास और पारस्परिक सम्पर्क को बनाये रखने के लिए एक ऐसी भाषा की आवश्यकता होती है, जिसका व्यवहार राष्ट्रीय स्तर पर किया जा सके। भारतीय जनमानस को जोड़कर रखने के लिए सम्पर्क भाषा के रूप में देश को जिस  भाषा की आवश्यकता है, वह गुण हिन्दी में विद्यमान है। इसलिए कि हिन्दी किसी क्षेत्र, जाति-धर्म एवं सम्प्रदाय की भाषा न होकर भारतीय संरचना में व्याप्त राष्ट्रीय एकता की अद्भुत कड़ी के रूप में जानी जाती है।


सौभाग्य की बात है कि हिन्दी के लिए देवनागरी लिपि के रूप में एक वैज्ञानिक एवं ध्वनि प्रधान लिपि मिली है, जिसका उद्भव ब्राह्मी लिपि से हुआ है, जिससे भारत की प्रायः सभी भाषाओं की लिपियाँ विकसित हुई हैं। प्राचीन भारत में ब्राह्मी और खरोष्ठी नामक दो लिपियाँ प्रचलित थीं। ब्राह्मी लिपि बाईं ओर से दाहिनी ओर तथा खरोष्ठी (गधे के होंठवाली) लिपि फारसी लिपि की तरह दाहिनी ओर से बाईं ओर लिखी जाती थी।


जिस प्रकार संस्कृत ने आस्ट्रिक, द्रविड़, ग्रीक, लैटिन, चीनी, तुर्की, अरबी आदि  भाषाओं के अनेक शब्द आत्मसात कर अपने शब्द भण्डार को समृद्ध किया है। उसी प्रकार हिन्दी ने भी अरबी, फारसी और अंग्रेजी से शब्द ग्रहणकर अपनी शब्द सम्पदा को बढ़ाया है। क्योंकि कोई भी जीवंत भाषा अन्य भाषाओं के शब्द ग्रहणकर अपने शब्द भण्डार को समृद्ध करती है। हिन्दी, हिन्दीभाषी प्रदेशों की 24 भाषाओं एवं अनेक बोलियों से मिलकर बनी है। बोलियों के विकास एवं परिमार्जन से ही भाषा समृद्ध होती है।


भाषा सामाजिकता एवं समस्त ज्ञान-विज्ञानं का आधार होती है। भारत बहुभाषी देश है। इसकी प्रादेशिक भाषाएँ हर दृष्टि से समर्थ हैं। हिन्दी समस्त भारतीय भाषाओं को जोड़ने में संयोजक की भूमिका निभा रही है। बोलियाँ उसकी ताकत हैं। कहा भी गया है कि किसी भी जीवंत भाषा के प्राण उसकी बोलियों में ही बसते हैं। हिन्दी की बोलियों में रचा बसा साहित्य हिन्दी के लिए अजस्र स्रोत की भाँति है। हिन्दी के आँचल में 18 बोलियाँ (खड़ी बोली, ब्रजभाषा, बांगरू, बुन्देली, कन्नौजी,


अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी, मैथिली, मगही, भोजपुरी, सेवाती, मालवी, अहीरवाटी, जयपुरी-हड़ौती, मेवाड़ी, मारवाड़ी, पहाड़ी (पश्चिमी,मध्य एवं पूर्वी) पली-बढ़ी एवं विकसित हुई हैं।


हिन्दी एक जीवंत भाषा है। हम हिन्दी का एक शब्द बोलते हैं तो उस शब्द की प्रकृति एवं संस्कृति का समन्वयात्मक रूप मन की आँखों के सामने साकार हो उठता है। वह शब्द अकेला नहीं अपितु अपनी अर्थ संस्कृति के समस्त अलंकरणों के साथ उपस्थित होता है। ‘गाँव’ शब्द को ही लीजिए। इसका अर्थ केवल उस जगह से तो नहीं है, जहाँ के अधिकांश लोग अशिक्षित और अभाव से भरा जीवन जी रहे होते हैं। बल्कि गाँव जीवन की जरूरतों के लिए ईमानदारी के साथ संघर्ष करने के जज्बे का नाम भी है। घर-आँगन, खेत-खलिहान एवं घर के आसपास स्थित पेड़ की शाखाओं पर घोसले बनाकर रहनेवाले पक्षियों के कलरव ‘गाँव’ शब्द के अर्थ की ही अभिव्यक्तियाँ हैं।


भारत की तरह चीन भी बहुभाषी देश है, परन्तु उसने राष्ट्रीय भाषा का दर्जा अपने देश की सर्वमान्य भाषा मंदारिन (चीनी) को दी है। चीन में पढ़ाई-लिखाई का माध्यम भी यही भाषा है, जबकि चीनी चित्रलिपि से विकसित विश्व की सबसे कठिन लिपियों में एक है। एक लाख करोड़ रुपए की लागतवाली जापान की बुलेट ट्रेन की तकनीक जापानी भाषा के द्वारा ही खोजी गई है। 12 करोड़ की आबादीवाले जापान में 13 नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक हैं। रूस, चीन, जापान, अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस और इजराइल जैसे दुनिया के सभी विकसित देश ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा अपनी भाषा में ही देते हैं।  


भारत को अंग्रेजों से आजाद हुए 72 वर्ष से अधिक हो चुके हैं, किन्तु देश की सर्वमान्य भाषा हिन्दी को राष्ट्रभाषा का सम्मान अब तक नहीं प्राप्त हो सका है। अंग्रेजी मानसिकता से ग्रस्त एवं पाश्चात्य जीवन शैली से प्रभावित कुछ लोग हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की सामथ्र्य पर सवाल उठाते रहते हैं, जबकि हमने अपनी  भाषा में शिक्षा प्राप्त कर विश्व को बुद्ध और महावीर दिए। चरक जैसे शरीर वैज्ञानिक और शुश्रुत जैसे शल्य चिकित्सक दिए। पाणिनि जैसा वैयाकरण, आर्यभट्ट जैसा खगोलविद, पातंजलि जैसा योग गुरु और कौटिल्य जैसा अर्थशास्त्री दिए। तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय भारतवर्ष में ही थे, जहाँ संसार के अन्य देशों के विद्यार्थी ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा ग्रहण करने आया करते थे।


भारतीय संविधान ने हिन्दी को संघ की राजभाषा के रूप में मान्यता प्रदान करते हुए उसके विकास सम्बन्धी अनुच्छेद 351 में कहा है, “संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्त्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी के और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक और वांछनीय हो, वहाँ उसके शब्द भण्डार के लिए मुख्यतः संस्कृत और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।”


परन्तु अंग्रेजी, अंग्रेजों के शासन काल से अब तक देश के शासन की भाषा के रूप में भारतीय जनमानस पर अपना वर्चस्व बनाए हुए है, जबकि जनता के बोलचाल एवं व्यवहार की भाषाएँ भारतीय हैं। उच्च न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय की बहसें आज भी अंग्रेजी में होती हैं। फैसले भी अंग्रेजी में ही लिए जाते हैं। एक ऐसा देश जहाँ की बहुसंख्य जनता को न्यायालय के निर्णय को जानने -समझने के लिए वकीलों की शरण में जाना पड़ता है, जिसके लिए उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ती है।


राजनीतिक लाभ के लिए भाषा को लेकर भड़काऊ बातें करना तमिलनाडु के नेताओं की प्रकृति रही है। इस अहिन्दीभाषी प्रदेश में पहले से हिन्दी विरोधी आवाजें उठती रही हैं। विरोध करनेवालों में प्रदेश के मुख्यमंत्री भक्त वत्सलम और करुणानिधि भी रहे हैं। 26 जनवरी, सन् 1965 को तत्कालीन मुख्यमंत्री भक्त वत्सलम ने हिन्दी विरोध में शोक दिवस मनाया था। हिन्दी विरोध के नाम पर यहाँ संविधान की प्रतियाँ भी जलाई गई थीं। आगे चलकर एक समय ऐसा भी आया जब सन् 1996 में तत्कालीन मुख्यमंत्री करुणानिधि ने विधानसभा के कामकाज से अंग्रेजी हटाने की घोषणा कर दी, जिसका देश भर में जोरदार स्वागत किया गया। बताते चलें कि तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोपालाचार्य ने सन् 1936 में तमिलनाडु में हिन्दी पढ़ना अनिवार्य कर दिया था।


इन दिनों भारत में पाश्चात्य शिक्षा पद्धति पर आधारित अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों की बाढ़-सी आ गई है। इन विद्यालयों की भूमिका के प्रति गहरा आक्रोश प्रकट करते हुए साहित्यकार निर्मल वर्मा जी ने कहा है,“ क्या हम अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी शिक्षा पद्धति में ढले विद्यालयों को भंग करने का साहस रखते हैं ताकि अपनी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मनीषा के अनुरूप भारत की युवा पीढ़ी को नये सिरे से दीक्षित किया जा सके?” वर्मा जी ने राजनेताओं के द्वारा जाति और धर्म के नाम पर की जा रही सौदेबाजी से बचने के लिए जनता को सावधान भी किया है। उन्होंने धर्म को आस्था के स्तर पर भारतीयता की अवधारणा से जोड़ने की अपील की है, ताकि लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा हो सके। गुलामी के दिनों का स्मरण करते हुए वर्मा जी कहते हैं-,“ गुलामी में जीते हुए भी हमारे भीतर वे सभी शक्तियाँ विद्यमान थीं, जो हमें अतीत के प्रति आदर और भविष्य के प्रति आस्था से भर सकें।’’


अंग्रेजों से स्वतंत्रता के बाद प्राथमिक शिक्षा को लेकर


राधाकृष्णन आयोग, मुदालियर आयोग, कोठारी आयोग एवं अन्य राष्ट्रीय तथा सांस्कृतिक महत्त्व की संस्थाओं ने सर्वसम्मति से यह सिफारिश की थी कि बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि बच्चे अपनी मातृभाषा के माध्यम से जो भी सीखते हैं, उनके मन-मस्तिष्क पर उसका गहरा प्रभाव पड़ता है। शोध से यह ज्ञात हुआ है कि किसी विद्यार्थी को विदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ाए जाने पर विषय को समझने के बजाय रटकर याद करना पड़ता है।  मौलिक चिंतन तभी सम्भव है जब शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो।


इंडियन एक्सप्रेस के अक्टूबर, सन् 2017 के अंक में छपी खबर के अनुसार भारत सरकार ने दिल्ली कार्पोरेशन के अन्तर्गत आनेवाले सभी 1700 से अधिक विद्यालयों को अंग्रेजी माध्यम से चलाने का निर्णय लिया है। इसी तरह का अलोकतांत्रिक निर्णय उत्तराखण्ड की सरकार ने अपने यहाँ के 18000 से भी


अधिक विद्यालयों को अंग्रेजी माध्यम का बनाने की घोषणा करके लिया है। इन दिनों उत्तर प्रदेश सरकार भी प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालयों के अंग्रेजीकरण में लगी है। सरकारों के ऐसे फैसले संविधान की मूल भावना के विरूद्ध तो हैं ही, देश के 80 प्रतिशत प्रतिभावान विद्यार्थियों के मौलिक अधिकारों को छीनने जैसे हैं। देश के मुट्ठीभर लोग सत्ता पर अपना आधिपत्य बनाए रखने के लिए अंग्रेजी को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते आ रहे हैं। हमें जब तक भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा नहीं दी जाएगी, तब तक गाँवों की दबी प्रतिभाओं के उभरने और विकास की मुख्य धारा में आने का अवसर उपलब्ध ही नहीं हो सकेगा।  


आजादी के 72 वर्षों के बाद भी सरकारी कार्यालयों में हिन्दी में कार्य करने की संस्कृति का अपेक्षित विकास नहीं हो सका है। स्थिति यह है कि अंग्रेजी आज भी जन-सामान्य के मन-मस्तिष्क पर बोझ के रूप में विराजमान है। महात्मा गाँधी ने अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को हमारी बौद्धिक चेतना के विकास में बाधक बताया था। उन्होंने हिन्दू स्वराज में लिखा था, “अंग्रेजी शिक्षा से द्वेष और अत्याचार बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी है। भारत को गुलाम बनानेवाले तो हम अंग्रेजी जाननेवाले लोग ही हैं।” 5 फरवरी, सन् 1916 को नागरी प्रचारिणी सभा में भाषण देते हुए गाँधीजी ने अपने 36 समर्थकों के साथ जीवनपर्यंत हिन्दी के व्यवहार की शपथ ली थी। उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन और हिन्दी के प्रचार-प्रसार को एक-दूसरे का पूरक बना दिया था।


गाँधीजी ने 27 दिसम्बर, सन् 1917 को कोलकाता में भाषा को जीवन से जोड़ने और जनता के निकटस्थ रहनेवाली चीज बताते हुए कहा था, “यदि हम अंग्रेजी के आदी नहीं हो गये होते तो यह समझने में देर नहीं लगती कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने से हमारी बौद्धिक चेतना जीवन से कटकर दूर हो गई है।” गाँधीजी ने युवकों को हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी और दुनिया की दूसरी भाषाएँ भी सीखने की सलाह दी थी। एक जगह उन्होंने कहा था, “मेरा नम्र लेकिन दृढ़ अभिप्राय है कि जब तक हम भाषा को राष्ट्रीय और अपनी प्रान्तीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज की सब बातें निरर्थक हैं। प्रत्येक प्रान्त में उसी प्रान्त की भाषा तथा सारे देश के पारस्परिक व्यवहार के लिए हिन्दी और अन्तर्राष्ट्रीय उपयोग के लिए अंग्रेजी का व्यवहार होना चाहिए।’’


 


गाँधीजी ने देश के आम आदमी की समझ में आनेवाली भाषा को अपनाने पर बल दिया और आम आदमी की समझ में आनेवाली उस भाषा को उन्होंने ‘हिन्दुस्तानी’ नाम से


संबोधित किया। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्होंने हिन्दीतर प्रदेशों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का संकल्प लिया और सन् 1918 में उन्होंने अपने 18 वर्षीय पुत्र देवदास गाँधी और स्वामी सत्यदेव को हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए मद्रास भेज दिया। हिन्दी के प्रचार के लिए एक कमेटी भी गठित की गयी थी, जिसके सभापति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद जी थे। गाँधीजी ने सन् 1930 में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए वर्धा में ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ की स्थापना की थी। उन्होंने भाषा के सवाल को बड़ी ही गंभीरता से लिया था। भाषा को लेकर हिन्दीभाषी प्रदेश के निवासियों की उदासीनता पर उन्होंने  क्षुब्ध होकर कहा था,“ मुझे खेद है कि जिन प्रान्तों की मातृभाषा हिन्दी है, वहाँ पर भी उस भाषा की उन्नति करने का उत्साह नहीं दिखलाई देता है।”


राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन मानसिक एवं सांस्कृतिक स्वतंत्रता को स्वाधीनता से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे। यह भी मानते थे कि मनुष्य की मानसिक वृत्तियों का विकास मातृभाषा के द्वारा ही सम्भव है। टंडन जी चाहते थे कि विधायिका और कार्यपालिका ही नहीं, अपितु समस्त विश्वविद्यालय एवं देश की न्यायपालिका के कामकाज भी हिन्दी में हों। हिन्दी-हिन्दुस्तानी एकता के पक्षधर जमनालाल बजाज ने मद्रास हिन्दी साहित्य सम्मलेन के अध्यक्ष पद से बोलते हुए कहा था, “हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी ईमान की भाषा है, प्रेम की भाषा है, राष्ट्रीय एकता की भाषा है और आजादी की भाषा है।” हिन्दी और उर्दू भाषा की एकता के सम्बन्ध में उन्होंने कहा था, “हमें इस देश की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों को एक करना है तो उसके लिए हिन्दी और उर्दू का ऐक्य होना चाहिए। इसलिए एक राष्ट्रभाषा का होना जरूरी है।” पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने देश की एकता के लिए हिन्दी की आवश्यकता को इन शब्दों में प्रकट किया है, “मेरी राय है कि सभी राज्यों में बारहवीं कक्षा तक हिन्दी बोलना अनिवार्य कर दिया जाए, ताकि सारे लोग हिन्दी पढ़ना-लिखना सीख सकें।”


राष्ट्रीय एकता के लिए डॉ राममनोहर लोहिया का हिन्दी को अपनाने पर विशेष बल था। लोहियाजी कहा करते थे, “हम समझते हैं कि अंग्रेजी के होते यहाँ ईमानदारी का आना असम्भव है।’’ समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव ने अंग्रेजी का खुलकर विरोध करते हुए राजनेताओ से अपील की थी कि जिस भाषा में वोट माँगते हो, उसी भाषा में प्रशासनिक काम-काज भी करो। कवि ‘अज्ञेय’ ने बड़े दुःख के साथ कहा था,- ”जब हम राजनीतिक दृष्टि से पराधीन थे तब तो हमारे पास स्वाधीन भाषा थी। अब जब हम स्वाधीन हो गये तो हमारी भाषा पराधीन हो गई।“ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जो सरकार जनता से उसकी भाषा में संवाद नहीं करती, वह सरकार अपने उत्तरदायित्व के निर्वहन में अक्षम मानी जाती है।  


आपको ज्ञात होगा कि संविधान लागू होने के मात्र 15 वर्षों तक देश का कामकाज अंग्रेजी में किए जाने का प्रावधान था। उसके बाद हिन्दी को राजभाषा के रूप में पूरे देश में लागू होना था, पर तमिलनाडु के हिन्दी विरोधियों के उग्र एवं अराजक रवैये के आगे झुककर सरकार ने सन् 1963 में ही राजभाषा विधेयक पारित कर दिया, जिससे सन् 1965 के बाद भी देश में अंग्रेजी का वर्चस्व बना ही रह गया।


संवैधानिक दृष्टि से हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है किन्तु अंग्रेजी के वर्चस्व ने उसे उसके ही घर में परमुखापेक्षी बना दिया है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दो राजभाषा अधिनियम बनाये थे। अधिनियम की धारा 3/1 के अधीन हिन्दी के साथ अंग्रेजी को सहभाषा के रूप में अपनाने का निश्चय किया गया था। इसके चलते यह स्थिति बन गई कि पहले हिन्दी के साथ अंग्रेजी को जारी रखने की अवधि 15 वर्ष निश्चित की गई, किन्तु सहभाषा के रूप में इसके प्रयोग की अवधि अनिश्चितकालीन कर अंग्रेजी को अनंत काल तक बने रहने की खुली छूट दे दी गई। राजभाषा अधिनियम की धारा 3/2 के अन्तर्गत यह शर्त रख दी गई कि जब तक भारत के किसी एक भी राज्य की सरकार हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में अपनाने से इनकार कर देती है, तब तक हिन्दी संघ की राजभाषा का दर्जा नहीं प्राप्त कर सकती। राजभाषा अधिनियम 1963 के अनुसार केन्द्रीय सरकार का कामकाज अंग्रेजी में किया जा सकता है। राजभाषा नियम 1976 बनने से ‘क’ क्षेत्र के केन्द्रीय कार्यालयों में कामकाज केवल हिन्दी में, ‘ख’ क्षेत्र में हिन्दी और अंग्रेजी में तथा ‘ग’ क्षेत्र के राज्यों की सरकारों को पत्रादि अंग्रेजी में लिखने का प्रावधान है।


संविधान लागू होने के समय अष्टम अनुसूची में हिन्दी, संस्कृत, गुजराती, मराठी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, बंगाली, उड़िया, मलयालम, पंजाबी, असमिया, उर्दू एवं कश्मीरी सहित कुल 14 भाषाएँ थीं। सन् 1967 में सिंधी, सन् 1992 में कोंकणी, मणिपुरी एवं  नेपाली सहित 18 हो गईं। सन् 2004 में मैथिली, बोडो, संथाली व डोगरी के सम्मिलित हो जाने से अष्टम अनुसूची में अब कुल 22 भाषाएँ हो गई हैं। राजनीतिक स्वार्थसिद्धि के लिए देश के कुछ राजनेता हिन्दी की बोलियों को संविधान की अष्टम अनुसूची में जगह दिलाने की कोशिश में लगे हैं। जबकि हिन्दी की किसी भी बोली को संविधान की अष्टम अनुसूची में सम्मिलित करवाने की कोशिश या हिन्दी को बचाने के लिए देवनागरी लिपि के बजाय उसे रोमन लिपि में लिखने की कवायद अनुचित, अव्यावहारिक एवं हिन्दी को ही कमजोर करने जैसी है। भाषा और बोली के बीच के भेद को शब्दावली से नहीं, बल्कि लिपि के आधार पर समझा जा सकता है। हिन्दी भाषा की इन बोलियों की लिपि भी देवनागरी है और बोलियों को भाषा मान लेने पर नुकसान हिन्दी का ही होना है।


हिन्दी की किसी बोली का अष्टम अनुसूची में सम्मिलित होने के पश्चात् उसका स्वतंत्र अस्तित्व बन जाता है। वह मूल भाषा से अलग  समझी जाने लगती है। हिन्दी की बोलियाँ जब तक हिन्दी के साथ हैं, तब तक उसके बोलनेवालों की गणना हिन्दी के अन्तर्गत होगी। जिस दिन कोई बोली संविधान की अष्टम अनुसूची में शामिल हो जाएगी, उस दिन से उसे अपनी मातृभाषा लिखनेवाले संवैधानिक रूप से हिन्दीभाषी नहीं गिने जाएंगे। आज तक अपने बोलनेवालों की संख्या के बल पर ही हिन्दी राजभाषा के पद पर आरूढ़ है। भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की अष्टम अनुसूची शामिल करने की माँग एक दशक से उठ रही है। हिन्दी की कई बोलियों के संविधान की अष्टम अनुसूची में शामिल हो जाने से हिन्दी का संख्या बल घट रहा है। यदि यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा तो संख्या बल की कमी के चलते एक दिन हिन्दी को देश की राजभाषा के पद से पद्च्युत होना भी पड़ सकता है। ये अंग्रेजीवाले ‘बाँटो और राज करो’ की आदत से बाज आनेवाले नहीं हैं।   


भारतीय संविधान ने भाषा से संबंधित विषयों को


संविधान के अनुच्छेद 120 व 210 तथा अनुच्छेद 343 से 351 तक में वर्णित किया है। इसमें भाषा से संबंधित कुल 11 अनुच्छेद हैं। अनुच्छेद 344(1) व 351 अष्टम अनुसूची की भाषाओं की मान्यता को दर्शाते हैं। यह सुनकर हिन्दी प्रेमी आहत होंगे कि अष्टम अनुसूची में जिन 38 भाषाओं को सम्मिलित किए जाने की बात इन दिनों जोरों पर चल रही है, उसमे एक भाषा अंग्रेजी भी है और जिस दिन अंग्रेजी अष्टम अनुसूची में जगह पा गई, उस दिन संविधान के अनुच्छेद 344(1)व 351 के अनुसार भारत सरकार का संवैधानिक उत्तरदायित्व होगा कि अन्य भारतीय भाषाओं की तरह वह अंग्रेजी का भी ध्यान रखे। क्या अंग्रेजी को अष्टम अनुसूची में जगह दिलाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगानेवालों को नहीं मालूम कि अंग्रेजी को संवैधानिक मान्यता दिलाना दासता की मानसिकता को दृढ़ करने जैसा है?


हिन्दी भारतीय अस्मिता की पहचान है। राजभाषा के रूप में देश के शासकीय प्रयोजनों को सिद्ध करने के साथ राष्ट्रभाषा के रूप में देश की एकता और अखण्डता को मजबूत बनाये रखने का उत्तरदायित्व भी इसके कन्धों पर है। इसमें देश की परम्परा, विश्वास, धर्म, संस्कृति एवं लोकनीति के स्वर समाहित हैं। हिन्दी भारतीय जनमानस के हृदय की भाषा है। भारत का सर्वांगीण विकास  हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की उन्नति के द्वारा ही सम्भव है।


जय हिंदी!


 



पूर्व विभागाध्यक्ष हिंदी, कमला कॉलेज ऑफ मैनेजमेंट स्टडीस बेंगलूर-560053 (कर्नाटक)


-आचार्य बलवन्त, जूड़ी, सोनभद्र (उत्तर प्रदेश


 


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