नरेन्द्र मोहन: उपस्थिति को अविस्मरणीय बनाता शब्दों का जादूगर

किस-किस ने साहित्य की विभिन्न विधाओं कविता, कहानी, नाटक पर विभिन्न गोष्ठियों में क्या कहा, किस नयी मान्यता की स्थापना की इस सम्बंध में नरेन्द्र मोहन तथा अन्य साहित्यकारों के दिए वक्तव्यों की जानकारी नहीं रखती। ये नहीं कि मेरा साहित्य से कोई नाता नहीं या जिज्ञासा नहीं पर मैं उस माहौल और परिवेश का आनन्द लेने से क्यों वंचित रह गई इसके


कारणों में जाने लगी तो गुमराह हो जाऊँगी अतः पहुँच जाती हूँ उस पारिवारिक परिवेश में जहाँ चाचाजी (नरेन्द्र मोहन) के साथ जुड़ी अतीत की स्मृतियों में जो मन के किसी कोने में चुपचाप बैठी हैं, अंकित हैं अतः अतीत के पन्ने देखती हूँ जो ज्यों के त्यों हैं कभी कभी किसी उत्सव विवाह और पारिवारिक समारोहों या अन्य मेलमिलाप के अवसरों पर परस्पर सुने सुनाए गए वे प्रसंग परिवार में खुले पलट-पलट कर याद किए गए, बल और गर्व का संचार कर बन्द भी होते रहे पर अब शब्दबद्ध होने के लिए कसमसा रहे हैं तो उन स्मृतियों को छिपाए रखना न्यायोचित नहीं होगा जबकि वो स्मृतियाँ ऐसे व्यक्तित्व से जुड़ी हों जिसकी अपने क्षेत्र में पैठ हो, पहचान हो, वर्चस्व हो अतः एक उच्च कोटि के कवि आलोचक और नाटककार के वैयक्तिक जीवन को उस में सहजता से बुने आत्मीय सम्बन्धों को उस में झलकती रागात्मक प्रवृत्तियों के सच को सामाजिकों से प्रकट करना नितान्त आवश्यक लगता है उन पाठकों के लिए जो नरेन्द्र मोहन को आत्मीय सीमा से परे तक चाहते हैं और उन्हें भीतर तक जानने की मंशा रखते हैं जो नरेन्द्र मोहन को उनकी रचनाओं के माध्यम से जितना जान पाए पर उससे अधिक जानने की जिज्ञासा अभी भी जिनकी शेष रह गयी होगी क्योंकि जो अनन्त और अपरिमित होता है उसे कितना भी परिभाषित कर लिया जाए अपरिभाषित ही रहता है। यह भी सच है उन पर व्यापक स्तर पर शोध संस्मरण लिखे जा चुके हैं। वे अपनी आत्मकथा दो भागों में लिख चुके। हैं जिसमें उनका भीतरी द्वन्द्व, सामाजिक सरोकार पारिवारिक सम्बन्ध वैश्विक चिन्तन की सूक्ष्म दृष्टि रूपायित हुई है जो एक रचनाकार, एक कवि और नाटककार की मनःस्थिति को इतने मार्मिक ढंग से उघाड़ती है कि पाठक को उनके भीतर की सच्चाई, उनका अन्तर्दवन्द्व समझ आने लगता है जो उसे झंझोड़ कर रख देता है।


अब बात करती हूँ बचपन की उन स्मृतियों की जब बहुत बार पापा अपने छोटे भाई के प्रति भातृत्व भाव और वात्सल्य से ओत-प्रोत दिखे और उनके स्नेह से अभिभूत दिखे। नरेन्द्र मोहन पाँच भाई पाँचों एक से बढ़ कर एक सुन्दर, सुयोग्य मृदुभाषी और दादी के प्यारे पर चाचाजी सबसे निराले। दादी का प्रेम शायद सबसे ज्यादा चाचा जी पर बरसा। पापा का अपने छोटे भाई नरेन्द्र के प्रति प्रेम हम बच्चों के समक्ष बहुत बार प्रकट हुआ हालांकि उम्र के शुरुआती दौर में वे ज्यादा बोलते नहीं थे मौन ही रहते थे पर उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते उनका मौन टूटता गया और वे बेहद मुखर होते गए वे प्रेम विह्वल होकर अक्सर कहते, ‘‘नरेन्द्र का जीवन मेहनत अनुशासन और नेकनीयती की कविता है, और मम्मी की ओर उन्मुख होकर इन्हीं लफ्जों को अभिमान से भर, स्मित सहित लय में दोहराते और कहते- ‘‘देख बयी अपने भरा ते सच्ची कविता बोली है, हो सकदा है किसी दा भरा एना विद्वाना‘‘ तब मम्मी के चेहरे पर प्रतिभासित मुस्कान में अपने देवर के लिये इठलाता भाव हम बच्चों की पकड़ में आकर कहीं गहरे हममें भी जम गया था जहाँ से खोद निकाल कर किसी सुनहरी स्याही से पारिवारिक गर्व को मैं कहीं लिख देना चाहती हूँ जहाँ से वो पढ़े जा सकें और समझे जा सकें हालांकि यह मेरे लिये छोटा मुँह बड़ी बात है। अपने दादके परिवार विशेष कर चाचा.चाची से मैं ही नहीं मेरे पतिदेव.कृष्ण मुरारी भी भावनात्मक रूप से जुड़े रहे और जब भी हम उनके पास दिल्ली गए वे जैसा स्नेह और अपनत्व न्यौछावर करते रहे उसे पाकर जो हम महसूस होता रहा है वो वर्णनातीत है।


नरेन्द्र मोहन के रिश्ते अपनी पत्नी अनुराधा चाची जी बच्चों सुमन, मनीषा और अमित से अगाध प्रेम से पूरित आत्मीय प्रगाढ़ और चेतनता से भरपूर तो थे ही समूचे परिवार के साथ रिश्तों के घनत्व के साथ बहता प्रेम हास.परिहास में नाचती मासूमियत के साथ गहरी संवेदनशीलता और निश्छलता का जैसा उजाला उन्होंने पसारा वो दादी.दादा सभी को ज्योतित, प्रसन्न करता रहा और घर में खुशगवार माहौल बनाता रहा। उनका गरिमामय व्यक्तित्व हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत बन गया था।


जब हम छोटे छोटे थे मम्मी अपने देवर की बातें सुनाती और कहती. ‘‘नरिंदर बोलदा है तो उसदे मुँह चैं फुल झरदे ने इतना मीठा साीधा सच्चा ओ बोलदा है। ये बातें मम्मी आत्मविस्मृत होकर सुनाती। वो हमें अक्सर बतार्ती जब वो एम ए हिन्दी में पंजाब विश्वविद्यालय में प्रथम रहे और अखबार में उनका फोटो छपा वे शेव करते हुए अखबार पढ़ रहे थे उन्हें फोटो दिखाई दिया ‘‘किस का फोटो है?‘‘ उन्होंने मन ही मन स्वयं से प्रश्न किया और ध्यान से देखा तो भौचक्के रह गए अपनी तस्वीर देख कर!


मम्मी पाक कला में निपुण थीं और बहुत जायकेदार स्वादिष्ट खाना बनाती घर का हर सदस्य उनके स्वादिष्ट खाने की तारीफ करता पर अपने देवर द्वारा खाने की सराहना के अन्दाज पर वे इतनी बलिहारी थी कि आजीवन उन स्मृतियों के पल.पल में वे जिन्दा रहीं और हमें उस अन्दाजे.बयां की फिदा कर देने वाली टोन सुना कर प्रसन्न होती रहीं।


परिवार में सभी चाय पीने के शौकीन थे और इसके नियत समय निर्धारित थे पर कोई कड़ा अनुशासन भी नहीं बना हुआ था। जब जो चाहे चाय की इच्छा व्यक्त कर चाय बनवा सकता था। जब परिवार के सभी सदस्य इक्कटठे एक साथ मिलकर बैठते और परस्पर बातचीत कर रहे होते तो न जाने कहाँ से किस से चाय का शब्द संवादों में छोड़ दिया जाता। चाय की तलब होने पर चाय पीने का आग्रह जब कोई नहीं करता तब इस तलब को भांप कर चाचा जी जिस निराले अन्दाज में शब्दों में चाशनी चढ़ी मधुर आवाज में ना में हाँ की पेशकश कुछ इस तरह करते ‘मैंने चाय नहीं पीनी’. ‘मैं चाय पीता ही नहीं’, ‘हम चाय क्यों पीएं’, यही वाक्य रस ले.ले कर मुस्कान सहित वे दोहराते तो ऐसा प्रतीत होता मानो सचमुच के फूल गिर रहे हों इस में एक दो भाइयों की आनंद मग्न ध्वनियाँ और शामिल हो जाती। नरेन्द्र मोहन के इन वाक्यों ‘‘मैंने चाय नहीं पीनी.....के आरोह.अवरोह में एक विशिष्ट तान गति, लय, ध्वनि, नाद, गीतात्मकता मृदुता, हास्य का अनूठा संयोजन ऐसा गजब का होता था जिस पर सब मंत्रमुग्ध हो जाते। ऐसा जादू सा वे करते चाय बिन कहे तैयार होती और चाय के दीवानों के सम्मुख हाजिर हो जाती। ये मंजर ऐसा है जो मेरी आँखों ने साक्षात देखा है, कानों ने सुना है और अमिट है और मुझे परिवार के साथ एकत्व मनाता हँसी. ठिठोली का मधु पिलाता अपनी उपस्थिति को अविस्मरणीय बनाता शब्दों का ये जादूगर कभी नहीं भूला। चाय पीने का परिवार.सहित इतना स्वाद, रोचक मनोरंजक और तन.मन में जोश भर देने वाला सादे सरल वाक्यों में चमत्कार प्रभाव बिन बनाए बनाया जा सकता है ये सोच कर हम विस्मित होते थे।


ठीक से याद नहीं कौन सी कक्षा में पढ़ रही थी जब पहली बार दिल्ली कीर्ति नगर चाचा जी के घर आयी थी। उन दिनों दादी.दादा वहीं पर थे। यहाँ आकर मैं चाची जी की गृह कुशलता और व्यवस्था देख कर बहुत प्रभावित हुई थी। वे सचमुच एक सुघढ़ गृहिणी थी। घर की प्रत्येक वस्तु यथास्थान करीने और कलात्मक ढंग से वो रखती थीं। घर की सारी व्यवस्था वे स्वयं देखती थीं। एक तरफ बैठक में चाचा जी की तरतीब से रखी ढेर सारी पुस्तकें लकड़ी की शानदार और कलात्मक अल्मारी में रखी थीं जिनमें उनकी अपनी लिखी भी शामिल थीं।कक्ष में ये कोना साहित्यिक परिवेश को जीवंत सा करता लगता। उस अल्मारी के ऊपर चाची जी के व्यक्तित्व की छाप सजावट का थोड़ा सा सामान और उसके साथ ही एक फूल.दान में वृक्ष की टहनी या झाड़ी के सूखे पीले पत्तों को सही अनुपात में काट, तराश कर टुथपेस्ट के लाल ढक्कन और सफेद मोतियों को फूलों की तरह टांक कर छोटा सुनहरा सोने का गुलदस्ता उन्होंने सजा दिया था। जो उनके सौंदर्य बोध की छाप से पूरे कक्ष को दीप्ति दे रहा था। इस के एक तरफ दीवार पर थोड़ा ऊँचे चाची जी के द्वारा लाल रंग के कपड़े जिस पर कुछ और रंग भी मिश्रित थे उस को गोलाकार आयताकार त्रिकोणीय और वर्गाकार छोटे बड़े टुकड़ों में काट कर उसे एक चैरस फ्रेम में शीशा लगा कर जड़ित किया था जिसे देख कर मुझे लगता था जैसे वो किसी श्रेष्ठ चित्रकार की सुन्दर कृति टॅगी हो। कमरे की हर दिशा में ही नहीं समूचे घर में इस दम्पति का अक्स अस्तित्व कला साहित्य के प्रति साधना समर्पण और ‘अतिथि देवो भव का उजाला विराजमान रहता था जो आगुन्तकों मेहमानों को ऐसा अपनत्व देता था जिसकी आज के युग में हमसे कमी रह गई है। बिलकुल इसकी विपरीत दिशा में एक दीवान जिस पर स्वच्छ चादर बिछी रहती थी चाचाजी लेखन कार्य करते.करते जब थक जाते उस पर विश्राम करते। उसके साथ ही एक मेज और कुर्सी लगी थी जिस पर चाचाजी लेखन कार्य उन दिनों करते थे। आज भी उनका अध्ययन कक्ष वैसा ही अनगिनत पुस्तकों से तरतीब से सुसज्जित, सुनियोजित और व्यवस्थित है।


नरेंद्र मोहन की रचना.कर्म में तल्लीनता मुझे बहुत प्रभावित करती थी। मुझे थोड़ा बहुत पता रहता था वे क्या लिख रहे हैं। उनकी साहित्यिक गतिविधियों और उपलब्धियों के बारे में उस समय प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं के माध्यम से भी जान लेती थी लेखन कार्य में व्यस्त होने के बावजूद भी वे मेरा लिखा सुनने के लिए चाची जी को भी शामिल करते। दोनों मेरे लिखे पर प्रतिक्रियाएं देते और मुझे लिखने के लिए प्रोत्साहित भी करते उत्साह बढ़ाने के लिए दादा जी भी पीछे नहीं रहते। मैं अक्सर उन्हें अपनी कविताएँ सुनाती। बहुत बार मुझसे कविता सुनने की इच्छा उन्होंने ये कह कर की सुषमा क्या लिखा है हम तेरा कलाम सुनना चाहते हैं। जब भी मैं उनके पास गई हर बार उन्होंने अपनी कोई न कोई काव्य-कृति मेरा नाम लिख कर अपने हस्ताक्षर कर दी उनसे उनके द्वारा लिखी पुस्तकें पाकर मुझे हमेशा गर्व हुआ।


उन दिनों डाइनिंग टेबल नहीं था हम सब नीचे बड़ी सी दरी पर एक मेजपोश बिछा कर सब मिलकर भोजन करते। चाची जी के हाथ की मूंग साबुत गर्म.गर्म दाल और गोभी की सब्जी, आम का अचार तो मुझे कभी भूला ही नहीं। सब के साथ मिलकर खाने का स्वाद लेते हुए चाचाजी का परिहास करते हुए ये कहना ‘‘अनुराधा देख ! सुषमा डाइटिंग करती है खाना इसीलिये कम खाती है।’’ उन दिनों मुझे पता नहीं था पतला या स्लिम होने के लिए डाइटिंग की जाती है। पर उनके मुख से अपने पर लक्षित चुटीली और हास्य विनोद से भरी बातें सुन नयी शक्ति का संचार हो जाता था। ऐसा भी नहीं था वे हर समय मजाक के मूड में रहते हों अपने अध्ययन लेखन.कक्ष में तो वे हमेशा धीर गम्भीर एवं शान्त मुद्रा में रहते हैं।


दीपावली के त्यौहार की पदचाप सुनाई देने लगी थी। चाची जी को कुछ खरीददारी करनी थी। चाचा जी चाची जी मुझे भी बाजार साथ ले गए। हम घर से निकल कर मुख्य सड़क पर आने के लिए पैदल चल रहे थे उसी मार्ग से विपरीत दिशा से दो लड़कियां 9-10 मीटर की दूरी से मुस्कराते हुए हमारे सामने से आ रही थीं। उनकी प्यारी मुस्कान नोटिस करने वाली थी और चाचा जी पर टिकी थी।उनकी मुस्कान लक्षित कर चाचा जी चाची जी से चलते.चलते बोले, अनुराधा तुम ने देखा वो लड़कियां मुझे देख कर मुस्कुरा रही हैं। और फिर मुझे बोले, ‘‘सुषमा वो लड़कियां मुझे देख कर मुस्करा रही है ना ‘‘ इसी बीच लड़कियां हमारे समीप से निकल चुकी थी। मुस्कान किस पर केन्द्रित है चाची जी चाहे पहले ही देख चुकी थी पर सदाबहारी हँसी से जानबूझ कर कहा कौन सी और हम तीनों का ठहाका इतने जोर का था कि आस.पास सड़क पर चल रहे लोगों ने सरसरी हैरत से देखा था। चाचा जी चुप रह जाते और इस एक पल की घटना भीतर की तहों में दब जाती।पल.पल को आनन्द से जीना और पल के आनन्द को बाँट.बाँट कर जीने वाला भीतर का उल्लास और आह्लाद निर्विकार साँझा करने वाला मनुष्य कलाविद नरेंद्र मोहन है। उस समय मुझे इस दम्पत्ति के मध्य अन्तरंगता निश्छलता और परस्पर पारदर्शिता का ऐसा समन्वय महसूस हुआ था जहाँ एक दूसरे के लिए समझ विकसित हो चुकी होती है।


एक और स्मृति है जिसकी परिवार में चर्चा होती रही। उन दिनों नरेंद्र मोहन खालसा कॉलेज में पढ़ा रहे थे युवा, लम्बा.ऊँचा कद, सिनेमा के हीरो.सा आभा से मण्डित भोला.भाला तेजयुक्त मुखमण्डल, मीठी चितवन और पूरे व्यक्तित्व में प्रस्फुटित होता अभिजात्य सरल मुस्कान वाणी में मृदुता कुलीनता की ठसक का स्वाभाविक वरदान पाये इस लेखक व्याख्याता नरेंद्र मोहन के पास एक अध्येता लड़की के पिता विवाह का प्रस्ताव लेकर पहुंचे गये थे तब उन्होंने मजाक करते हुए कह दिया था जो भी है पहले मेरी पत्नी से पूछा लो। पत्नी के साथ गहरा प्रगाढ़ संबंध उसके साथ मस्त मस्ती खुला पन कहीं किसी प्रकार की गोपनीयता से परे अभेद की स्थिति गांठ, ग्रन्थि से हीन जहाँ से हृदय में बहती शुभ स्वच्छ प्रेम की नदी में सहजता से विहार कराने का विश्वास उनके पास रहा। सचमुच चितवन में ऐसा गजब का सम्मोहन तो है ही जो सुजान को वश में करने की ताकत रखता है ऐसे चरित्रों को पहचान कर ही कवि ने कहा होगा.


‘‘वह चितवन और कछु


जही बस होत सुजान ‘‘


मेरे विवाह पर जब वे हिसार पहुँचे तो उनके आने से घर में चार चाँद लग गए थे। दादी-दादा, ताया जी तायी जी और बहुत सारे अतिथि पहुँच चुके थे। चाय नाश्ता लेकर वे मेरे पास आकर बैठे और कुशल.क्षेम पूछ कर इनके बारे में बात की और कुछ अलग सी मुस्कान से इनका नाम पूछा तो मैं समझ गई वे हास.परिहास की मुद्रा में हैं थोड़े संकोच से मैंने कृष्ण मुरारी नाम लिया नाम सुनकर वे जैसे कृष्ण प्रेम में खोकर उस असीम और अपार का गुणगान करने लगे। “कृष्ण की इस काव्यात्मक स्तुति में मुझे इनकी अनुशंसा का भाव भी विभोर करता रहा था और अतिथियों का आनन्द तो उनके मुखड़ों से जैसा देखा गया वो आज तक मुझे विस्मृत नहीं हुआ है। शाम को लेडीज संगीत का कार्यक्रम था जिसमें घर की स्त्रियों ने पारम्परिक गीत गाए। इस लेडीज संगीत में पुरुषों ने विशेष कर चाचाजी ने और जग मोहन ताया जी ने ‘‘मैं तो तम्बाखू पीऊँगी’’ सुनाया जिसने सब को हँसी से लोट.पोट कर दिया।


विवाह के पश्चात जब हम दोनों पहली बार कीर्ति नगर वाले घर गए तब तक डाइनिंग टेबल खिड़कियों के समीप लग गया था सुमन मनीषा और अमित बड़े हो चुके थे चाची जी विविध प्रकार के व्यजंनों से टेबल भर देती और बड़े प्यार से ‘इनको परोसती तो चाचाजी और सुमन नकली ईर्ष्या व्यक्त कर प्यारी.प्यारी प्यार भरी फब्तियां कसते तो सारे कमरे में सभी की हँसी झंकृत हो जाती। पिता का बच्चों के साथ और बच्चों का पिता के साथ सहज विनम्र और शालीन व्यवहार और वार्तालाप जो प्रज्ञा के ऊँचे स्तर तक पहुंच कर हँसी की अनुगूंज से सभी को आहलाद से भर दे ऐसा पारिवारिक परिवेश मेरे देखने में कहीं नहीं आया।


उनके घर में छोटी.छोटी बात चुटीली ऐसी अदा भोले पन में समाहित नोक झोंक शरारत और ठिठोली सहित कहने सुनने की प्रकृति रही है कि उसके साक्षी को मेरी तरह हमेशा लगा होगा ये हँसी ठिठोली कभी न रुके। यहीं पर मैंने हँसी के जल से भरे श्वेत फव्वारे बहते हुए देखे भी थे और उसकी ध्वनियां सुनी भी थी। इतना आकर्षक मनमोहक हास.परिहास का नज़ारा! बच्चों का प्रत्यक्ष.अप्रत्यक्ष तरीकों से साहस और मनोबल बढ़ाया जा सकता है ये रहस्य पता नहीं उन्होंने कहाँ से सीखा? मैंने ऊर्जा से भरी तरंगों में मस्त होकर आज़ादी से तैरते अनुशासित बच्चों को इस घर में देखा है।


जब मैं पीएचडी कर रही थी मुझे नरेन्द्र मोहन जी का भरपूर सहयोग और मार्ग दर्शन मिला विशेष कर तब जब


सैद्धान्तिक पक्ष तैयार हो चुका था और मेरी समझ में नहीं आ रहा था व्यावहारिक पक्ष कैसे शुरू करना है तब उन्होंने जैसे समझाया निर्देशन दिया उसके पश्चात मेरे शोध कार्य ने गति पकड़ी थी।


चाची जी के निधन ने उन्हें तोड़ कर रख दिया वे जैसे जड़ हो गये थे। चाची जी के अभाव और वियोग से संतप्त मनःस्थिति में लिखे काव्य में दर्द पराकाष्ठा पर है।


‘‘पूरे घर को उजलाता


वह दीया नहीं होगा


जो मेरे लिए बराबर जलता रहा ‘‘


उनके स्नेह से अभिभूत होकर लिखी कविताओं को काव्य.गोष्ठी में पढ़ते हुए भीगी आँखों की नमी को छिपाते वेदना के अथाह सागर को सोखने का भरसक प्रयत्न करते आँखों की कोरों पर रुके बिन्दु क्या हरेक श्रोता काव्य अनुरागी और स्वजनों से छिपा कर रख सकते हैं?


नरेंद्र मोहन ने मुझे जो भी पुस्तक दी उसे मैंने पढ़ा। उनकी कविताओं ने मुझे प्रभावित किया। उनकी लिखी ‘मेरी प्रिय कविताएं’ वैसे तो बहुत सारी हैं पर कुछ कविताएँः जैसे इस हादसे में रक्तपात, सेवक राम, एलर्जी, कहाँ खत्म होती है बात, क्या नदी मर चुकी है? भाषा-कर्म पेड़, हथेली पर अंगारे की तरह, मुझे कल्पना दो, पहाड़ नीली कमीज-सा, चुप्पी, शब्द एक आसमान, क्यों, एक खिड़की खुली है अभी, अँधेरा-उजाला, जैसे हम पाते हैं प्रेम, पुतली नाच, मुर्दा या जिंदा, दिल्ली में लाहौर, लाहौर में दिल्ली, खंभे मुँह ताकतें रहे। बाल्यावस्था में आगजनी मारकाट लाशों के भयावह दृश्यों, दहला देने वाली चीखों ने उन्हें ऐसा सन्ताप और तनाव दिया जो जीवन भर उनके भीतर जिंदा रहा। अपने घर शहर से टूटने और देश के विभाजन का दर्द नरेंद्र मोहन की कविताओं में प्रतिफलित हुआ -


“अँधेरे में साया/अँधेरे में चीख/दिल्ली में लाहौर/लाहौर में दिल्ली/खींचता लाहौर/भींचता दिल्ली/दोनों से निर्वासित/दोनों से जुदा/अपने को खोजता/एक घर तलाशता/हॉफ-हॉफ जाता‘‘


नरेंद्र मोहन बहु-आयामी प्रतिभा से सम्पन्न वरिष्ठ साहित्यकार कवि आलोचक और नाटककार हैं। शब्द का सार्थक और कारगर प्रयोग उन्होंने किया है।


“लौटता हूँ शब्द में/शब्द में एक कुआँ है/जिस में झांकता हूँ/शब्द में एक समुद्र है/जिस में उतरता हूँ/शब्द में एक आसमान है/जिस में उड़ता हूँ‘‘


उनकी कविताएँ सुनने का सुअवसर मुझे दो तीन बार मिला एक बार दिल्ली विश्वविद्यालय में उनके काव्य.संग्रह ‘‘नीले घोड़े पर सवार पर एक काव्य.गोष्ठी आयोजित की गई, जिसमें डॉ नरेंद्र मोहन ने काव्य.पाठ किया। बहुत से सहित्याकार मौजूद थे। इस अवसर पर चाची जी भी उपस्थित थी। मेरे काव्य संग्रह के लोकार्पण पर भी उन्होंने कविताएँ सुनायीं थी। दिल्ली साहित्य अकादमी में कार्यक्रम कविसंधि के अन्तर्गत लगभग एक घण्टे उनका काव्य.पाठ था। हाल खचाखच भरा था। जिसमें तीन पीढ़ियों के काव्य अनुरागी और साहित्य साधक विराजमान थे जैसे ही नरेंद्र मोहन ने काव्य.पाठ शुरू किया हाल में चुप्पी और मौन छा गया था। बीच बीच में कविताओं का आस्वाद लेते हुए हृदयस्पर्शी कविताओं पर दाद और वाह के स्वर भावकों के मुख से बड़े शालीन ढंग से धीमे धीमे स्वरों में गुंजित हो रहे थे। कविता का समुद्र बहता जा रहा था। कवि कविता और सहृदयों का त्रिकोणीय मेल और तादात्म्यता की साक्षी में स्वयं भी काव्य रस में डूब गई थी। नरेंद्र मोहन उस के इस पड़ाव में अपने मनोबल के कारण रचना कर्म में सक्रियता और निरन्तरता बनाए हुए है जिसके फलस्वरूप उनकी चार-पांच नवीन पुस्तकें इसी वर्ष प्रकाशित हुई हैं।


उनकी रचनात्मकता में पैनी, तीखी धार है, विसंगत पर प्रहार है जो उन्हें कबीर के निकट ले आता है। परिवार में लेखन प्रतिभा का वर लिए वे ऐसे प्रकाशपुंज है जिनका आलोक न केवल साहित्य जगत को मिला अपितु उन सबको मिला है जो नरेंद्र मोहन के सम्पर्क में आए हैं। इस यशस्वी, विख्यात और उत्कृष्ट लेखक और कुलदीपक ने सृजन.साधना से समूचे कुल परिवार और देश को रोशनी दी है और अँधेरों को चीर नवीन सम्भावनाओं की खिड़कियां खुली होने का भरोसा दिलाया है।


‘‘घुप्प अँधेरे में/देखता है/सीढ़ीनुमा एक खिड़की/खुलती हुई। आसमान की तरफ’’


किस-किस ने साहित्य की विभिन्न विधाओं कविता, कहानी, नाटक पर विभिन्न गोष्ठियों में क्या कहा, किस नयी मान्यता की स्थापना की इस सम्बंध में नरेन्द्र मोहन तथा अन्य साहित्यकारों के दिए वक्तव्यों की जानकारी नहीं रखती। ये नहीं कि मेरा साहित्य से कोई नाता नहीं या जिज्ञासा नहीं पर मैं उस माहौल और परिवेश का आनन्द लेने से क्यों वंचित रह गई इसके


कारणों में जाने लगी तो गुमराह हो जाऊँगी अतः पहुँच जाती हूँ उस पारिवारिक परिवेश में जहाँ चाचाजी (नरेन्द्र मोहन) के साथ जुड़ी अतीत की स्मृतियों में जो मन के किसी कोने में चुपचाप बैठी हैं, अंकित हैं अतः अतीत के पन्ने देखती हूँ जो ज्यों के त्यों हैं कभी कभी किसी उत्सव विवाह और पारिवारिक समारोहों या अन्य मेलमिलाप के अवसरों पर परस्पर सुने सुनाए गए वे प्रसंग परिवार में खुले पलट-पलट कर याद किए गए, बल और गर्व का संचार कर बन्द भी होते रहे पर अब शब्दबद्ध होने के लिए कसमसा रहे हैं तो उन स्मृतियों को छिपाए रखना न्यायोचित नहीं होगा जबकि वो स्मृतियाँ ऐसे व्यक्तित्व से जुड़ी हों जिसकी अपने क्षेत्र में पैठ हो, पहचान हो, वर्चस्व हो अतः एक उच्च कोटि के कवि आलोचक और नाटककार के वैयक्तिक जीवन को उस में सहजता से बुने आत्मीय सम्बन्धों को उस में झलकती रागात्मक प्रवृत्तियों के सच को सामाजिकों से प्रकट करना नितान्त आवश्यक लगता है उन पाठकों के लिए जो नरेन्द्र मोहन को आत्मीय सीमा से परे तक चाहते हैं और उन्हें भीतर तक जानने की मंशा रखते हैं जो नरेन्द्र मोहन को उनकी रचनाओं के माध्यम से जितना जान पाए पर उससे अधिक जानने की जिज्ञासा अभी भी जिनकी शेष रह गयी होगी क्योंकि जो अनन्त और अपरिमित होता है उसे कितना भी परिभाषित कर लिया जाए अपरिभाषित ही रहता है। यह भी सच है उन पर व्यापक स्तर पर शोध संस्मरण लिखे जा चुके हैं। वे अपनी आत्मकथा दो भागों में लिख चुके। हैं जिसमें उनका भीतरी द्वन्द्व, सामाजिक सरोकार पारिवारिक सम्बन्ध वैश्विक चिन्तन की सूक्ष्म दृष्टि रूपायित हुई है जो एक रचनाकार, एक कवि और नाटककार की मनःस्थिति को इतने मार्मिक ढंग से उघाड़ती है कि पाठक को उनके भीतर की सच्चाई, उनका अन्तर्दवन्द्व समझ आने लगता है जो उसे झंझोड़ कर रख देता है।


अब बात करती हूँ बचपन की उन स्मृतियों की जब बहुत बार पापा अपने छोटे भाई के प्रति भातृत्व भाव और वात्सल्य से ओत-प्रोत दिखे और उनके स्नेह से अभिभूत दिखे। नरेन्द्र मोहन पाँच भाई पाँचों एक से बढ़ कर एक सुन्दर, सुयोग्य मृदुभाषी और दादी के प्यारे पर चाचाजी सबसे निराले। दादी का प्रेम शायद सबसे ज्यादा चाचा जी पर बरसा। पापा का अपने छोटे भाई नरेन्द्र के प्रति प्रेम हम बच्चों के समक्ष बहुत बार प्रकट हुआ हालांकि उम्र के शुरुआती दौर में वे ज्यादा बोलते नहीं थे मौन ही रहते थे पर उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते उनका मौन टूटता गया और वे बेहद मुखर होते गए वे प्रेम विह्वल होकर अक्सर कहते, ‘‘नरेन्द्र का जीवन मेहनत अनुशासन और नेकनीयती की कविता है, और मम्मी की ओर उन्मुख होकर इन्हीं लफ्जों को अभिमान से भर, स्मित सहित लय में दोहराते और कहते- ‘‘देख बयी अपने भरा ते सच्ची कविता बोली है, हो सकदा है किसी दा भरा एना विद्वाना‘‘ तब मम्मी के चेहरे पर प्रतिभासित मुस्कान में अपने देवर के लिये इठलाता भाव हम बच्चों की पकड़ में आकर कहीं गहरे हममें भी जम गया था जहाँ से खोद निकाल कर किसी सुनहरी स्याही से पारिवारिक गर्व को मैं कहीं लिख देना चाहती हूँ जहाँ से वो पढ़े जा सकें और समझे जा सकें हालांकि यह मेरे लिये छोटा मुँह बड़ी बात है। अपने दादके परिवार विशेष कर चाचा.चाची से मैं ही नहीं मेरे पतिदेव.कृष्ण मुरारी भी भावनात्मक रूप से जुड़े रहे और जब भी हम उनके पास दिल्ली गए वे जैसा स्नेह और अपनत्व न्यौछावर करते रहे उसे पाकर जो हम महसूस होता रहा है वो वर्णनातीत है।


नरेन्द्र मोहन के रिश्ते अपनी पत्नी अनुराधा चाची जी बच्चों सुमन, मनीषा और अमित से अगाध प्रेम से पूरित आत्मीय प्रगाढ़ और चेतनता से भरपूर तो थे ही समूचे परिवार के साथ रिश्तों के घनत्व के साथ बहता प्रेम हास.परिहास में नाचती मासूमियत के साथ गहरी संवेदनशीलता और निश्छलता का जैसा उजाला उन्होंने पसारा वो दादी.दादा सभी को ज्योतित, प्रसन्न करता रहा और घर में खुशगवार माहौल बनाता रहा। उनका गरिमामय व्यक्तित्व हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत बन गया था।


जब हम छोटे छोटे थे मम्मी अपने देवर की बातें सुनाती और कहती. ‘‘नरिंदर बोलदा है तो उसदे मुँह चैं फुल झरदे ने इतना मीठा साीधा सच्चा ओ बोलदा है। ये बातें मम्मी आत्मविस्मृत होकर सुनाती। वो हमें अक्सर बतार्ती जब वो एम ए हिन्दी में पंजाब विश्वविद्यालय में प्रथम रहे और अखबार में उनका फोटो छपा वे शेव करते हुए अखबार पढ़ रहे थे उन्हें फोटो दिखाई दिया ‘‘किस का फोटो है?‘‘ उन्होंने मन ही मन स्वयं से प्रश्न किया और ध्यान से देखा तो भौचक्के रह गए अपनी तस्वीर देख कर!


मम्मी पाक कला में निपुण थीं और बहुत जायकेदार स्वादिष्ट खाना बनाती घर का हर सदस्य उनके स्वादिष्ट खाने की तारीफ करता पर अपने देवर द्वारा खाने की सराहना के अन्दाज पर वे इतनी बलिहारी थी कि आजीवन उन स्मृतियों के पल.पल में वे जिन्दा रहीं और हमें उस अन्दाजे.बयां की फिदा कर देने वाली टोन सुना कर प्रसन्न होती रहीं।


परिवार में सभी चाय पीने के शौकीन थे और इसके नियत समय निर्धारित थे पर कोई कड़ा अनुशासन भी नहीं बना हुआ था। जब जो चाहे चाय की इच्छा व्यक्त कर चाय बनवा सकता था। जब परिवार के सभी सदस्य इक्कटठे एक साथ मिलकर बैठते और परस्पर बातचीत कर रहे होते तो न जाने कहाँ से किस से चाय का शब्द संवादों में छोड़ दिया जाता। चाय की तलब होने पर चाय पीने का आग्रह जब कोई नहीं करता तब इस तलब को भांप कर चाचा जी जिस निराले अन्दाज में शब्दों में चाशनी चढ़ी मधुर आवाज में ना में हाँ की पेशकश कुछ इस तरह करते ‘मैंने चाय नहीं पीनी’. ‘मैं चाय पीता ही नहीं’, ‘हम चाय क्यों पीएं’, यही वाक्य रस ले.ले कर मुस्कान सहित वे दोहराते तो ऐसा प्रतीत होता मानो सचमुच के फूल गिर रहे हों इस में एक दो भाइयों की आनंद मग्न ध्वनियाँ और शामिल हो जाती। नरेन्द्र मोहन के इन वाक्यों ‘‘मैंने चाय नहीं पीनी.....के आरोह.अवरोह में एक विशिष्ट तान गति, लय, ध्वनि, नाद, गीतात्मकता मृदुता, हास्य का अनूठा संयोजन ऐसा गजब का होता था जिस पर सब मंत्रमुग्ध हो जाते। ऐसा जादू सा वे करते चाय बिन कहे तैयार होती और चाय के दीवानों के सम्मुख हाजिर हो जाती। ये मंजर ऐसा है जो मेरी आँखों ने साक्षात देखा है, कानों ने सुना है और अमिट है और मुझे परिवार के साथ एकत्व मनाता हँसी. ठिठोली का मधु पिलाता अपनी उपस्थिति को अविस्मरणीय बनाता शब्दों का ये जादूगर कभी नहीं भूला। चाय पीने का परिवार.सहित इतना स्वाद, रोचक मनोरंजक और तन.मन में जोश भर देने वाला सादे सरल वाक्यों में चमत्कार प्रभाव बिन बनाए बनाया जा सकता है ये सोच कर हम विस्मित होते थे।


ठीक से याद नहीं कौन सी कक्षा में पढ़ रही थी जब पहली बार दिल्ली कीर्ति नगर चाचा जी के घर आयी थी। उन दिनों दादी.दादा वहीं पर थे। यहाँ आकर मैं चाची जी की गृह कुशलता और व्यवस्था देख कर बहुत प्रभावित हुई थी। वे सचमुच एक सुघढ़ गृहिणी थी। घर की प्रत्येक वस्तु यथास्थान करीने और कलात्मक ढंग से वो रखती थीं। घर की सारी व्यवस्था वे स्वयं देखती थीं। एक तरफ बैठक में चाचा जी की तरतीब से रखी ढेर सारी पुस्तकें लकड़ी की शानदार और कलात्मक अल्मारी में रखी थीं जिनमें उनकी अपनी लिखी भी शामिल थीं।कक्ष में ये कोना साहित्यिक परिवेश को जीवंत सा करता लगता। उस अल्मारी के ऊपर चाची जी के व्यक्तित्व की छाप सजावट का थोड़ा सा सामान और उसके साथ ही एक फूल.दान में वृक्ष की टहनी या झाड़ी के सूखे पीले पत्तों को सही अनुपात में काट, तराश कर टुथपेस्ट के लाल ढक्कन और सफेद मोतियों को फूलों की तरह टांक कर छोटा सुनहरा सोने का गुलदस्ता उन्होंने सजा दिया था। जो उनके सौंदर्य बोध की छाप से पूरे कक्ष को दीप्ति दे रहा था। इस के एक तरफ दीवार पर थोड़ा ऊँचे चाची जी के द्वारा लाल रंग के कपड़े जिस पर कुछ और रंग भी मिश्रित थे उस को गोलाकार आयताकार त्रिकोणीय और वर्गाकार छोटे बड़े टुकड़ों में काट कर उसे एक चैरस फ्रेम में शीशा लगा कर जड़ित किया था जिसे देख कर मुझे लगता था जैसे वो किसी श्रेष्ठ चित्रकार की सुन्दर कृति टॅगी हो। कमरे की हर दिशा में ही नहीं समूचे घर में इस दम्पति का अक्स अस्तित्व कला साहित्य के प्रति साधना समर्पण और ‘अतिथि देवो भव का उजाला विराजमान रहता था जो आगुन्तकों मेहमानों को ऐसा अपनत्व देता था जिसकी आज के युग में हमसे कमी रह गई है। बिलकुल इसकी विपरीत दिशा में एक दीवान जिस पर स्वच्छ चादर बिछी रहती थी चाचाजी लेखन कार्य करते.करते जब थक जाते उस पर विश्राम करते। उसके साथ ही एक मेज और कुर्सी लगी थी जिस पर चाचाजी लेखन कार्य उन दिनों करते थे। आज भी उनका अध्ययन कक्ष वैसा ही अनगिनत पुस्तकों से तरतीब से सुसज्जित, सुनियोजित और व्यवस्थित है।


नरेंद्र मोहन की रचना.कर्म में तल्लीनता मुझे बहुत प्रभावित करती थी। मुझे थोड़ा बहुत पता रहता था वे क्या लिख रहे हैं। उनकी साहित्यिक गतिविधियों और उपलब्धियों के बारे में उस समय प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं के माध्यम से भी जान लेती थी लेखन कार्य में व्यस्त होने के बावजूद भी वे मेरा लिखा सुनने के लिए चाची जी को भी शामिल करते। दोनों मेरे लिखे पर प्रतिक्रियाएं देते और मुझे लिखने के लिए प्रोत्साहित भी करते उत्साह बढ़ाने के लिए दादा जी भी पीछे नहीं रहते। मैं अक्सर उन्हें अपनी कविताएँ सुनाती। बहुत बार मुझसे कविता सुनने की इच्छा उन्होंने ये कह कर की सुषमा क्या लिखा है हम तेरा कलाम सुनना चाहते हैं। जब भी मैं उनके पास गई हर बार उन्होंने अपनी कोई न कोई काव्य-कृति मेरा नाम लिख कर अपने हस्ताक्षर कर दी उनसे उनके द्वारा लिखी पुस्तकें पाकर मुझे हमेशा गर्व हुआ।


उन दिनों डाइनिंग टेबल नहीं था हम सब नीचे बड़ी सी दरी पर एक मेजपोश बिछा कर सब मिलकर भोजन करते। चाची जी के हाथ की मूंग साबुत गर्म.गर्म दाल और गोभी की सब्जी, आम का अचार तो मुझे कभी भूला ही नहीं। सब के साथ मिलकर खाने का स्वाद लेते हुए चाचाजी का परिहास करते हुए ये कहना ‘‘अनुराधा देख ! सुषमा डाइटिंग करती है खाना इसीलिये कम खाती है।’’ उन दिनों मुझे पता नहीं था पतला या स्लिम होने के लिए डाइटिंग की जाती है। पर उनके मुख से अपने पर लक्षित चुटीली और हास्य विनोद से भरी बातें सुन नयी शक्ति का संचार हो जाता था। ऐसा भी नहीं था वे हर समय मजाक के मूड में रहते हों अपने अध्ययन लेखन.कक्ष में तो वे हमेशा धीर गम्भीर एवं शान्त मुद्रा में रहते हैं।


दीपावली के त्यौहार की पदचाप सुनाई देने लगी थी। चाची जी को कुछ खरीददारी करनी थी। चाचा जी चाची जी मुझे भी बाजार साथ ले गए। हम घर से निकल कर मुख्य सड़क पर आने के लिए पैदल चल रहे थे उसी मार्ग से विपरीत दिशा से दो लड़कियां 9-10 मीटर की दूरी से मुस्कराते हुए हमारे सामने से आ रही थीं। उनकी प्यारी मुस्कान नोटिस करने वाली थी और चाचा जी पर टिकी थी।उनकी मुस्कान लक्षित कर चाचा जी चाची जी से चलते.चलते बोले, अनुराधा तुम ने देखा वो लड़कियां मुझे देख कर मुस्कुरा रही हैं। और फिर मुझे बोले, ‘‘सुषमा वो लड़कियां मुझे देख कर मुस्करा रही है ना ‘‘ इसी बीच लड़कियां हमारे समीप से निकल चुकी थी। मुस्कान किस पर केन्द्रित है चाची जी चाहे पहले ही देख चुकी थी पर सदाबहारी हँसी से जानबूझ कर कहा कौन सी और हम तीनों का ठहाका इतने जोर का था कि आस.पास सड़क पर चल रहे लोगों ने सरसरी हैरत से देखा था। चाचा जी चुप रह जाते और इस एक पल की घटना भीतर की तहों में दब जाती।पल.पल को आनन्द से जीना और पल के आनन्द को बाँट.बाँट कर जीने वाला भीतर का उल्लास और आह्लाद निर्विकार साँझा करने वाला मनुष्य कलाविद नरेंद्र मोहन है। उस समय मुझे इस दम्पत्ति के मध्य अन्तरंगता निश्छलता और परस्पर पारदर्शिता का ऐसा समन्वय महसूस हुआ था जहाँ एक दूसरे के लिए समझ विकसित हो चुकी होती है।


एक और स्मृति है जिसकी परिवार में चर्चा होती रही। उन दिनों नरेंद्र मोहन खालसा कॉलेज में पढ़ा रहे थे युवा, लम्बा.ऊँचा कद, सिनेमा के हीरो.सा आभा से मण्डित भोला.भाला तेजयुक्त मुखमण्डल, मीठी चितवन और पूरे व्यक्तित्व में प्रस्फुटित होता अभिजात्य सरल मुस्कान वाणी में मृदुता कुलीनता की ठसक का स्वाभाविक वरदान पाये इस लेखक व्याख्याता नरेंद्र मोहन के पास एक अध्येता लड़की के पिता विवाह का प्रस्ताव लेकर पहुंचे गये थे तब उन्होंने मजाक करते हुए कह दिया था जो भी है पहले मेरी पत्नी से पूछा लो। पत्नी के साथ गहरा प्रगाढ़ संबंध उसके साथ मस्त मस्ती खुला पन कहीं किसी प्रकार की गोपनीयता से परे अभेद की स्थिति गांठ, ग्रन्थि से हीन जहाँ से हृदय में बहती शुभ स्वच्छ प्रेम की नदी में सहजता से विहार कराने का विश्वास उनके पास रहा। सचमुच चितवन में ऐसा गजब का सम्मोहन तो है ही जो सुजान को वश में करने की ताकत रखता है ऐसे चरित्रों को पहचान कर ही कवि ने कहा होगा.


‘‘वह चितवन और कछु


जही बस होत सुजान ‘‘


मेरे विवाह पर जब वे हिसार पहुँचे तो उनके आने से घर में चार चाँद लग गए थे। दादी-दादा, ताया जी तायी जी और बहुत सारे अतिथि पहुँच चुके थे। चाय नाश्ता लेकर वे मेरे पास आकर बैठे और कुशल.क्षेम पूछ कर इनके बारे में बात की और कुछ अलग सी मुस्कान से इनका नाम पूछा तो मैं समझ गई वे हास.परिहास की मुद्रा में हैं थोड़े संकोच से मैंने कृष्ण मुरारी नाम लिया नाम सुनकर वे जैसे कृष्ण प्रेम में खोकर उस असीम और अपार का गुणगान करने लगे। “कृष्ण की इस काव्यात्मक स्तुति में मुझे इनकी अनुशंसा का भाव भी विभोर करता रहा था और अतिथियों का आनन्द तो उनके मुखड़ों से जैसा देखा गया वो आज तक मुझे विस्मृत नहीं हुआ है। शाम को लेडीज संगीत का कार्यक्रम था जिसमें घर की स्त्रियों ने पारम्परिक गीत गाए। इस लेडीज संगीत में पुरुषों ने विशेष कर चाचाजी ने और जग मोहन ताया जी ने ‘‘मैं तो तम्बाखू पीऊँगी’’ सुनाया जिसने सब को हँसी से लोट.पोट कर दिया।


विवाह के पश्चात जब हम दोनों पहली बार कीर्ति नगर वाले घर गए तब तक डाइनिंग टेबल खिड़कियों के समीप लग गया था सुमन मनीषा और अमित बड़े हो चुके थे चाची जी विविध प्रकार के व्यजंनों से टेबल भर देती और बड़े प्यार से ‘इनको परोसती तो चाचाजी और सुमन नकली ईर्ष्या व्यक्त कर प्यारी.प्यारी प्यार भरी फब्तियां कसते तो सारे कमरे में सभी की हँसी झंकृत हो जाती। पिता का बच्चों के साथ और बच्चों का पिता के साथ सहज विनम्र और शालीन व्यवहार और वार्तालाप जो प्रज्ञा के ऊँचे स्तर तक पहुंच कर हँसी की अनुगूंज से सभी को आहलाद से भर दे ऐसा पारिवारिक परिवेश मेरे देखने में कहीं नहीं आया।


उनके घर में छोटी.छोटी बात चुटीली ऐसी अदा भोले पन में समाहित नोक झोंक शरारत और ठिठोली सहित कहने सुनने की प्रकृति रही है कि उसके साक्षी को मेरी तरह हमेशा लगा होगा ये हँसी ठिठोली कभी न रुके। यहीं पर मैंने हँसी के जल से भरे श्वेत फव्वारे बहते हुए देखे भी थे और उसकी ध्वनियां सुनी भी थी। इतना आकर्षक मनमोहक हास.परिहास का नज़ारा! बच्चों का प्रत्यक्ष.अप्रत्यक्ष तरीकों से साहस और मनोबल बढ़ाया जा सकता है ये रहस्य पता नहीं उन्होंने कहाँ से सीखा? मैंने ऊर्जा से भरी तरंगों में मस्त होकर आज़ादी से तैरते अनुशासित बच्चों को इस घर में देखा है।


जब मैं पीएचडी कर रही थी मुझे नरेन्द्र मोहन जी का भरपूर सहयोग और मार्ग दर्शन मिला विशेष कर तब जब


सैद्धान्तिक पक्ष तैयार हो चुका था और मेरी समझ में नहीं आ रहा था व्यावहारिक पक्ष कैसे शुरू करना है तब उन्होंने जैसे समझाया निर्देशन दिया उसके पश्चात मेरे शोध कार्य ने गति पकड़ी थी।


चाची जी के निधन ने उन्हें तोड़ कर रख दिया वे जैसे जड़ हो गये थे। चाची जी के अभाव और वियोग से संतप्त मनःस्थिति में लिखे काव्य में दर्द पराकाष्ठा पर है।


‘‘पूरे घर को उजलाता


वह दीया नहीं होगा


जो मेरे लिए बराबर जलता रहा ‘‘


उनके स्नेह से अभिभूत होकर लिखी कविताओं को काव्य.गोष्ठी में पढ़ते हुए भीगी आँखों की नमी को छिपाते वेदना के अथाह सागर को सोखने का भरसक प्रयत्न करते आँखों की कोरों पर रुके बिन्दु क्या हरेक श्रोता काव्य अनुरागी और स्वजनों से छिपा कर रख सकते हैं?


नरेंद्र मोहन ने मुझे जो भी पुस्तक दी उसे मैंने पढ़ा। उनकी कविताओं ने मुझे प्रभावित किया। उनकी लिखी ‘मेरी प्रिय कविताएं’ वैसे तो बहुत सारी हैं पर कुछ कविताएँः जैसे इस हादसे में रक्तपात, सेवक राम, एलर्जी, कहाँ खत्म होती है बात, क्या नदी मर चुकी है? भाषा-कर्म पेड़, हथेली पर अंगारे की तरह, मुझे कल्पना दो, पहाड़ नीली कमीज-सा, चुप्पी, शब्द एक आसमान, क्यों, एक खिड़की खुली है अभी, अँधेरा-उजाला, जैसे हम पाते हैं प्रेम, पुतली नाच, मुर्दा या जिंदा, दिल्ली में लाहौर, लाहौर में दिल्ली, खंभे मुँह ताकतें रहे। बाल्यावस्था में आगजनी मारकाट लाशों के भयावह दृश्यों, दहला देने वाली चीखों ने उन्हें ऐसा सन्ताप और तनाव दिया जो जीवन भर उनके भीतर जिंदा रहा। अपने घर शहर से टूटने और देश के विभाजन का दर्द नरेंद्र मोहन की कविताओं में प्रतिफलित हुआ -


“अँधेरे में साया/अँधेरे में चीख/दिल्ली में लाहौर/लाहौर में दिल्ली/खींचता लाहौर/भींचता दिल्ली/दोनों से निर्वासित/दोनों से जुदा/अपने को खोजता/एक घर तलाशता/हॉफ-हॉफ जाता‘‘


नरेंद्र मोहन बहु-आयामी प्रतिभा से सम्पन्न वरिष्ठ साहित्यकार कवि आलोचक और नाटककार हैं। शब्द का सार्थक और कारगर प्रयोग उन्होंने किया है।


“लौटता हूँ शब्द में/शब्द में एक कुआँ है/जिस में झांकता हूँ/शब्द में एक समुद्र है/जिस में उतरता हूँ/शब्द में एक आसमान है/जिस में उड़ता हूँ‘‘


उनकी कविताएँ सुनने का सुअवसर मुझे दो तीन बार मिला एक बार दिल्ली विश्वविद्यालय में उनके काव्य.संग्रह ‘‘नीले घोड़े पर सवार पर एक काव्य.गोष्ठी आयोजित की गई, जिसमें डॉ नरेंद्र मोहन ने काव्य.पाठ किया। बहुत से सहित्याकार मौजूद थे। इस अवसर पर चाची जी भी उपस्थित थी। मेरे काव्य संग्रह के लोकार्पण पर भी उन्होंने कविताएँ सुनायीं थी। दिल्ली साहित्य अकादमी में कार्यक्रम कविसंधि के अन्तर्गत लगभग एक घण्टे उनका काव्य.पाठ था। हाल खचाखच भरा था। जिसमें तीन पीढ़ियों के काव्य अनुरागी और साहित्य साधक विराजमान थे जैसे ही नरेंद्र मोहन ने काव्य.पाठ शुरू किया हाल में चुप्पी और मौन छा गया था। बीच बीच में कविताओं का आस्वाद लेते हुए हृदयस्पर्शी कविताओं पर दाद और वाह के स्वर भावकों के मुख से बड़े शालीन ढंग से धीमे धीमे स्वरों में गुंजित हो रहे थे। कविता का समुद्र बहता जा रहा था। कवि कविता और सहृदयों का त्रिकोणीय मेल और तादात्म्यता की साक्षी में स्वयं भी काव्य रस में डूब गई थी। नरेंद्र मोहन उस के इस पड़ाव में अपने मनोबल के कारण रचना कर्म में सक्रियता और निरन्तरता बनाए हुए है जिसके फलस्वरूप उनकी चार-पांच नवीन पुस्तकें इसी वर्ष प्रकाशित हुई हैं।


उनकी रचनात्मकता में पैनी, तीखी धार है, विसंगत पर प्रहार है जो उन्हें कबीर के निकट ले आता है। परिवार में लेखन प्रतिभा का वर लिए वे ऐसे प्रकाशपुंज है जिनका आलोक न केवल साहित्य जगत को मिला अपितु उन सबको मिला है जो नरेंद्र मोहन के सम्पर्क में आए हैं। इस यशस्वी, विख्यात और उत्कृष्ट लेखक और कुलदीपक ने सृजन.साधना से समूचे कुल परिवार और देश को रोशनी दी है और अँधेरों को चीर नवीन सम्भावनाओं की खिड़कियां खुली होने का भरोसा दिलाया है।


‘‘घुप्प अँधेरे में/देखता है/सीढ़ीनुमा एक खिड़की/खुलती हुई। आसमान की तरफ’’


किस-किस ने साहित्य की विभिन्न विधाओं कविता, कहानी, नाटक पर विभिन्न गोष्ठियों में क्या कहा, किस नयी मान्यता की स्थापना की इस सम्बंध में नरेन्द्र मोहन तथा अन्य साहित्यकारों के दिए वक्तव्यों की जानकारी नहीं रखती। ये नहीं कि मेरा साहित्य से कोई नाता नहीं या जिज्ञासा नहीं पर मैं उस माहौल और परिवेश का आनन्द लेने से क्यों वंचित रह गई इसके


कारणों में जाने लगी तो गुमराह हो जाऊँगी अतः पहुँच जाती हूँ उस पारिवारिक परिवेश में जहाँ चाचाजी (नरेन्द्र मोहन) के साथ जुड़ी अतीत की स्मृतियों में जो मन के किसी कोने में चुपचाप बैठी हैं, अंकित हैं अतः अतीत के पन्ने देखती हूँ जो ज्यों के त्यों हैं कभी कभी किसी उत्सव विवाह और पारिवारिक समारोहों या अन्य मेलमिलाप के अवसरों पर परस्पर सुने सुनाए गए वे प्रसंग परिवार में खुले पलट-पलट कर याद किए गए, बल और गर्व का संचार कर बन्द भी होते रहे पर अब शब्दबद्ध होने के लिए कसमसा रहे हैं तो उन स्मृतियों को छिपाए रखना न्यायोचित नहीं होगा जबकि वो स्मृतियाँ ऐसे व्यक्तित्व से जुड़ी हों जिसकी अपने क्षेत्र में पैठ हो, पहचान हो, वर्चस्व हो अतः एक उच्च कोटि के कवि आलोचक और नाटककार के वैयक्तिक जीवन को उस में सहजता से बुने आत्मीय सम्बन्धों को उस में झलकती रागात्मक प्रवृत्तियों के सच को सामाजिकों से प्रकट करना नितान्त आवश्यक लगता है उन पाठकों के लिए जो नरेन्द्र मोहन को आत्मीय सीमा से परे तक चाहते हैं और उन्हें भीतर तक जानने की मंशा रखते हैं जो नरेन्द्र मोहन को उनकी रचनाओं के माध्यम से जितना जान पाए पर उससे अधिक जानने की जिज्ञासा अभी भी जिनकी शेष रह गयी होगी क्योंकि जो अनन्त और अपरिमित होता है उसे कितना भी परिभाषित कर लिया जाए अपरिभाषित ही रहता है। यह भी सच है उन पर व्यापक स्तर पर शोध संस्मरण लिखे जा चुके हैं। वे अपनी आत्मकथा दो भागों में लिख चुके। हैं जिसमें उनका भीतरी द्वन्द्व, सामाजिक सरोकार पारिवारिक सम्बन्ध वैश्विक चिन्तन की सूक्ष्म दृष्टि रूपायित हुई है जो एक रचनाकार, एक कवि और नाटककार की मनःस्थिति को इतने मार्मिक ढंग से उघाड़ती है कि पाठक को उनके भीतर की सच्चाई, उनका अन्तर्दवन्द्व समझ आने लगता है जो उसे झंझोड़ कर रख देता है।


अब बात करती हूँ बचपन की उन स्मृतियों की जब बहुत बार पापा अपने छोटे भाई के प्रति भातृत्व भाव और वात्सल्य से ओत-प्रोत दिखे और उनके स्नेह से अभिभूत दिखे। नरेन्द्र मोहन पाँच भाई पाँचों एक से बढ़ कर एक सुन्दर, सुयोग्य मृदुभाषी और दादी के प्यारे पर चाचाजी सबसे निराले। दादी का प्रेम शायद सबसे ज्यादा चाचा जी पर बरसा। पापा का अपने छोटे भाई नरेन्द्र के प्रति प्रेम हम बच्चों के समक्ष बहुत बार प्रकट हुआ हालांकि उम्र के शुरुआती दौर में वे ज्यादा बोलते नहीं थे मौन ही रहते थे पर उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते उनका मौन टूटता गया और वे बेहद मुखर होते गए वे प्रेम विह्वल होकर अक्सर कहते, ‘‘नरेन्द्र का जीवन मेहनत अनुशासन और नेकनीयती की कविता है, और मम्मी की ओर उन्मुख होकर इन्हीं लफ्जों को अभिमान से भर, स्मित सहित लय में दोहराते और कहते- ‘‘देख बयी अपने भरा ते सच्ची कविता बोली है, हो सकदा है किसी दा भरा एना विद्वाना‘‘ तब मम्मी के चेहरे पर प्रतिभासित मुस्कान में अपने देवर के लिये इठलाता भाव हम बच्चों की पकड़ में आकर कहीं गहरे हममें भी जम गया था जहाँ से खोद निकाल कर किसी सुनहरी स्याही से पारिवारिक गर्व को मैं कहीं लिख देना चाहती हूँ जहाँ से वो पढ़े जा सकें और समझे जा सकें हालांकि यह मेरे लिये छोटा मुँह बड़ी बात है। अपने दादके परिवार विशेष कर चाचा.चाची से मैं ही नहीं मेरे पतिदेव.कृष्ण मुरारी भी भावनात्मक रूप से जुड़े रहे और जब भी हम उनके पास दिल्ली गए वे जैसा स्नेह और अपनत्व न्यौछावर करते रहे उसे पाकर जो हम महसूस होता रहा है वो वर्णनातीत है।


नरेन्द्र मोहन के रिश्ते अपनी पत्नी अनुराधा चाची जी बच्चों सुमन, मनीषा और अमित से अगाध प्रेम से पूरित आत्मीय प्रगाढ़ और चेतनता से भरपूर तो थे ही समूचे परिवार के साथ रिश्तों के घनत्व के साथ बहता प्रेम हास.परिहास में नाचती मासूमियत के साथ गहरी संवेदनशीलता और निश्छलता का जैसा उजाला उन्होंने पसारा वो दादी.दादा सभी को ज्योतित, प्रसन्न करता रहा और घर में खुशगवार माहौल बनाता रहा। उनका गरिमामय व्यक्तित्व हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत बन गया था।


जब हम छोटे छोटे थे मम्मी अपने देवर की बातें सुनाती और कहती. ‘‘नरिंदर बोलदा है तो उसदे मुँह चैं फुल झरदे ने इतना मीठा साीधा सच्चा ओ बोलदा है। ये बातें मम्मी आत्मविस्मृत होकर सुनाती। वो हमें अक्सर बतार्ती जब वो एम ए हिन्दी में पंजाब विश्वविद्यालय में प्रथम रहे और अखबार में उनका फोटो छपा वे शेव करते हुए अखबार पढ़ रहे थे उन्हें फोटो दिखाई दिया ‘‘किस का फोटो है?‘‘ उन्होंने मन ही मन स्वयं से प्रश्न किया और ध्यान से देखा तो भौचक्के रह गए अपनी तस्वीर देख कर!


मम्मी पाक कला में निपुण थीं और बहुत जायकेदार स्वादिष्ट खाना बनाती घर का हर सदस्य उनके स्वादिष्ट खाने की तारीफ करता पर अपने देवर द्वारा खाने की सराहना के अन्दाज पर वे इतनी बलिहारी थी कि आजीवन उन स्मृतियों के पल.पल में वे जिन्दा रहीं और हमें उस अन्दाजे.बयां की फिदा कर देने वाली टोन सुना कर प्रसन्न होती रहीं।


परिवार में सभी चाय पीने के शौकीन थे और इसके नियत समय निर्धारित थे पर कोई कड़ा अनुशासन भी नहीं बना हुआ था। जब जो चाहे चाय की इच्छा व्यक्त कर चाय बनवा सकता था। जब परिवार के सभी सदस्य इक्कटठे एक साथ मिलकर बैठते और परस्पर बातचीत कर रहे होते तो न जाने कहाँ से किस से चाय का शब्द संवादों में छोड़ दिया जाता। चाय की तलब होने पर चाय पीने का आग्रह जब कोई नहीं करता तब इस तलब को भांप कर चाचा जी जिस निराले अन्दाज में शब्दों में चाशनी चढ़ी मधुर आवाज में ना में हाँ की पेशकश कुछ इस तरह करते ‘मैंने चाय नहीं पीनी’. ‘मैं चाय पीता ही नहीं’, ‘हम चाय क्यों पीएं’, यही वाक्य रस ले.ले कर मुस्कान सहित वे दोहराते तो ऐसा प्रतीत होता मानो सचमुच के फूल गिर रहे हों इस में एक दो भाइयों की आनंद मग्न ध्वनियाँ और शामिल हो जाती। नरेन्द्र मोहन के इन वाक्यों ‘‘मैंने चाय नहीं पीनी.....के आरोह.अवरोह में एक विशिष्ट तान गति, लय, ध्वनि, नाद, गीतात्मकता मृदुता, हास्य का अनूठा संयोजन ऐसा गजब का होता था जिस पर सब मंत्रमुग्ध हो जाते। ऐसा जादू सा वे करते चाय बिन कहे तैयार होती और चाय के दीवानों के सम्मुख हाजिर हो जाती। ये मंजर ऐसा है जो मेरी आँखों ने साक्षात देखा है, कानों ने सुना है और अमिट है और मुझे परिवार के साथ एकत्व मनाता हँसी. ठिठोली का मधु पिलाता अपनी उपस्थिति को अविस्मरणीय बनाता शब्दों का ये जादूगर कभी नहीं भूला। चाय पीने का परिवार.सहित इतना स्वाद, रोचक मनोरंजक और तन.मन में जोश भर देने वाला सादे सरल वाक्यों में चमत्कार प्रभाव बिन बनाए बनाया जा सकता है ये सोच कर हम विस्मित होते थे।


ठीक से याद नहीं कौन सी कक्षा में पढ़ रही थी जब पहली बार दिल्ली कीर्ति नगर चाचा जी के घर आयी थी। उन दिनों दादी.दादा वहीं पर थे। यहाँ आकर मैं चाची जी की गृह कुशलता और व्यवस्था देख कर बहुत प्रभावित हुई थी। वे सचमुच एक सुघढ़ गृहिणी थी। घर की प्रत्येक वस्तु यथास्थान करीने और कलात्मक ढंग से वो रखती थीं। घर की सारी व्यवस्था वे स्वयं देखती थीं। एक तरफ बैठक में चाचा जी की तरतीब से रखी ढेर सारी पुस्तकें लकड़ी की शानदार और कलात्मक अल्मारी में रखी थीं जिनमें उनकी अपनी लिखी भी शामिल थीं।कक्ष में ये कोना साहित्यिक परिवेश को जीवंत सा करता लगता। उस अल्मारी के ऊपर चाची जी के व्यक्तित्व की छाप सजावट का थोड़ा सा सामान और उसके साथ ही एक फूल.दान में वृक्ष की टहनी या झाड़ी के सूखे पीले पत्तों को सही अनुपात में काट, तराश कर टुथपेस्ट के लाल ढक्कन और सफेद मोतियों को फूलों की तरह टांक कर छोटा सुनहरा सोने का गुलदस्ता उन्होंने सजा दिया था। जो उनके सौंदर्य बोध की छाप से पूरे कक्ष को दीप्ति दे रहा था। इस के एक तरफ दीवार पर थोड़ा ऊँचे चाची जी के द्वारा लाल रंग के कपड़े जिस पर कुछ और रंग भी मिश्रित थे उस को गोलाकार आयताकार त्रिकोणीय और वर्गाकार छोटे बड़े टुकड़ों में काट कर उसे एक चैरस फ्रेम में शीशा लगा कर जड़ित किया था जिसे देख कर मुझे लगता था जैसे वो किसी श्रेष्ठ चित्रकार की सुन्दर कृति टॅगी हो। कमरे की हर दिशा में ही नहीं समूचे घर में इस दम्पति का अक्स अस्तित्व कला साहित्य के प्रति साधना समर्पण और ‘अतिथि देवो भव का उजाला विराजमान रहता था जो आगुन्तकों मेहमानों को ऐसा अपनत्व देता था जिसकी आज के युग में हमसे कमी रह गई है। बिलकुल इसकी विपरीत दिशा में एक दीवान जिस पर स्वच्छ चादर बिछी रहती थी चाचाजी लेखन कार्य करते.करते जब थक जाते उस पर विश्राम करते। उसके साथ ही एक मेज और कुर्सी लगी थी जिस पर चाचाजी लेखन कार्य उन दिनों करते थे। आज भी उनका अध्ययन कक्ष वैसा ही अनगिनत पुस्तकों से तरतीब से सुसज्जित, सुनियोजित और व्यवस्थित है।


नरेंद्र मोहन की रचना.कर्म में तल्लीनता मुझे बहुत प्रभावित करती थी। मुझे थोड़ा बहुत पता रहता था वे क्या लिख रहे हैं। उनकी साहित्यिक गतिविधियों और उपलब्धियों के बारे में उस समय प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं के माध्यम से भी जान लेती थी लेखन कार्य में व्यस्त होने के बावजूद भी वे मेरा लिखा सुनने के लिए चाची जी को भी शामिल करते। दोनों मेरे लिखे पर प्रतिक्रियाएं देते और मुझे लिखने के लिए प्रोत्साहित भी करते उत्साह बढ़ाने के लिए दादा जी भी पीछे नहीं रहते। मैं अक्सर उन्हें अपनी कविताएँ सुनाती। बहुत बार मुझसे कविता सुनने की इच्छा उन्होंने ये कह कर की सुषमा क्या लिखा है हम तेरा कलाम सुनना चाहते हैं। जब भी मैं उनके पास गई हर बार उन्होंने अपनी कोई न कोई काव्य-कृति मेरा नाम लिख कर अपने हस्ताक्षर कर दी उनसे उनके द्वारा लिखी पुस्तकें पाकर मुझे हमेशा गर्व हुआ।


उन दिनों डाइनिंग टेबल नहीं था हम सब नीचे बड़ी सी दरी पर एक मेजपोश बिछा कर सब मिलकर भोजन करते। चाची जी के हाथ की मूंग साबुत गर्म.गर्म दाल और गोभी की सब्जी, आम का अचार तो मुझे कभी भूला ही नहीं। सब के साथ मिलकर खाने का स्वाद लेते हुए चाचाजी का परिहास करते हुए ये कहना ‘‘अनुराधा देख ! सुषमा डाइटिंग करती है खाना इसीलिये कम खाती है।’’ उन दिनों मुझे पता नहीं था पतला या स्लिम होने के लिए डाइटिंग की जाती है। पर उनके मुख से अपने पर लक्षित चुटीली और हास्य विनोद से भरी बातें सुन नयी शक्ति का संचार हो जाता था। ऐसा भी नहीं था वे हर समय मजाक के मूड में रहते हों अपने अध्ययन लेखन.कक्ष में तो वे हमेशा धीर गम्भीर एवं शान्त मुद्रा में रहते हैं।


दीपावली के त्यौहार की पदचाप सुनाई देने लगी थी। चाची जी को कुछ खरीददारी करनी थी। चाचा जी चाची जी मुझे भी बाजार साथ ले गए। हम घर से निकल कर मुख्य सड़क पर आने के लिए पैदल चल रहे थे उसी मार्ग से विपरीत दिशा से दो लड़कियां 9-10 मीटर की दूरी से मुस्कराते हुए हमारे सामने से आ रही थीं। उनकी प्यारी मुस्कान नोटिस करने वाली थी और चाचा जी पर टिकी थी।उनकी मुस्कान लक्षित कर चाचा जी चाची जी से चलते.चलते बोले, अनुराधा तुम ने देखा वो लड़कियां मुझे देख कर मुस्कुरा रही हैं। और फिर मुझे बोले, ‘‘सुषमा वो लड़कियां मुझे देख कर मुस्करा रही है ना ‘‘ इसी बीच लड़कियां हमारे समीप से निकल चुकी थी। मुस्कान किस पर केन्द्रित है चाची जी चाहे पहले ही देख चुकी थी पर सदाबहारी हँसी से जानबूझ कर कहा कौन सी और हम तीनों का ठहाका इतने जोर का था कि आस.पास सड़क पर चल रहे लोगों ने सरसरी हैरत से देखा था। चाचा जी चुप रह जाते और इस एक पल की घटना भीतर की तहों में दब जाती।पल.पल को आनन्द से जीना और पल के आनन्द को बाँट.बाँट कर जीने वाला भीतर का उल्लास और आह्लाद निर्विकार साँझा करने वाला मनुष्य कलाविद नरेंद्र मोहन है। उस समय मुझे इस दम्पत्ति के मध्य अन्तरंगता निश्छलता और परस्पर पारदर्शिता का ऐसा समन्वय महसूस हुआ था जहाँ एक दूसरे के लिए समझ विकसित हो चुकी होती है।


एक और स्मृति है जिसकी परिवार में चर्चा होती रही। उन दिनों नरेंद्र मोहन खालसा कॉलेज में पढ़ा रहे थे युवा, लम्बा.ऊँचा कद, सिनेमा के हीरो.सा आभा से मण्डित भोला.भाला तेजयुक्त मुखमण्डल, मीठी चितवन और पूरे व्यक्तित्व में प्रस्फुटित होता अभिजात्य सरल मुस्कान वाणी में मृदुता कुलीनता की ठसक का स्वाभाविक वरदान पाये इस लेखक व्याख्याता नरेंद्र मोहन के पास एक अध्येता लड़की के पिता विवाह का प्रस्ताव लेकर पहुंचे गये थे तब उन्होंने मजाक करते हुए कह दिया था जो भी है पहले मेरी पत्नी से पूछा लो। पत्नी के साथ गहरा प्रगाढ़ संबंध उसके साथ मस्त मस्ती खुला पन कहीं किसी प्रकार की गोपनीयता से परे अभेद की स्थिति गांठ, ग्रन्थि से हीन जहाँ से हृदय में बहती शुभ स्वच्छ प्रेम की नदी में सहजता से विहार कराने का विश्वास उनके पास रहा। सचमुच चितवन में ऐसा गजब का सम्मोहन तो है ही जो सुजान को वश में करने की ताकत रखता है ऐसे चरित्रों को पहचान कर ही कवि ने कहा होगा.


‘‘वह चितवन और कछु


जही बस होत सुजान ‘‘


मेरे विवाह पर जब वे हिसार पहुँचे तो उनके आने से घर में चार चाँद लग गए थे। दादी-दादा, ताया जी तायी जी और बहुत सारे अतिथि पहुँच चुके थे। चाय नाश्ता लेकर वे मेरे पास आकर बैठे और कुशल.क्षेम पूछ कर इनके बारे में बात की और कुछ अलग सी मुस्कान से इनका नाम पूछा तो मैं समझ गई वे हास.परिहास की मुद्रा में हैं थोड़े संकोच से मैंने कृष्ण मुरारी नाम लिया नाम सुनकर वे जैसे कृष्ण प्रेम में खोकर उस असीम और अपार का गुणगान करने लगे। “कृष्ण की इस काव्यात्मक स्तुति में मुझे इनकी अनुशंसा का भाव भी विभोर करता रहा था और अतिथियों का आनन्द तो उनके मुखड़ों से जैसा देखा गया वो आज तक मुझे विस्मृत नहीं हुआ है। शाम को लेडीज संगीत का कार्यक्रम था जिसमें घर की स्त्रियों ने पारम्परिक गीत गाए। इस लेडीज संगीत में पुरुषों ने विशेष कर चाचाजी ने और जग मोहन ताया जी ने ‘‘मैं तो तम्बाखू पीऊँगी’’ सुनाया जिसने सब को हँसी से लोट.पोट कर दिया।


विवाह के पश्चात जब हम दोनों पहली बार कीर्ति नगर वाले घर गए तब तक डाइनिंग टेबल खिड़कियों के समीप लग गया था सुमन मनीषा और अमित बड़े हो चुके थे चाची जी विविध प्रकार के व्यजंनों से टेबल भर देती और बड़े प्यार से ‘इनको परोसती तो चाचाजी और सुमन नकली ईर्ष्या व्यक्त कर प्यारी.प्यारी प्यार भरी फब्तियां कसते तो सारे कमरे में सभी की हँसी झंकृत हो जाती। पिता का बच्चों के साथ और बच्चों का पिता के साथ सहज विनम्र और शालीन व्यवहार और वार्तालाप जो प्रज्ञा के ऊँचे स्तर तक पहुंच कर हँसी की अनुगूंज से सभी को आहलाद से भर दे ऐसा पारिवारिक परिवेश मेरे देखने में कहीं नहीं आया।


उनके घर में छोटी.छोटी बात चुटीली ऐसी अदा भोले पन में समाहित नोक झोंक शरारत और ठिठोली सहित कहने सुनने की प्रकृति रही है कि उसके साक्षी को मेरी तरह हमेशा लगा होगा ये हँसी ठिठोली कभी न रुके। यहीं पर मैंने हँसी के जल से भरे श्वेत फव्वारे बहते हुए देखे भी थे और उसकी ध्वनियां सुनी भी थी। इतना आकर्षक मनमोहक हास.परिहास का नज़ारा! बच्चों का प्रत्यक्ष.अप्रत्यक्ष तरीकों से साहस और मनोबल बढ़ाया जा सकता है ये रहस्य पता नहीं उन्होंने कहाँ से सीखा? मैंने ऊर्जा से भरी तरंगों में मस्त होकर आज़ादी से तैरते अनुशासित बच्चों को इस घर में देखा है।


जब मैं पीएचडी कर रही थी मुझे नरेन्द्र मोहन जी का भरपूर सहयोग और मार्ग दर्शन मिला विशेष कर तब जब


सैद्धान्तिक पक्ष तैयार हो चुका था और मेरी समझ में नहीं आ रहा था व्यावहारिक पक्ष कैसे शुरू करना है तब उन्होंने जैसे समझाया निर्देशन दिया उसके पश्चात मेरे शोध कार्य ने गति पकड़ी थी।


चाची जी के निधन ने उन्हें तोड़ कर रख दिया वे जैसे जड़ हो गये थे। चाची जी के अभाव और वियोग से संतप्त मनःस्थिति में लिखे काव्य में दर्द पराकाष्ठा पर है।


‘‘पूरे घर को उजलाता


वह दीया नहीं होगा


जो मेरे लिए बराबर जलता रहा ‘‘


उनके स्नेह से अभिभूत होकर लिखी कविताओं को काव्य.गोष्ठी में पढ़ते हुए भीगी आँखों की नमी को छिपाते वेदना के अथाह सागर को सोखने का भरसक प्रयत्न करते आँखों की कोरों पर रुके बिन्दु क्या हरेक श्रोता काव्य अनुरागी और स्वजनों से छिपा कर रख सकते हैं?


नरेंद्र मोहन ने मुझे जो भी पुस्तक दी उसे मैंने पढ़ा। उनकी कविताओं ने मुझे प्रभावित किया। उनकी लिखी ‘मेरी प्रिय कविताएं’ वैसे तो बहुत सारी हैं पर कुछ कविताएँः जैसे इस हादसे में रक्तपात, सेवक राम, एलर्जी, कहाँ खत्म होती है बात, क्या नदी मर चुकी है? भाषा-कर्म पेड़, हथेली पर अंगारे की तरह, मुझे कल्पना दो, पहाड़ नीली कमीज-सा, चुप्पी, शब्द एक आसमान, क्यों, एक खिड़की खुली है अभी, अँधेरा-उजाला, जैसे हम पाते हैं प्रेम, पुतली नाच, मुर्दा या जिंदा, दिल्ली में लाहौर, लाहौर में दिल्ली, खंभे मुँह ताकतें रहे। बाल्यावस्था में आगजनी मारकाट लाशों के भयावह दृश्यों, दहला देने वाली चीखों ने उन्हें ऐसा सन्ताप और तनाव दिया जो जीवन भर उनके भीतर जिंदा रहा। अपने घर शहर से टूटने और देश के विभाजन का दर्द नरेंद्र मोहन की कविताओं में प्रतिफलित हुआ -


“अँधेरे में साया/अँधेरे में चीख/दिल्ली में लाहौर/लाहौर में दिल्ली/खींचता लाहौर/भींचता दिल्ली/दोनों से निर्वासित/दोनों से जुदा/अपने को खोजता/एक घर तलाशता/हॉफ-हॉफ जाता‘‘


नरेंद्र मोहन बहु-आयामी प्रतिभा से सम्पन्न वरिष्ठ साहित्यकार कवि आलोचक और नाटककार हैं। शब्द का सार्थक और कारगर प्रयोग उन्होंने किया है।


“लौटता हूँ शब्द में/शब्द में एक कुआँ है/जिस में झांकता हूँ/शब्द में एक समुद्र है/जिस में उतरता हूँ/शब्द में एक आसमान है/जिस में उड़ता हूँ‘‘


उनकी कविताएँ सुनने का सुअवसर मुझे दो तीन बार मिला एक बार दिल्ली विश्वविद्यालय में उनके काव्य.संग्रह ‘‘नीले घोड़े पर सवार पर एक काव्य.गोष्ठी आयोजित की गई, जिसमें डॉ नरेंद्र मोहन ने काव्य.पाठ किया। बहुत से सहित्याकार मौजूद थे। इस अवसर पर चाची जी भी उपस्थित थी। मेरे काव्य संग्रह के लोकार्पण पर भी उन्होंने कविताएँ सुनायीं थी। दिल्ली साहित्य अकादमी में कार्यक्रम कविसंधि के अन्तर्गत लगभग एक घण्टे उनका काव्य.पाठ था। हाल खचाखच भरा था। जिसमें तीन पीढ़ियों के काव्य अनुरागी और साहित्य साधक विराजमान थे जैसे ही नरेंद्र मोहन ने काव्य.पाठ शुरू किया हाल में चुप्पी और मौन छा गया था। बीच बीच में कविताओं का आस्वाद लेते हुए हृदयस्पर्शी कविताओं पर दाद और वाह के स्वर भावकों के मुख से बड़े शालीन ढंग से धीमे धीमे स्वरों में गुंजित हो रहे थे। कविता का समुद्र बहता जा रहा था। कवि कविता और सहृदयों का त्रिकोणीय मेल और तादात्म्यता की साक्षी में स्वयं भी काव्य रस में डूब गई थी। नरेंद्र मोहन उस के इस पड़ाव में अपने मनोबल के कारण रचना कर्म में सक्रियता और निरन्तरता बनाए हुए है जिसके फलस्वरूप उनकी चार-पांच नवीन पुस्तकें इसी वर्ष प्रकाशित हुई हैं।


उनकी रचनात्मकता में पैनी, तीखी धार है, विसंगत पर प्रहार है जो उन्हें कबीर के निकट ले आता है। परिवार में लेखन प्रतिभा का वर लिए वे ऐसे प्रकाशपुंज है जिनका आलोक न केवल साहित्य जगत को मिला अपितु उन सबको मिला है जो नरेंद्र मोहन के सम्पर्क में आए हैं। इस यशस्वी, विख्यात और उत्कृष्ट लेखक और कुलदीपक ने सृजन.साधना से समूचे कुल परिवार और देश को रोशनी दी है और अँधेरों को चीर नवीन सम्भावनाओं की खिड़कियां खुली होने का भरोसा दिलाया है।


‘‘घुप्प अँधेरे में/देखता है/सीढ़ीनुमा एक खिड़की/खुलती हुई। आसमान की तरफ’’



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