बातें ऐसी भी होती हैं?

मैं लोकल टेªन का डेली पैसेंजर हूँ। कुछ दिनों से हमारे कम्पार्टमेन्ट में पाँच-छह गूँगे-बहरे लड़कों का ग्रुप चढ़ता है। टेªन खुली नहीं कि उनकी बातचीत दस अंगुलियों के माध्यम से शुरू हो जाती और मंज़िल आने तक हँसी-ठट्टा चलता रहता। मैं क्या कम्पार्टमेन्ट के सभी यात्री दम साधे उन्हें देखते रहते। जीवन के इस अधूरेपन को लेकर उनके चेहरे पर किसी तरह का मलाल अफसोस नहीं, उल्टे हर क्षण चेहरे पर खुशी-आत्मविश्वास झलकता है। उनके इशारे हमें बिल्कुल समझ में नहीं आते पर उनकी हँसी-ठहाकों से यह ज़रूर पता चलता है कि वे अपनी जिन्दगी से प्यार करते हैं- संतुष्ट हैं, प्रसन्न हैं। और एक हम? सब कुछ सही सलामत रहते हुये भी चेहरे पर बारह बजे होते हैं। सुबह से शाम बस चिन्ता-फिक़र।


मैंने कम्पार्टमेन्ट में नज़रें दौड़ायीं- जिनके पास बोलने की शक्ति थी, उन्होंने चुप्पी साध रखी थी, चेहरे लटके हुए थे। और... जो इनसे वंचित थे उनके मुखड़े पर अपार खुशियाँ थीं व उनकी अंगुलियाँ बड़ी तेज़ी से बातें कर रही थीं।


 


माँ-बाप


बूढ़े माँ-बाप भूकंप के वक्त ऊँची-ऊँची इमारतों व घरों में छूट गये और जवान पीढ़ी धड़ाधड़ बाहर निकल आयी। अब उन बूढ़ों को संभाला जाये या अपनी जान, अपना ‘परिवार’ देखा जाये? हाँ, उस वक्त सोचने, निर्णय लेने का जज़्बा कहाँ था! मज़बूत पैरों ने राह बनायी और अशक्त शरीर घर में छूट गये।


तूफान थमा, धरती शांत हुई। धीरे-धीरे बच्चों ने घर में प्रवेश किया तो देखा उनके माँ-बाप ईश्वर की तस्वीर के सामने हाथ जोड़े प्रार्थना कर रहे थे, ‘‘हमें उठा लो प्रभु, पर हमारे बच्चों को सही सलामत रखना....’’



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