पारो की उत्तरकथा

सभ्या प्रकाशन, दिल्ली का ‘पारो- उत्तरकथा’ सुदर्शन प्रियदर्शिनी का नया (2019) उपन्यास है। आगे के फ्लैप पर ऊपर लिखा है, ‘प्रणय, प्राण और प्रारब्ध एक दस्तावेजीय अवलोकन’। लगता है लेखिका ने पारो की कथा को इन तीन दृष्टिकोणांे से जाँचा और परखा है। पीछे के फ्लैप पर पुल पर एक पुरुष आकृति खड़ी है। साथ ही पीछे के कुछ पृष्ठों में लेखिका और उसकी अन्य कृतियों का परिचय है। हिन्दी में एम.ए., पीएच.डी. लेखिका का जन्म अविभाजित लाहौर में हुआ था। कई वर्षो तक भारत में शिक्षण कार्य करने के बाद वे 1982 में अमेरिका चली गईं। वहाँ रेडियों, टी.वी. और संपादन कार्य में व्यस्त रहीं। पिछले कुछ वर्षों से वे फिर से लेखन में सक्रिय हैं, परिणाम है उनका ताजा 330 पृष्ठों का उपन्यास। पात्र परिचय के बाद, अगले ही पेज से कहानी शुरू हो जाती है।


पुस्तक पारो की कहानी है, किंतु इसमें इसका समय और जीवन झलकते हैं। इसमें आज के इंसान की सोच, उसके प्रश्न और उसके तर्क हैं। शरतबाबू ने सन् 1900 में ‘देवदास’ लिखा था, जो 1917 में छपा था। सुदर्शन जी का उपन्यास उस कथा का आधुनिक वर्जन है, आज की व्याख्या के साथ। दोनों पुस्तकों में एक सदी का अंतर है। इस बार रचना नायिका प्रधान है। यह भारतीय पुरुष प्रधान समाज में नारी की दशा, बल्कि दुर्दशा का वर्णन करती है। ‘‘सभी नारी जाति की एक ही दिनचर्या है घर, पति और बच्चे।’’ थोड़ी जागरूकता के बावजूद आज भी समाज में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। वे कहती हंै, ‘‘पुरुषों के सौ गुनाह माफ और स्त्री के लिए एक गुनाह नरक। यही रीत है हमारे समाज की।’’ वे आगे बताती हैं भारत में अधिकांश विवाह माता-पिता की इच्छा से होते हैं। पुस्तक सामंती पद-प्रतिष्ठा में बंधे हुए संबंधों की भी कहानी है। झूठी शान और अहम की तुष्टि के लिए कैसे बच्चों का जीवन बर्बाद किया जाता है, पुस्तक इसका भी प्रमाण है। ज़िद में कोई भी इंसान अपने को दूसरे से छोटा नहीं मानता है। अनुभव से समझ में आता है कि ज़िद तो टूटती नहीं है, टूटता तो इंसान ही है। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। उपन्यास के अधिकांश पात्र इंसान की इस टूटन की कहानी कहते हैं। इसमें समाज में प्रचलित परम्पराओं, मान्यताओं और बेमेल विवाहों का भी जिक्र है, साथ ही बताया गया है कि शुरू से ही स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग मानदण्ड रहे हैं।


पत्नी राधा की मृत्यु के बाद वह रायसाहब वीरेन के जीवन और यादों में रहेगी, मगर देवदास की मृत्यु के बाद वह पार्वती (पारो) के जीवन में रहे, यह उन्हें मंजूर नहीं। उनका तर्क था, ‘‘मैं पुरुष हूँ, पराये मर्द का अस्तित्व क्यों सहँू।’’ पारो का तर्क है, यदि पुरुष अपने पहले प्रेम के साथ जी सकता है तो स्त्री क्यों नही? वह पूछती है मरने से पहले देवदास द्वारा पारो का नाम लेने भर से वह दोषी कैसे हो सकती है? हमारे यहाँ बेमेल विवाह भी बड़ी सहजता से मान्य किये जाते हैं। राधा रायसाहब से 10 साल बड़ी थी। कोई भी इस शादी के लिए तैयार नहीं था। मगर उनकी ज़िद के आगे सबको झुकना पड़ा। राधा की मृत्यु के बाद वे अपने से 15 साल छोटी पार्वती से शादी करते हैं, क्योंकि हवेली को एक ठकुराइन और बच्चों को एक माँ चाहिए थी। बचपन से साथ पले-बढे़ देव और पारो में गहरा प्रेम होने के बावजूद सामंती शान में पिता यह विवाह नहीं होने देते हैं। उन्हें नीचा दिखाने के लिए पारो की माँ उसे दुजवर विधुर रायसाहब को इस घोषणा और गुरूर के साथ बेचती है, ‘‘मेरी बेटी सोने की पालकी में बिदा होगी और तुमसे भी ऊँची हवेली की ठकुराइन बनेगी।’’ वह बनती भी है, मगर क्या वह सुखी थी?


पारो और देवदास के संवाद से कहानी शुरू होती है। देव की मृत्यु हो चुकी है किंतु वह पूरी कथा में बैकग्राउंड में उपस्थित रहता है और पारो से संवाद करता रहता है। नींद में रायसाहब देव का नाम सुनते हैं और सजा में पारो का खाना बंद कर देते हैं। न्यायप्रिय रानी माँ (लीलामयी) को यह बर्दाश्त नहीं है। उनकी यादों में कहानी आगे बढ़ती हैं। वे 16 साल की उम्र में हवेली में आई थीं। पति कुँअर नारायण नाच-गाने में मस्त रहते थे। उन्हें पद तो मिला, किंतु प्रेम नहीं। वे आज भी एक ‘अतृप्त आत्मा’ है। पति की मृत्यु के बाद बेटा वीरेन अब रायसाहब है और पारो ठकुराइन। फिर हवेली में दो प्रोफेसर रहने आती हैं, राधा और रोहिणी। तरुण वीरेन अपने से दस बरस बड़ी राधा से प्रेम करने लगता है। जिद में खुद को घायल कर लेता है। अंत में यह बेमेल विवाह हो जाता है। वह एक स्वार्थी, शंकालु और पज़ेसिव पति था। बेटी कंचन को माँ के पास नहीं सोने देता था। छोटी सी बच्ची नानी के घर भेज दी जाती है। दुखी राधा आत्महत्या कर लेती है। रानी माँ यह बात कभी नहीं भूला पाती हैं।


देव मृत्यु के पहले पारो के घर अपना वचन निभाने गया था। उसकी नजर में ‘‘जब मनुष्य अपने निर्धारित मार्ग पर चलकर अंतिम पडाव पर पहुँच जाता है, तो उसकी मुक्ति हो जाती है।’’ प्यार से..... मोह से.... संसार से। कहानी में हर पात्र का अपना जीवन दर्शन है और वह उसी के अनुसार जीता और मरता है। वह बताता है उसे चंद्रमुखी अच्छी लगती थी। वह एक ‘‘पावनमूर्ति’’ थी, अन्य वेश्याओं से अलग। मगर वह पारो तो नहीं थी। देव ने कभी उसे नहीं छुआ। उसने कभी पारो के शरीर को भी नहीं चाहा। पारो भी मानती है, ‘‘प्यार केवल मिलन का नाम नहीं है।’’ वह एक बार धर्मदा के साथ चन्द्रमुखी के कोठे पर भी गई थी। उसका प्रेम और श्रद्वा देखकर दंग रह गई थी। उसकी तुलना में पारो को अपना प्रेम हल्का लगता है। गहरे आत्मीय संबंधों में मिलना न मिलना, देखना न देखना कोई मायने नहीं रखता है। कहीं दूर ही सही कोई अपना है, यह बात इंसान को बहुत सुकून देती है। देव, पारो और चंद्रमुखी ‘प्लेटोनिक लव’ का एक सुंदर त्रिकोण है। वाकई मानव मन की गइराई की थाह पाना बहुत कठिन है।


माता-पिता के प्रेम से वंचित और नानी के घर पली कंचन की छोटी उम्र में शादी कर दी जाती है। उदण्ड और सुरा-सुंदरी प्रेमी पति प्रमोद का व्यवहार शादी में ही अच्छा नहीं था। अय्याशी उसकी जान ले लेती है। पारो रानी माँ और वीरेन को धीरज देती है। ‘‘कुछ बातों पर हमारा ज़ोर नहीं होता है.... जीवन के हाथों हम सबको हारना पड़ता है।’’ सद्भावना और कर्तव्य बोध में उसका कोई सानी नहीं था। सभी परंपराएॅ तोड़कर दुखी पिता बेटी को संस्कार के बाद घर ले आते हैं। नई माँ के कारण कंचन को घर अच्छा लगता है। वह उनके समान बनना चाहती है जो सबका दुख बाँटती हैं।  पिता भी माँ-बेटी की मित्रता देखकर निश्चिंत थे। कंचन की सास उसे 13वीं के लिए लेने आती है। कंचन ने नई माँ को बताया था कि सास की नजर रायसाहब की संपत्ति पर हैं। वह देवर विनोद से उसपर ‘चादर डलवाकर’ (विधवा विवाह की एक प्रथा) उसे अपने पास रखना चाहती है। रास्ते भर कंचन खुद से संघर्ष करती है, उसे पिता की सहानुभूति चाहिए या ससुराल में अपना सही स्थान और सम्मान। सिसकियों के बीच 13वीं संपन्न होती है। कंचन सुसराल में रहना तय करती है। लेखिका लिखती है, ‘‘ये रिश्ते बडें अलौलिक होते है।’’ इनके उलझाव को समझना कठिन है क्योंकि हम स्वयं नही जानते हम कब क्या करेंगे। पारो का स्वभाव और व्यवहार देखकर कंचन माँ से वचन लेती हैे कि वे भाई महेन की देखभाल करेंगी।


जब तक पाठक महेन की कहानी नहीं जानता, तब तक उसे लगता है कंचन ही कहानी का सबसे दुखी पात्र है। वह नहीं जानता कि रात-दिन रानी माँ, पिता और हवेली की सेवा में लगे रहने वाले महेन के अंदर कितना दर्द है। एक दिन नई माँ उसका हाथ पकड़कर कहती है, मुझे अपना दुख बताओ। वह फूट पड़ता है। लेखिका लिखती है, ‘‘माँ बनने के लिए गर्भ धारण करना जरूरी नहीं है, जितना अंदर स्नेह का स्त्रोत होना आवश्यक है। जो हर स्त्री अपने जन्म के साथ लेकर आती हैं।’’ लेखिका मानव मन की अद्भुत जानकार है। महेन बताता है उसी सिविल लाइन्स में एक लड़की रहती थी। दोनों में प्रेम हो गया। रायसाहब ने बेटे की खुशी के लिए लड़की के पिता से बहुत मिन्नते की, मगर वे अपनी राजपूती शान में अड़े रहे। 18 साल की लड़की की शादी कर दी जो दूसरे ही दिन घर छोड़कर चली गई। कहाँ? कोई नहीं जानता। वह कैसे धीरज रखे? महेन की पीड़ा के सामने पारो की पीड़ा बौनी हो जाती है। महेन में कितना धीरज और गम्भीरता है। वह माँ से अपने लिए प्रार्थना करने को कहता है।


वीरेन की बहन शोभना भी कंचन से गमी में मिलने आती है। वह भाई की दूसरी शादी में नहीं आई थी। संपत्ति के बँटवारे को लेकर भी भाई से खफा थी। उसके आते ही चतुर पारो रायसाहब के कमरे में अपना सामान रखकर उसे पति-पत्नी का कमरा बना देती है। वह नहीं चाहती थी कि उसके और पति के संबंधों की दूरी ननद को मालूम पड़े। कभी स्वाभिमानी पारो ने पति से कहा था वे खुशी से राधा की यादों के साथ रह सकते है। आज वही पारो कहती है, ‘‘आपका सम्मान मेरा सम्मान है।’’ वीरेन उसकी तुरत बुद्धि और चरित्र की दृढता देखकर हैरान थे और शायद शर्मिंदा भी। पारो पहली ही भेंट में शोभना का दिल जीत लेती है। रात को विनोद कंचन को मिलवाने लाता है। खाने के बाद सब अपने-अपने कमरे में चले जाते हैं। सीढ़ी पर बैठी पारो अपने भाग्य का निर्णय करती है। तभी लगता है किसी ने उसके कंधे पर थपकी दी। वह समझ गई, शायद देव भी यही चाहता है। वह रायसाहब के कमरे की देहली पर पाँव रखती है। अंदर से आवाज आती है, ‘‘आओ पार्वती आओ’’ और उपन्यास समाप्त हो जाता है। यह सुखद अंत पाठक को भी अच्छा लगता है।


शरतबाबू के उपन्यास का अंत करुण है। देव की मृत्यु की खबर सुनकर पारो बाहर भागती है और बेहोश होकर गिर पड़ती है। वे लिखते हैं देवदास के लिए बड़ा अफसोस होता है। ‘‘उसके जैसी मौत किसी की न हो’’ कि मरते समय सामने एक भी ‘स्नेहमय मुखड़ा’ और किसी की आँख मंे आँसू की एक बूँद भी न हो। इसकी तुलना में सुदर्शन जी के उपन्यास का अंत पाठक को सुकून और समाधान दोनों देता है। सरल हिन्दी में लिखी गई इस पुस्तक में  कहीं-कहीं अपनी बात को वजन देने के लिए अंग्रेजी वाक्यों का भी प्रयोग किया गया है। रचना में प्रकृति भी है। आरंभ ही गाँव के खेत-खलियानों से होता है। जब भावनाएँ बहुत घनीभूत हो जाती है, तब लेखिका प्रकृति को रिलीफ के तौर पर भी इस्तेमाल करती है। दाम्पत्य जीवन में दुखी रानी माँ फूलों में शांति ढूँढती हैं। चिड़ियों का कलरव सुनते हुए, आम्रवृक्ष के नीचे पारो पति का मन समझने की कोशिश करती है। विभिन्न रंगो की डेज़ी और डेलिया के फूलों को देखकर अपने मन की थाह पाना चाहती है। लेखिका ने अपने पात्रों का खूब ध्यान रखा है। स्ट्रीम आॅफ काॅनशियसनेस, यादों, संवादों और फ्लैशबैक में आगे-पीछे चलने वाली कहानी में कन्टीन्यूटी बनी रहती है। उपन्यास पाठक को अंत तक बांधे रखता है। लेखिका ने बहुत मेहनत की है।



Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य