ननिहाल

उम्र के इस पड़ाव पर पहुंचते ही पुरानी स्मृतियाँ मानस पटल पर गुदगुदाने लगती हैं। उन्हें याद कर आपकी रूह तक तृप्त हो जाती है। आज मैं उन अनुभवों को स्मरण करती हूँ तो प्रसन्नता के साथ-साथ एक दुखद अनुभूति भी होती है, जो व्यक्ति आपसे इतना प्रेम करते थे, वे कहाँ चले गए ? यह तो संसार का नियम है, जीवन परिवर्तनशील है। जिन्दगी के वे पृष्ठ धीरे-


धीरे मेरी आँखों के समक्ष खुल रहे हैं। मैं कक्षा-छः की विद्यार्थी थी। मनमौजी तो नहीं कह सकते पर उत्सुक अवश्य थी। प्रत्येक घटना, वस्तु की समझने की भी क्षमता थी। दिन बहुत अच्छे गुजरते थे माँ-बाप की ठण्डी छाँव जो थी, छोटे भाई-बहिन भी थे, भरा पूरा परिवार था। हम सब भाई-बहिन गर्मी की छुट्टियों की प्रतिक्षा बहुत ही बेसब्री से करते थे, हर छुटियों में अपने ननिहाल, जाते, नाना-नानी, मामा-मामी एवं मौसियों का प्यार पाते। मेरी एक मौसी मेरे से केवल साढ़े तीन वर्ष ही बड़ी थी, वह मेरी बहिन, मौसी और सहेली सब कुछ थी। मुझे बहुत प्यार करती, मेरे बाल बनाती और अपनी सहेलियों के घर बहुत चाव से ले जाती कभी-2 हम सिनेमा भी देखने जाते और आनन्दित होते। वह जमाना भी क्या खूब था, सुरक्षित था। दिल्ली की आबादी उन दिनों केवल पच्चीस लाख थी। ताँगे भी खूब चलते थे. बसों में भीड का नामों-निशान नही था, आटो रिक्शा भी था। वह कार युग नही था केवल बहुत धनी एवं नामी लोगों के पास ही अपनी कार थी। सड़के खाली। लोग बहुत दूर-दूर से पहाड़गंज तक पैदल ही आते थे। सब्जी एंव फलों की खरीदारी वहीं होती। वह युग साईकिलों का युग था, नौकरी करने बाबू लोग उसी वाहन का प्रयोग करते थे। रोजाना अठारह-बीस किलोमीटर साईकिल चलाना आम बात थी। बड़े बच्चे साईकिल पर विद्यालय जाना अपनी शान समझते थे।


मेरे नाना जी का स्वयं का व्यवसाय था लेकिन वह अपनी दुकान पर पैदल ही जाते थे, शाम को वापिस घर आते तो उनके हाथों में दो थैले सब्जी और फल से भरे होते। सुबह जब वह तैयार होते तो हम सब बच्चे, शिमला, वाली मौसी के बच्चे उनकी इन्तजार में रहते थे, जाने से पहले वे हमें सब को बीस-बीस पैसे देते। सब खुश, फिर हमें प्रतीक्षा रहती चाट वाले की और फल वाले की उन पैसों से भी हम तृप्त होकर खा लेते थे। दोपहर के खाने के बाद हम मलाई-रबड़ी वाले का इंतजार करते और उसके साथ लड़ाई करते और कहते थोड़ी और दे भैया थोड़ी और। उस रबड़ी वाले बर्फ बेचने वाले का चेहरा मुझे आज तक याद है, वह आईसक्रीम को मलाई रबड़ी वाली बर्फ कहता था और पत्तों पर डाल कर देता, क्या स्वाद था आज भी याद करके मुँह में पानी आ जाता है। मेरी सबसे छोटी मौसी से बड़ी मौसी, वह भी अविवाहित थी। वर-ढूँढने की कोशिश मामा जी द्वारा जारी थी। उस मौसी को हम खूब चिढ़ाते विशेष रूप से मैं और मेरी छोटी मौसी। वे अपने पैसे खर्च न करके जमा करती, हम दोनों उनके पैसे ढूंढ लेते और कहते हमें शाम को साईकिल वाले से ठण्डे रसगुल्ले और ठण्डी डबल रोटी लेकर देना जो कि मीठे रस से सराबोर होती। शाम को बासी रोटी के साथ गर्म पकौडे की बात ही कुछ और थी।


फिर शाम होती दोनों मामाजी का आफिस से आने का समय होता नानी जी अंगीठी सुलगा कर खाना बनाने की तैयारी करने लगती। पतीली में अंगीठी पर दाल चढ़ा देती जो धीमी आँच पर पकती रहती। एक ओर दूसरे चूल्हे पर सब्जी पकाती। उसके बाद दो-दो लोगों को बुलाकर गर्म फुल्का सेंक कर देती। पहले बड़े लोगों को फिर बच्चों की बारी आती, क्या स्वादिष्ट गर्म-गर्म खाना था, वह रोटियाँ खाने में भी प्रतियोगिता होती कि कौन ज्यादा खायेगा उस खाने का जायका आज के खाने में कहाँ ? विशेष रूप से सर्दी की छुटियों में हम जब ननिहाल जाते अंगीठी के पास बैठकर खाना खाते, बहुत ही अच्छा लगता।


इन दिनों सुबह सब नहा-धोकर बाहर धूप में बैठने, बिल्कुल कच्ची दीवार के साथ, यह दीवार बहुत लम्बी थी लगभग डेढ़ किलोमीटर इसी दीवार के पीछे बहुत दूर-2 तक फैला हुआ एक बाग था (मोती बाग) आजकल तो वहाँ काफी वर्षों से मकान बन गए हैं उस बाग में नाश्पती, आम, जामुन, अलूचे व अमरूद के अनेक पेड़ थे, हम बच्चे फल तोड़ते और खाते, उस समय माली सो जाता था। जामुन के पेड़ दीवार के बाहर सड़क के किनारे थे, पत्थर और गुलेल मारकर जामुन गिराते, मिलकर बाँटकर खाते बेर और फालसे भी तोड़कर बहुत खाए। उन दिनों आँधियाँ बहुत चलती थी। जिस दिन आंधी चलती उस दिन हमारे वारे-न्यारे हो जाते जामुन, फालसे सड़क पर गिरते और हम सब बच्चे उठाकर धोते और खाते, नाना के घर के थोड़ी ही दूर एक नहर थी जिसके द्वारा बाग में सिंचाई होती थी। उसके किनारे मूली, गाजर और गन्ने भी थे, हम सब मिलकर दो-2 पैसे मिलाते और खरीदकर पेटभर खाते। शाम को भड़भूजे से चना, ज्वार व मक्का भुनवाकर लाते और गर्म-गर्म चबेना खाते।


शाम की प्रतीक्षा बड़ी बेताबी से रहती। गर्मी में कच्ची जमीन पर पानी का छिड़काव करते और अंधेरा पड़ते ही चारपाई लग जाती हाथ का नल था, उसे चलाने में बड़ा मजा आता। घर के सब पुरूष नीचे चारपाईयों पर सोते एवं बच्चे स्त्रियाँ मकान की छत पर। रोज छत की धुलाई की जाती पानी का छिड़काव किया जाता सोने से पहले हम बच्चे अपनी-अपनी ओढ़ने की चादर को गीलाकर निचोड़ लेते और अपने ऊपर डालकर लेट जाते थे गर्म हवा में वह चादर एयर कंडीशनर का भान देती, एक-दूसरे को कहानियाँ सुनते-सुनते सो जाते, गहरी नींद के बाद सुबह-सुबह जब आवाज लगती तभी नींद खुलतीं। गए रात देर तक कभी-2 तारा-गण को गिनने की होड़ लगती। ध्रुव तारे को एक टक देखते, सप्तऋषि तारे देखते उन दिनों आकाश बहुत साफ होता था। प्रदूषण तो जैसे कोसों दूर था सुबह


प्राकृतिक छटा देखते ही बनती थी, बागों से आने वाली सुगन्धित हवा वातावरण में भर जाती थी। नानाजी के मकान मालिक हरियानवी थे। देव जी करोल बाग़ के एक मन्दिर के पुजारी थे सुबह पांच बजे उठकर नहा-धोकर मंदिर जाने की तैयारी में लग जाते। पडिताईन दूध दोहती और मटकी में दही बिलोती। उस छाछ का स्वाद आज भी याद है, रोज छांछ पीने को मिलती थी। देवजी को मंत्रों पर सिद्धि प्राप्त थी। एक अनुभव मुझे स्मरण है, मेरे दाँत में भयानक दर्द हुआ मंत्र के उच्चारण से सामने बिठाकर फट से दर्द को भगा दिया, मुझे आज भी आश्चर्य होता है उसके दस साल बाद तक मुझे दाँत में दर्द नही हुआ।


एक बार मुझे बचपन में नजला हुआ था, सिर में बहुत तीव्र दर्द था मेरी नानी अजवायन और हल्दी को थोड़े से दूध में मिलाकर पेस्ट बनाती और उसे माथे पर लगा देती, बेसन का गर्म-गर्म सीरा पीने को देती तीन दिन में जुकाम ठीक हो जाता।


करोल बाग का वह मंदिर आज भी उसी जगह है, वहाँ देव जी का बेटा जाता है वह पढ़ा-लिखा है लेकिन पुश्तैनी काम करता है, सुना है उसे नशे की लत है, एक शादीशुदा लड़की है जो बहुत मिन्नतों के बाद पैदा हुई। पत्नी घर में अकेली रहती है और देवजी का बेटा वहीं मंदिर में पड़ा रहता है। उन्ही दिनों मेरे मामा की सगाई हुई, उनके ससुर जब भी आते पूरा बाजार ही जैसे खरीद लाते, कोई ऐसा फल नहीं था जो वह न लाते हों। हम बच्चों के मजे हो जाते। नानी इतनी अच्छी थी वे हमें खूब फल देती खाने को। फिर हम सब प्रतीक्षा करते कि अब दुबारा अंकल कब आयेगे और टैक्सी भरकर फल लायेंगे। लिखने को बहुत कुछ है, कोई अन्त नहीं है, सोचती हूँ एक उपन्यास ही लिख डालू। अपने ननिहाल के बारे मे सोचकर आज भी गर्व महसूस करती हूँ। मेरी लेखनी अब विश्राम चाहती है। बाकी


फिर...!      



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