प्रेम को जीना इसे कहते हैं!

प्रेम की कोई एक स्थायी परिभाषा कभी बनी ही नहीं। यह संभवतः चंद मखमली शब्दों में लिपटी गुदगुदाती, नर्म कोमल अनुभूति है। आँखों के समंदर में डूबती कश्ती की गुनगुनाती पतवार है। एकाकी उदास रातों में अनगिनत तारे गिनती, स्मृतियों के ऊँचे पहाड़ों के पीछे डूबती साँझ है। प्रसन्नता के छलकते मोती हैं या फूलों में बसी सुगंध है। अनायास उभर चेहरे को लालिमा की चादर ओढ़ाती मधुर मुस्कान है।


क्या पल भर की मुलाकात, चंद बातें और एक प्यारी-सी हँसी भी प्रेम की परिभाषा हो सकती है? होती ही होगी...वरना कोई इतने बरस, किसी के नाम यूँ ही नहीं कर देता! आप इसे इश्क/मोहब्बत/प्यार /प्रेम या कोई भी नाम क्यों न दे दें, इसका अहसास वही सर्दियों की कोहरे भरी सुबह की तरह गुलाबी ही रहेगा। इसकी महक जीवन के तमाम झंझावातों, तनावों और दुखों के बीच भी जीने की वजह दे जाएगी।


प्रत्येक प्रेम कहानी का प्रारंभ प्रायः एक सा ही होता है। भीड़ के बीच दो किरदार मिलते हैं, कभी कहानी बनती है तो कभी बनते-बनते रह जाती है। सारा खेल कह देने और न कहने के मध्य तय होता है। जीवन की दौड़ और समय के बहाव में कोई एक किरदार इतना आगे निकल जाता है कि पलटकर आता ही नहीं और एक मौन कहानी ठिठककर, सकुचाई-सी वहीं खड़ी रह जाती है। उसके बाद की गाथा समाज तय करता है, ‘दुखांत‘, ‘सुखांत‘ या ‘एकांत‘!


इन दिनों सोशल मीडिया और इस पर फलते-फूलते आभासी प्रेम की सैकड़ों कहानियाँ पढ़ने को मिलती हैं। पानी के बुलबुले-सा जीवन जीती ये तथाकथित प्रेम कहानियाँ लाइक, कमेंट, इनबॉक्स से होती हुई देह तक पहुँचती हैं और कुछ ही माह पश्चात् आरोप-प्रत्यारोप, स्क्रीन शॉट और ब्लॉक की गलियों में जाकर बेसुध दम तोड़ देती है। इन्हीं ख्यालों से गुजरते हुए जब मैं उपन्यास ‘यू एंड मी...द अल्टिमेट ड्रीम ऑफ लव‘ से रूबरू होती हूँ, तो यही सोशल मीडिया ईश्वर के दिए किसी वरदान सरीखा प्रतीत होता है।


पैंतालीस वर्षों के दीर्घ अंतराल के बाद सोशल मीडिया की इसी आभासी दुनिया में इस उपन्यास के लेखक युग्म मल्लिका और अश्विन का मिलना, किसी खोए हुए स्वप्न को खुली आँखों में भर लेने जैसा है। वो अनकही प्रेम-कहानी, जो अपने समय में जी ही न जा सकी; जब पुरानी स्मृतियों के पृष्ठ पलटती है तो सृष्टि के सब से सुन्दर और सुगंधित पुष्प आपकी झोली में आ गिरते हैं। इनकी महक और भावुकता में डूबा हृदय दुआओं से भर उठता है और प्रेम के सर्वोत्कृष्ट रूप से आपका मधुर साक्षात्कार होता है।


यह प्रेम कहानी भी बनते बनते, एक अंतहीन प्रतीक्षा की चैखट पर उम्र भर बाट जोहती अधूरी ही रह जाती है। लेकिन जीवन तब भी उसी निर्बाध गति से चलायमान रहता है। जब कहीं रिक्त स्थान छूट जाता है या छोड़ दिया जाता है तो उम्मीद की सबसे सुनहरी किरण ठीक वहीं से प्रस्फुटित होती है तभी तो एक दिन अचानक वो बचा, छूटा हुआ हिस्सा ही सौभाग्य का चेहरा बन नायिका के मन के द्वार को कुछ इस तरह से खटखटाता है कि उस की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता! यही प्रेम की वह उत्कृष्टतम अवस्था है, जहाँ प्रिय से अपने हृदय की बात कह पाना और उसकी स्वीकारोक्ति ही सर्वाधिक मायने रखती है। यहाँ न मिलन की कोई अपेक्षा है और न ही समाज का भय। आँसू से भीगे मन और खोई हुई चेतना है! वो प्रेम जो दर्द बनकर वर्षों से नायिका के सीने में घुमड़ रहा था, उसकी अभिव्यक्ति अपने प्रिय के समक्ष कर देना ही सारी पीड़ा को पल भर में हर लेता है। उसके बाद जो नर्म अहसास शेष रहता है, वही प्रेम का चरम सुख है।


प्रेम की महत्ता पाने से कहीं अधिक उसे खोकर जीने में है। अश्विन और मल्लिका के संवाद से गुजरते हुए इन्हीं गहन सुखद अनुभूतियों से पाठक का साक्षात्कार होता है कि सच्चा प्रेम कभी नहीं हारता, बल्कि शाश्वतता की ओर बढ़ता चला जाता है! यह उपन्यास प्रेम पर टिके हर विश्वास को और गहरा करता है, साथ ही समाज के उस कुरूप चेहरे को भी बेपर्दा करता है जहाँ खोखली परम्परा और मान्यता के नाम पर बनाए खाँचे में फिट होने पर ही किसी रिश्ते को सर्वमान्य किया जाता है।


साधारण रंगरूप की नायिका, नायक से अथाह प्रेम करने के बाद भी उससे अपने दिल की बात यह सोचकर नहीं कह पाती कि भला इतना सुदर्शन युवक उसकी प्रेमपाती क्यों पढ़ेगा? फिर समाज ने तो धर्म के चश्मे से ही दिलों को परखा है धड्कनों को गिनना तो वह आज तक नहीं सीख पाया! किशोरी नायिका का यह भय स्वाभाविक ही था कि हिन्दू लड़की और ईसाई युवक का संबंध यह रूढ़िवादी समाज कभी स्वीकार नहीं करेगा।


परिवार के प्रति अपने कत्र्तव्यों का पूर्ण एवं बेहतरीन तरीके से निर्वहन करते हुए भी कथा नायिका चार दशकों से भी ज्यादा समय तक न केवल अपने कॉलेज काल के प्रिय साथी की स्मृतियों को जीवंत बनाए रखती है अपितु उससे जुड़ी तमाम तस्वीरें भी अपने पास सुरक्षित रख पाती है। फिर एक दिन उसे सोशल मीडिया पर ढूँढ निकालती है। अपने संक्षिप्त परिचय के साथ जब वह उसकी दुनिया में प्रवेश करती है, हजारों मील दूर बसा नायक खुले दिल से अपनी गलतियों को स्वीकार करते हुए संवाद के जरिये, अपने समस्त दुःख एवं अस्वस्थता भुला, खुलकर बातें करता है। अपने खोए हुए शौक को जीवंत करते हुए संगीत, शेरो-शायरी के बीच अपनी आपबीती कहता है। लोग सही कहते हैं कि यदि आपके साथ एक भी इंसान ऐसा है, जिससे आप अपने सारे दुःख-सुख साझा कर सकते हैं तो आपका जीवन सार्थक है। दिल से जुड़े हुए लोग परस्पर दर्द जैसे सोख लेते हैं।


प्रेम के बीज से अंकुरित इस उपन्यास को प्रेम कहानी भर कह देना इसके साथ अन्याय होगा क्योंकि यह कई सामाजिक विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित करता है। यह धर्म के नाम पर उठाई गईं दीवारों को तोड़ देने की बात करता है। नई पीढ़ी के युवाओं को महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना बनाए रखने का अनुरोध करता है। हमारी शिक्षा-व्यवस्था पर भी कई गहन संवाद करता है। विदेशों में रहने वाले भारतीयों को लेकर हमारे समाज में जो भ्रांतियाँ स्थापित की गईं हैं, यह उपन्यास उन पर भी करारा प्रहार करता है। विदेश जाने वाले अधिकांश भारतीयों को किस-किस तरह की विपरीत परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है उसकी सटीक विवेचना करता है। अपने वतन से बिछड़ने का दर्द भी जाहिर करता है।


अपने-अपने जीवनसाथी से रिश्तों की मजबूती निभाते हुए, अपने परिवार के प्रति सम्पूर्ण समर्पित होते हुए भी मल्लिका जी और अश्विन जी ने अपने-अपने जीवन की सच्ची दास्तान लिखने का जो साहस दर्शाया है, आप उसकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते। कथा नायक अश्विन और उसकी पत्नी के रिश्ते को भी बहुत सुन्दर तरीके से बताया गया है कि करीब चार साल तक विवश हो अलग रहने और तमाम कठिनाइयों का सामना करने के बाद अंततः वह अपनी पत्नी और बेटी के पास अमेरिका पहुँच ही जाता है। ठीक उसी तरह कथा नायिका मल्लिका भी एक सहपाठी के साथ दोस्ती और प्रेम की भूलभुलैया में उलझकर चरम मानसिक संघर्ष से गुजरती है तभी एक अत्यधिक सुलझा हुआ, संवेदनशील एवं समझदार इंसान उसे जीवनसाथी के रूप में मिल जाता है, जिससे वह अपने दिल की सारी बातें बेझिझक साझा कर सकती है।


मुझे पूरा विश्वास है कि चैट पर आधारित यह उपन्यास प्रेम के शाश्वत रूप को और भी गहराई से स्थापित करेगातथा पाठकों तक यह संदेश भी पहुँचाएगा कि जब किसी से प्रेम हो तो उस पक्ष को अपनी बात निस्संकोच कह ही देना चाहिए। अधिक से अधिक क्या होगा? ‘न’ हो सकता है और क्या? प्रणय निवेदन न कर पाने का उम्र भर दुःख मनाने से कहीं श्रेष्ठ है उसे कह देने की प्रसन्नता पाना।


थोथी इज़्जत के नाम पर घृणा और हिंसा में डूबते समाज में ढाई आखर के प्रेम की यह गाथा शीतल बयार की तरह है। इन गाथाओं का जीवित रहना और बार-बार कहे जाना नितांत आवश्यक है कि मानवीय संवेदनाओं का मान बना रहे और प्रेम को उसकी शाश्वतता के कारण चिरकाल तक बिसराया न जा सके।


स्थल और काल से परे, प्रेम को परिभाषित करती इस उपन्यास की कहानी, वर्तमान पीढ़ी के लिए भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि आज से पैंतालीस वर्ष पूर्व थी। युवाओं को यह भी सीखने को मिलेगा कि देह से इतर प्रेम कितना खूबसूरत और परिपक्वता लिए होता है। समाज के बनाए हुए निरर्थक नियमों के चलते अथाह पीड़ा से गुजरकर, नियमों के दायरे को तोड़कर, प्राप्य की इच्छा से कोसों दूर आत्मिक श्रेष्ठता की अनुभूति कर पाना वास्तव में प्रेम का चरम बिंदु है।


मैं नहीं चाहती कि इस श्लाघनीय उपन्यास में आपके आनन्द में रत्ती भर भी कमी आये और दोहराव लगे, इसीलिए मैं संवादों को यहाँ लिखने से बच रही हूँ। अंत में पाठकों से इतना ही कहूँगी, अपनी-अपनी कहानी का अंतिम पृष्ठ हमारे भरने के लिए ही होता है, आप भी उसे इंद्रधनुषी रंगों से सराबोर कर दीजिए! 



प्रीति ‘अज्ञात’, संस्थापक एवं संपादकः ‘हस्ताक्षर’ मासिक वेब पत्रिका


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