संभावनापूर्ण कविताओं का संसार है दीपक मंजुल की रचनाएँ

पुस्तक समीक्षा


‘तन जाती हैं इंद्रधनुष-सी वे‘ कवि-विचारक दीपक मंजूल का मुखरित काव्य संग्रह है, जो 2009 में आए उनके प्रथम संग्रह ‘वक्त की शिला पर’ के बाद 2018 में ‘इंडिका इन्फोमीडिया’, नई दिल्ली से पेपरबैक रूप में प्रकाशित होकर मेरे सामने है। इस संग्रह में कवि अपने आसपास के सहज वातावरण वाले समाज से लेकर देश, धर्म, संप्रदाय, राजनति से होते हुए अनेक सरोकारों से बावस्ता हुए हैं। गद्य की अपेक्षा पद्य में कहना थोड़ा जटिल काम है, लेकिन कवि मंजुल ने भाषा की रवानी के अपने मुहावरे में जो और जैसा लिखा सरल, सुगम और


बोधगम्य हो गया। परिवार, पड़ोस, प्रेम-घृणा ही नहीं, मनुष्य के किरदार को समझती-समझाती कविताएँ भी यहाँ शामिल हैं, जिस पर उन्हें दाद दिया जाना चाहिए।


‘तन जाती हैं इंद्रधनुष-सी वे‘ शीर्षक प्रथम कविता से लेकर ‘मेरा बेटा हर रोज एक हिमालय ढोता है‘ तक तथा ‘दिल्ली‘, ‘क्यों‘, ‘बाजार‘, ‘दरभंगा‘, ‘माँ‘ सहित दसियों कविताएँ कवि की सार्थक अभिव्यक्ति की परिचायक हैं। ‘कटी पतंगें‘, ‘31 दिसंबर‘, ‘स्मार्ट फोन‘, ‘समझदार लोग हों या ‘मेरी बेटी‘, ‘मेरा बच्चा‘ - इन सभी रचनाओं में कवि की संवेदना पाठक को


बाँधती है। मानव-मन की गहराई का थाह पाना आसान नहीं। दीपक मंजुल ने अपनी अभिव्यक्ति में सरलता के साथ बोधगम्य शैली में इनको बाँधा, प्रस्तुत किया, फिर उठाया भी है। शब्दों से अर्थों तक, और अर्थों से व्यथा-व्याख्या तक, जब रचना फैलती, खुलती है तो एक तमीज, एक आचरण का प्रारूप भी प्रस्तुत कर रही होती है। ‘तन जाती हैं इंद्रधनुष-सी वे’ संग्रह में कसबा, नगर, महानगर, साथ-साथ खुलते और बोलते हैं -


‘सच ! ऐसी निर्दोष और खनकदार हँसी/शताब्दियों में नहीं सुनी होगी किसी ने भी / भूलोक के इस पार या उस पार / जैसी हँसी नित दिन बरसती है / मेरे कमरे में न जाने कितनी बार / और कितनी तरह से ...!‘ -पृ. 12


यहाँ कमरा, भवन, मोहल्ला या शहर नहीं, प्रांत अथवा देश तक खनखनाती हँसी का आनंद लेने लगता है और


कृति मन का यह सुख पाठकों तक प्रसाद की तरह पहुँचने लगता है। बात मेरी या तुम्हारी नहीं, हम सबकी भी हो कविता में तभी प्रासंगिक ठहरती है। प्रतीक, उपनाम, उपमेय यहाँ तिरोहित हो रहे हैं। सारतत्त्व भाव व्यंजना मुखर होकर विषय को खोलने-खिलने पर उतारू है। कविता का एक उद्देश्य, अभिप्राय यहाँ सफल प्रतीत है।


‘लोहे पर कुछ कविताएँ‘, ‘भ्रम की धुंध में’, ‘थूक‘, ‘विज्ञापनों से अखबारों का मुंह ढंक गया है’। आदि दीपक मंजुल की कविताओं के महज शब्द या शीर्षक भर नहीं, अर्थ विस्तार है उस भावना का, जिसके अधीन कवि रचनारत है, क्योंकि आज उत्पादन या निर्माण अथवा सृजन को अनेक कवि समानधर्मा मानने-समझने की भूल कर बैठे हैं। मूलभूत अंतर यहाँ अभिव्यक्ति में खुलने लगता है जब काव्य का कथ्य-सृजन मौलिकता पर तुलने लगता है। प्रेम, भाव और उनका उन्मेष कवि मंजुल की शब्दावली में श्रेष्ठ कर्म की ओर अग्रसर है इसलिए आज के तथाकथित मायावी-कायावी कवियों से किंचित अलग और आगे, चुपचाप ये अपनी धारा में बहते हुए सृजनरत हैं।


स्वांतः सुखाय रची गई ये कविताएँ व्यावसायिक कवि कर्म से अलग और ठोस हैं। ‘तन जाती हैं इंद्रधनुष-सी वे’ प्रेम का स्वीकार ही नहीं, विस्तार भी है। दीपक मंजुल की मुहावरेदार भाषा, शिल्प का खड़ापन और शैली की मौलिकता उनकी कविताओं को पठनीय बनाती हैं। शब्दजाल से परे जीवंत चित्रों का जो संसार प्रस्तुत संग्रह की कविताएँ दिखा रही हैं, वह सराहनीय तो है ही, संग्रहणीय भी जान पड़ती हैं। युवा कवि को बधाई।       




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