आस का दामन

जितना जीवन बाकी है।


आसका दामन बाकी है।


 


खिलौना कहाँ सोचता है,


किसका बचपन बाकी है।


 


धूप पूछती आसमां से,


कितने सावन बाकी है।


 


हर उलझन सोचती है कि,


कोई उलझन बाकी है।


 


हम खूब घूम लें लेकिन,


घर का बंधन बाकी है।


 


भले अपनी तारीफ हो,


देखना दर्पण बाकी हैं।


 


आखिर यहाँ हर रिश्ते में,


थोड़ी अनबन बाकी है।


 


फूल खिलें हैं ग़ज़लों के,


वो एक गुलशन बाकी है।



माधुरी राऊलकर


नागपुर, महाराष्ट्र, मो. 8793483610


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