मुखौटे
गई मैं बाजार कुछ खरीदने
हुई चकित देख भिन्न-भिन्न मुखौटों को
खरीद लो चाहे कोई भी
दुकानें मुखौटों से भरी पड़ी थी
सोचा मैंने खरीदने को कुछ मुखौटे
पर पाया मुखौटे असली नहीं थे
विध्यमान नहीं थी सत्यता उनमें
लपेटे थे वे झूठ का आवरण
उनमें था अविश्वास, स्वार्थ, घृणा और ईर्ष्या
मेरा मुखौटा भी वहाँ रखा था
तो पाया यह भी कुछ कम नही था
यह था आक्रोश का और तकरार का
दूसरे खरीद-दारों को यह न भाया
पर मुखौटे ऐसे क्यों थे
मैं नादान समझ न पाई
क्योंकि देखा था एक सादगी भरा मुखौटा
क्या यह मुखौटे नहीं बदलेंगे
मैं चाहत और आशा का मुखौटा ढूंढ़ रही थी
पर यह तो मेरे पास था
फिर मैं क्या चाह रही थी,
उससे भी अच्छा मुखौटा
तो ईश्वर दे देना मुझे
और सभी को इस जग में
हो जाय सब तृप्त और निस्वार्थी