बुढ़ापा
जेठ की तीखी धूप में पपड़ायी धरा
सावण आते ही हो जाती है यौवनमयी सब्ज हरी
धरा को अपना झुलसा चेहरा देख आईने में
नहीं होता होगा कभी मलाल
उसे सावण आते ही फिर से हरा हो जाने का पता होता है
इंसान ही क्यों जब एक बार बूढ़ा हो जाता है
सुचिक्कन स्याह केशों में दौड़ जाते हैं रूपहले तार
विरान हो जाती है कोटर में धंसी आँखें
तो लाख सावण आए हरियाता नहीं
वार्धक्य के बाद मौत नियति है
पड़ाव है मंजिल का अंतिम
मगर मरने से पहले बूढ़ा होना क्यों जरूरी है?
सागर पेड़ धरा पहाड़ नहीं होते बूढ़े हमेशा के लिये
बर्फ जब गिरती है रूई के फोहों सी
रूख-सूखे झरे काले बेजान पहाड़ों पर
हो जाते हैं वे धवल नरम मुलायम
खरगोश के छौनों से सुकुमार संुदर
सागर का ज्वार थम जाता है तब
रचती है मध्यम लहरेें अल्पना मनोरम उसकी छाती पर
पेड़ तो वर्ष में कई बार धारण करते हैं
नए पत्र, पल्लव पुष्प
फिर अकेला मानव ही क्यांे भुगते यह श्राप
कि एक बार सरक जाए रेत भरी मुट्ठी सा यौवन
रूप, रस सौन्दर्य नहीं पाता दोबारा उसे
जबकि विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है वह
होता है सुन्दर मानव भी दोस्तो!
उम्र कोई फिसल पट्टी तो है नहीं
कि बच्चों की तरह बार-बार चढ़े उतरें
इंसान को संवारता है वक्त
दर्द उसके अहसासों को रवानी देता है।
अनुभव उसे सिखाते सजाते हैं
और साधते भी हैं
क्या हुआ जो हो गया माथा सफेद
संवला काया स्फटिक सा गोरा रंग
समय के थपेड़े खाकर
अन्दर की आत्मा होती जाती हैं
परिपक्व, पुख्ता, परिष्कृत
तप कर निखरती है कुंदन सी