क्या मालूम
मत कहो अँधेरा है
अँधेरे गहरा जाते हैं
राहें थक जाती हैं
दिशाऐं खो जाती हैं
मकड़ी के जाले से फैलता
यह दिशा भ्रम
और भी भटकाता है
जिन्दगी के पलों को
यहाँ वहाँ अटकाता है
कहना ही है तो कहो कि
रौशनी नहीं है
लगता है
रौशनी से पहचान तो है
उजाले अभी न हों न सही
पहले तो थे
क्या मालूम
दोबारा मुड़कर देखें
मन आस की बूंदोंसे नहा उठता है
न सही बार बार
पर कभी कभार
मत सोचो कि रात है
तब कुछ नहीं सूझता
दिल डूब जाता है
निष्प्राण हो
शरीर ढलक जाता है
रात है कहने से
हल नहीं निकलते
बिना कोशिश के
दीप नहीं जलते
सोचो दिन नहीं है
दिन न सही
दिन का एहसास तो होता है
दिन
जो अब नहीं है
पर कल था
कल में कल छुपा है
कल बीत जाता है
गुज़र कर
नया बन
फिर वापस आता है
दिन भी वाापस आयेगा
दिन निकलने तक
सहारे को
और भी संबल हैं
आते जाते दुःखों से
नहीं होता कम मनोबल है
कमल बंद होता है
कुमुदिनी खिलती है
सूरज डूबता है
चाँदनी चटखती है
मत कहो
कितनी कड़वाहट है जीने में
सैकड़ों शूल बिंध जाते हैं सीने में
सब निस्पंद हो बिखरने लगता है
जीवन का अस्तित्व
ज़हर सा लगने लगता है
कहने से कड़वाहट दूर नहीं होती
सीप के अंदर ही छुपा होता है मोती
कह सको तो कहो
जीवन की मिठास
कम सी हो गई है
भ्रम ही सही
पर लगता है
मीठापन अभी भी बाक़ी है
क्या मालूम
उस मिठास को ढूँढ पाने की लालसा
शायद जीना सिखा जाये
यही छोटे छोटे
शब्द
शब्दों के भाव
हवा में तैरते
क्या मालूम
अर्थपूर्ण बन
जीवन की आड़ी तिरछी हुई
लकीरों को
सँवार दे
आड़ा तिरछा पन दूर न भी हो पाये
एक नई सजावट कौंध जाये
जीवन न बदलेे
सोच बदल जाये
न भी कुछ हो पाये
पर मन बहल जाये
क्या मालूम