याद आते है संयुक्त परिवार और वे रिश्तों के बंधन

जैसे बीजों को पनपने के लिए भूमि की आवश्यकता होती है, उसी तरह मन की अनेकानेक भावनाओं को उमड़ने के लिए रिश्तों के बंधन चाहिए। प्रेम, सेवा, त्याग, समर्पण, आनंद पाना और बांटना ये भाव मानव हृदय की मूलभूत प्रवृतियां रही है। ये फलित और पल्लवित तभी होती हैं जब ये लताओं की भांति रिश्तों के पेड़ों से आधार और पोषण पाती हैं। जीवन प्राणवान तभी तक है, जब तक हम खुद के साथ दूसरों के जीवन को भी संभालते हैं, उन्हें कुछ देते हैं और उनसे कुछ ले पाते हैं। भारतीय परिवारों में जो सुगन्ध, मिठास और आत्मीयता से भरा वातावरण था उसकी जड़ में रिश्तों को सहर्ष स्वीकारने की प्रवृति ही रही होगी। अनुराग और त्याग कितना सहज आचरण था। ताऊ-ताई, दादा-दादी, नाना-नानी, चचेरे भाई-बहन, बुआ-फूफा,


विधुर और विधवा सभी के लिए मर्यादापूर्ण स्थान था। सभी घर के अनिवार्य अंग थे। स्नेह और प्रीति की भावना से फल घर के सदस्यों में बराबर बंट जाया करते थे। स्पर्धा और छीना-झपटी के स्थान पर देने के भाव प्रबल थे। बालक रूपी अंकुर पौधे से पेड़ बनने में सारे परिवार से धूप पानी और खाद पाता था। जैसे पक्षी खुले आकाश की सैर करके अपने पंखों में बल भरता है, वैसे ही बालक अनेक रिश्तों के खुले प्रांगण में किलकारियां भरता, क्रीड़ा. कल्लोल करता स्वस्थ मानसिकता को पाता बढ़ता है। किन्तु आज रिश्तों के बंधन में बंधना व्यक्ति की स्वतंत्रता, दौड़ और प्रगति में अनावश्यक गतिरोध माना जा रहा है। परिवार सुखी डालियों की तरह, सुखी पत्तियों की तरह झर रहे हैं। संयुक्त परिवार विभक्त हो गए - क्या एकल परिवार सुखी हैं? शायद नहीं ! वहाँ भी अहं टकराते हैं, सम्बन्ध विच्छेद होते हैं। रिश्तों का निर्वाह करने की संकल्प शक्ति क्षीण होते ही व्यक्ति घायल हो जाता है। घर के सदस्यों से ही वह क्षतविक्षत होने लगता है। परिवार की समवेत शक्ति से उर्जा जल की तरह प्रवाहमान रहती है अन्यथा उसे अकेलेपन की रेत जल्दी ही सोख लेती है।


जीवन के कोरे पृष्ठों पर रिश्तों के बंधन तो रसमय छन्द हैं। रिश्ते तो वे मेघ हैं जिससे मानस की भूमि शस्य श्यामला बन जाती है। रिश्तों से ही तो हृदय में भावों का उत्स उमड़ता है। हाँ, हर रिश्ता स्वयं के साथ नये बंधन तो लाता है लेकिन इन बन्धनों में बंधकर ही तो जीवन निखरता है, संवरता है और भाव समृद्ध होता है।


आज हम सभी भौतिक साधनों को पाने और उनके रख रखाव के लिए पूरी तरह से प्रयत्नशील हैं। जड़ के प्रति इतना सम्मोहन तो चेतन के प्रति उपेक्षा, तिरस्कार और अनादर क्यो? भौतिकता त्याज्य नहीं लेकिन इसकी गोद रिश्तों के बंधन के भाव शिशुओं से वंचित न रह जाए। रिश्तों का निर्वाह ही भाव निर्झर का स्रोत्र है।


रिश्तों के बंधन की शीत धूप और बारिश को सहने वाला व्यक्ति ही फलवान वृक्ष बनता है। अन्यथा उसका जीवन ठूंठ की तरह हो जाएगा जिसे कोई भी आशा, अपेक्षा और विश्वास के साथ नहीं देखता संयुक्त परिवार अब अतीत की स्म्रतियो मे नहीं रह जाये। 



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