दस्तक

शहर  की गहमागहमी से दूर, आई.सी.यू के बिस्तर पर पड़ा निश्चेष्ट शरीर, छत निहारती खुली आँखें- निस्तेज, निश्चल, अपलक... निहार भी रही हैं या यों ही खुली पड़ी है बेजान वस्तु की तरह। किसी को नहीं मालूम। न घरवालों को, न पड़ोसी को और न ही जूनियर  डॉक्टर को।


धड़कन बंद नहीं हुई है, साँस बहुत ही दबे पाँव चल रही है। बड़े डॉक्टर कहते हैं, ‘‘ज़िंदा हैं, मगर कोमा में हैं’’। कबतक उबरेंगे? उबर भी पाएँगे या नहीं, कहना मुश्किल है- जितने मुँह उतनी बातें। विज्ञान कुछ कहता है,पंडित मौलाना कुछ और; उन्हें जानने-समझने वाले कुछ और ही। शांत है तो सिर्फ मंगलेश की पत्नी शिवानी। मंगलेश की हर साँस का हिसाब रखने वाली शिवानी चुप है, कोई आशंका नहीं जताती- कोई ऐसा सूत्रवाक्य नहीं बोलती जिससे गुत्थी पूरी न सही, आधी भी सुलझ जाए, कि बगल वाले कमरे से उसे मंगलेश की कोई आवाज, कोई आहट या कोई ऐसी बात समझ आई जिससे आधी रात को  मंगलेश अचानक कोमा में चले गए !  आकस्मिक-सी लगनेवाली इस दुर्घटना की नींव नई पड़ी या वर्षों पहले- कोई कुछ नहीं कहता। बस, शिवानी ने बात-बात पर चीखना, कटाक्ष करना छोड़ दिया है जो अनजाने में ही उसकी आदतों में शामिल  हो गया था और जो मंगलेश के सामने अधिक प्रखर हो उठता। अब वह आई.सी.यू में है, कोमा में, शिवानी के व्यंग्य-वाण उसे बेंध नहीं सकते। वहाँ वह निश्चिंत है- शिवानी की चीख और झल्लाहट से दूर। शिवानी घुट रही है और कोमा में पड़े मंगलेश सिंह शांतचित्त जान पड़ते। कमरे में किसी को जाने की इजाज़त नहीं। क्या हुआ, डॉक्टर खुलकर बता नहीं पा रहे। बड़ा बेटा सुयश  लाल बहादुर शास्त्री अस्पताल  में डॉक्टर है, सो बाकी सब बात की सहूलियत है।  डॉक्टर, नर्स, सफाई कर्मचारी सब उससे ढंग और अदब से पेश आ रहे हैं। छह दिन बीत गए। सीनियर डॉक्टर कहते हैं, कोई सदमा लगा है। मगर, जल्दी होश में आ जाएँगे, सबको पहचानने लगेंगे, सबसे बात करने लगेंगे। मगर हुआ क्या? किस बात का सदमा लगा ?’


कहीं फोन पर कोनो से कोय बात त नै हो गया? नै नै, एत्ता कमजोर मन नै है उनका, जरूर कोई बड़का बात है


जे ई छिपाए के चाहे रहत।’ अस्पताल के अटेंडेंट सीट पर बैठी शिवानी बुदबुदाती रही।


साठ को पार करती शिवानी पूर्णिया जिला से कभी बाहर नहीं निकली, कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा, पिता से सिर उठाकर बात नहीं की, पढ़ा-लिखा सुंदर लड़का मिल गया, हाथ पीले कर दिए गए। पति मंगलेश बैंक में कैशियर रहते-रहते  मैनेजर होकर रिटायर हुए।


‘‘दो बेटा-बहू ,दो बेटी-दामाद, सबका बाल-बच्चा-  नातेदार-रिश्तेदार से भरा पूरा परिवार। एक औरत को और क्या चाहिए। बस सुहाग सलामत रहे।’’ वह फिर बुदबुदाई।


मंगलेश ने किसी जिम्मेदारी को निभाने में कसर नहीं छोड़ी, बस सालों बाहर नौकरी करते-करते घर ही उन्हें पराया लगने लगा। कभी रसोई में नहीं घुसते। तीन मंजिले मकान में भी बैठक से अपने कमरे तक की अपनी सीमा में विचरते। रिटायरमेंट के बाद सोचा था, पति- पत्नी चैन की ज़िंदगी जीयेंगे, कहाँ मालूम था, जिस पति के  साथ का  वह वर्षों से मंसूबा बांधे बैठी रही, वह कब का पराया हो चुका! बात खुलते-खुलते खुली तो क्या- झगड़ा-फसाद कर उसने पति को वापस इस घर में पूरे परिवार के साथ रहने के लिए विवश कर भी दिया तो क्या  वह मंगलेश को पा सकी? क्या मंगलेश वास्तव में लौट सके ? क्या इस घर में वे अपनेपन की महक पा सके? क्या इस वापसी ने उनसे उनकी जिंदगी छीन नहीं ली? हाँ, रोबोट ही तो हो गए थे। तीन वर्ष हो गए रिटायर हुए। एक साल तो यहाँ-वहाँ करते रहे, मगर, घरवालों की चिकचिक से तंग आकर डेढ़ साल पहले सारे साजो-सामान के साथ अपने आप पहुँच गए। यह उनकी अपने घर में वापसी थी या उस घर से जबरन विखंडन ,पता नहीं। कुछ सामान पहले भी ले आए थे। जाने किस मोह से कपड़े का एक बैग रख छोड़ा था वहाँ और कुछ किताबें ,डायरियाँ वगैरह। शायद उस घर में अपना अस्तित्व बनाए रखना चाहते थे,शायद वहाँ की दर-ओ-दीवार से प्यार हो गया था , तभी तो रहे न रहे, किराया भरते जा रहे थे ,मगर लाख चिल्ला-चिल्ली के बावजूद वहाँ से संबंध खत्म करने को तैयार न होते थे। वह बैग उस घर से जुड़े रहने की कड़ी था, आह! ये आज उसकी समझ में आ रहा है। कितना मुश्किल होता है संबंध की रेखा को रगड़कर मिटा देना, खासकर जब दिल इसके लिए तैयार न हो।   


सुधा का ब्याह हो गया। वे और अकेले हो गए। एक साल में उन्हें कभी खुलकर हँसते- बतियाते नहीं देखा। घड़ी की सूई के साथ शायद अपनी दिनचर्या का समझौता कर लिया था उन्होंने। किसी से कुछ नहीं कहते, कुछ नहीं माँगते। सुबह सबसे पहले उठते और टहलने निकल जाते, वापस आकर बैठक में टिक जाते, चाय वही पहुँचा दी जाती। वह किसी से बात न करते, एक अनकही पीड़ा दोनों को साले जाती और शीत युद्ध छिड़ा रहता, पहले तो तू-तू मैं होते-होते झगड़े की नौबत आ भी जाती, मगर अब वे उसके कहे का जवाब ही न देते। कुछ दिया तो खाए नहीं तो उठाकर कहीं निकल जाते या कमरे में सोए पड़े रहते। न पढ़ना न पहले की तरह घंटों टीवी देखना। छोटी बेटी सुधा जबतक ब्याही न गई थी,तबतक वही आगे-पीछे डोलती रहती, पिता की दुलारी जो ठहरी। मंगलेश उसे बाबू कहकर बुलाते, उसे कभी डाँटा हो, याद नहीं पड़ता। हाँ, बेटों को पढ़ने और आगे बढ़ने नसीहत हर छुट्टी में देते रहते, उस समय वह भी और बच्चे भी उनके आने का बेसब्री से इंतजार करते- सबकुछ जानने के बाद भी उन्होंने कभी पिता की उपेक्षा नहीं की, कोशिश करते रहे कि किसी तरह पिता वापस अपने घर हमेशा के लिए लौट आएँ। और शायद इसी भ्रम में मंगलेश लौटे भी कि बच्चों को अब भी उनकी ज़रुरत है। मंगलेश की वापसी के लिए अपनी ज़िद का कारण तो वह जानती है, मगर बच्चों की ज़िद का कारण क्या रहा होगा? पिता  से प्रेम? उनके साथ की इच्छा? या रिटायरमेंट के बाद भी पिता का किसी के घर पेइंग गेस्ट बनकर रहना ? इससे उनके सम्मान को चोट पहुँच रही थी, या कि जग हँसाई के भय से आक्रांत थे वे, नहीं चाहते होंगे कि उम्र के इस ढलान पर आकर पिता की बनी-बनाई इज्ज़त धूल में मिल जाय  या कि अपनी इज्ज़त बचाने की खातिर? कारण जो भी रहा हो, अब इतना तो वह समझ चुकी है कि कारण ‘वह’ नहीं थी। बच्चों ने उसकी पीड़ा समझी और इसलिए पिता को विवश किया- यह इतना ही बड़ा झूठ था जितना बड़ा झूठ ,उसके लिए मंगलेश की वापसी थी। एक  थका-हारा पिता लौटा था, पति नहीं, व्यक्ति तो बिलकुल भी नहीं। तभी तो घर उनके लिए जेल हो गया और वे सब ड्यूटी पर तैनात सिपाही।


अटेंडेंट की कुर्सी मानो उससे चिपक गई जिसे चाहकर भी वह छोड़ नहीं पा रही थी। नाक पर ऑक्सीजन का मास्क चढ़ाए मंगलेश का चेहरा भावविहीन मूँदी आँखों वाला पुतला जान पड़ता। कभी शीशे के पास आकर वह इस पुतले को निहारती, कभी झट से जाकर अपनी कुर्सी पकड़ लेती। मंगलेश के साथ-साथ इस कुर्सी के छूट जाने का  भय उसे आक्रांत किए रहता। सुबह नहा-धोकर आना और बिना काम की चीज या फालतू गठरी-सी अपनी जगह पर जम जाना उसे अपनी  नियति लगने लगी, यह कुर्सी ही तो है जो अबतक उसके अस्तित्व बोध को बनाए रखी है, बाकी सब तो भूल ही चुके कि माँ भी है, जिं़दा और सचेत! वे बारी-बारी से आते, डॉक्टर से कुछ बात करते और हड़बड़ी में निकल जाते। छोटा बेटा वकील है, वह जाने क्या हिसाब-किताब करता रहता है। कभी-कभी, जब वह रात को अपने नीचेवाले  कमरे में सोने की कोशिश कर रही होती है, ऊपर से दोनों भाइयों और बहुओं की तेज आवाज सुनाई पड़ती है, जैसे बहस छिड़ी हो। कोई उससे कुछ नहीं कहता, कुछ नहीं पूछता। दोनों बहुएँ अपने-अपने बच्चों को लेकर कमरे में चली जाती है। दिन भर कुर्सी का अपनापा सीने से लगाए वह भी चुपचाप अपने कमरे में सिमट जाती है। पोते से जी भर बात किए लगता है, जमाना हो गया। उसे भी फुर्सत कहाँ है? जल्दी सोएगा,सुबह स्कूल भी जाना है, इसलिए उसके माँ-बाप भी जल्दी सोएँगे, ऐसे में कोई भला उससे दिनभर की थकान कैसे पूछे। उसे लगा, जैसे मंगलेश ने  असपताल में जाते ही घर में बरसता अकेलापन और खामोशी उसके नाम वसीयत कर दी है। वह वही, ठीक उसी बिंदु पर टिक गई है जहाँ  पिछले एक वर्ष से मंगलेश टिके रहे थे। काश! वह पहले समझ पाती! काश मंगलेश भी उसकी रुखाई का कारण समझ पाते!


‘पाने की कोशिश में हम  आपको खो दिए।’


अपने कमरे में लगे डबल बेड पर अकेली बैठी वह सिर झुकाए बुदबुदाती रही, बूँदें चुप्पी साधे झड़ती रहीं ....।


‘‘माँ! हॉस्पिटल के पास मुझे क्वार्टर मिल गया है, कल हम वहीं शिफ्ट होंगे। पापा को देखना-भालना भी आसान हो जाएगा। वैसे भी वहाँ किसी के होने- न होने से उन्हें अभी क्या फर्क पड़ेगा! तुम भी बिला वजह रोज़ परेशान होती हो, जब कुछ बात होगी तो मैं ब्रजेश को फोन कर दूंगा, वह तुम्हें लेता आएगा।’’          


‘मगर बेटा!’ 


आगे वह कुछ कह न सकी। ऐसा लगा, मानो किसी ने उसका गला दबा रखा हो, उसकी चीत्कार अंदर ही अंदर घुटकर उसे बेदम कर देगी। मंगलेश के मौन की पीड़ा को अपने जीवन में सहजता से जीने को वह तैयार न हो पाई। वह चीखना चाहती थी, मगर, लाख कोशिशों के बावजूद कंठ से स्वर न फूटे। सुयश बिना उसकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किए अस्पताल जा चुका था। आज से वह अस्पताल की उस कुर्सी से भी महरूम कर दी गई, जिससे महीने भर का अटूट संबंध रहा। अस्पताल का आईसीयू कक्ष उसकी आँखों के सामने घूम गया, जहाँ से  शीशे से चिपककर वह अंदर बेजान पड़े पति को निहारा करती थी। अचानक उसे अपनी दुनिया उजड़ती जान पड़ी, सबकुछ पकड़ से छूटता हुआ-सा। वह चकित होकर अपने आसपास निहारने लगी। यह मकान, जिसे खुद खड़े होकर उसने बनवाया था, फिर जिसे घर की शक्ल देने में उसने आपने आपको खपा दिया। बच्चों की पढ़ाई को कारण बना कर खुद को इस मकान का पहरेदार बना डाला था। मंगलेश चुप्पी साधे पिछले बीस बरस से एकाकी जीवन जीता रहा। जाने कैसी-कैसी जगह और किन किन परेशानियों को अकेला झेलता रहा। तबादला दूर होने पर भी महीने में एक चक्कर लगा जाता। बच्चों का चेहरा देखकर मुस्कुरा देता। उसे याद आया, अल्मोड़ा की ठंड वह एक सप्ताह भी न झेल पाई, इसी तरह रामपुर के छोटे से सुविधारहित क्वार्टर में उसका दम घुटता था। तब कहाँ सोचा उसने कि कैसे अकेले घर- ऑफिस संभालता होगा वह? कैसे और क्या बना और खा पाता होगा? फिर भी उसने कभी उफ नहीं किया। मीलों दूर होने पर भी बच्चे उनकी अदब करते थे, वह निश्चिंत रहा करती। पिछले कुछ वर्षों से शक की बुनियाद पर जवान होते बच्चों के सामने मंगलेश को बे-पानी करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी। कारण था, मंगलेश का बाहर खुश रहना। उसे पक्का विश्वास था कि मंगलेश के चरित्र में गिरावट आई है, इसलिए वह घर नहीं आना चाहता। वह भूल-सी गई कि बढ़ती उम्र यात्रा की क्षमता घटा देती है, फिर पहले भी तो वे महीने में एक बार आते थे, फिर क्यों वह अपने और मंगलेश के संबंध को लेकर तब सजग हुई जब वे साठ के और वह अन्ठावन की हो चली। किस बात का डर था उसे, रिटायरमेंट के बाद मिलनेवाली राशि के खो जाने का या कुछ और? पासबुक तो हमेशा उसके पास ही रहा। पैसे का हिसाब भी। उसे याद आया , एक बार पचास हजार रुपए निकाले जाने पर किस तरह बेटे-बहू के सामने उसने मंगलेश को जलील किया था। पूरी जिंदगी मर-मर कर खटने के बाद भी वह अपने पैसे अपनी मर्जी से खर्च करने को कभी स्वतंत्र नहीं रहा। बच्चों के बड़े होने पर जिन बेटों को उसने मालिक और मंगलेश को अपने ही घर में मेहमान बने रहने पर मजबूर कर दिया, आज दोनों भाइयों ने जिस समझदारी से उसकी आँखों में धूल झोंककर आपस में धन और मकान का गुपचुप बँटवारा कर लिया, साफ जाहिर था कि उन्हें पिता की अस्पताल से वापसी की न चिंता है, न ही इच्छा। वह अपने ही घर में बेघर सी महसूसने लगी। रेत में धँसती हुई -- अपने जीवन के निशान ढूँढती हुई। 


‘ई हमसे क्या हो गया? क्या हमारे होने का कोई मोल नहीं? बाप के अस्पताल में जाते ही बच्चा सब हमसे कैसे नजर फेर लिया? वो आँख मूँद लें तब क्या होगा?.... नहीं ऐसा नहीं हो सकता। हमरे जीते जी ऐसा नहीं होगा। हम जिंदा हैं और यही सच है।’ उसने अपने आपको सांत्वना दिया। वो जिंदा हैं, अब भी वही मालिक हैं घर की। वह हार नहीं मानेगी, साथ भी नहीं छोड़ेगी- साथ! काश वह साथ निभा पाती! दिल के किसी कोने में हुक-सी उठी। कतरा-कतरा चुना है, चिंद-चिंद होकर बिखरने नहीं देगी। अनपढ़ है तो क्या हुआ, दुनियादारी की समझ है उसे। इलाज के नाम पर बेटों ने जाने कितने चेक पर उसके अंगूठे के निशान लिए हैं। क्या मकान के कागज पर भी ? वह कांप-सी गई। वर्षों बाद उसे अपने जीवन में मंगलेश की उपस्थिति के महत्व का एहसास हुआ। वह क्षणभर अविचल खड़ी रही, खोई-खोई सी। फिर अपने कमरे से निकल, मंगलेश के कमरे में, उसी बिस्तर पर जा लेटी, जहाँ पिछले डेढ़ बरस से मंगलेश अकेले सोते रहे। साथ खाना-पीना, बातचीत, सोना-उठना-सब कुछ तो खत्म हो चुका था उनके बीच- उसी ने खत्म करने की पहल की थी। आज सुलगते क्षणों की राख ढूँढने और चुटकी भर भी मिल जाने पर उसे सहेज लेने को एकबारगी मन तड़प उठा।


‘अब क्या ढूँढ रही हो शिवानी?’ कान के पास कोई आकर फुसफुसाया। उसने झट से आँखें खोल दी। कमरे में अंधेरा छाया था। बाहर के कमरे में जीरो बल्ब जल रहा था। अनहोनी की आवाज है या मेरा वहम? कहीं??? मंगलेश को खो देने की आशंका-मात्र से वह दहल उठी।


डॉ. सुयश! आपके पिता की स्थिति में बहुत फर्क नजर नहीं आ रहा। ब्रेन काम नहीं कर रहा, मगर कभी कभी पल्पिटीशन में चेंजेज रिकॉर्ड हुआ है। कुछ तो है जो विज्ञान की पकड़ से बाहर है। प्रे टू गॉड’।


सिनीयर डॉक्टर प्रफुल्ल वर्मा सुयश के कंधे पर हाथ रखते हुए बोले और आगे बढ़ गए। सुयश ने शीशे से अंदर झाँका ‘पिता के निश्चेष्ट शरीर में उसे कंपन का एहसास हुआ। वह आँख गड़ाए उनकी ओर देखता रहा, मगर ऐसा कुछ न हुआ। मन का वहम  समझ , वह पलटा और दूसरे वार्ड में मरीजों को देखने लगा। रह-रहकर उसे पिता के शरीर में उठते कंपन की ओर ध्यान हो आता।


मंगलेश निश्चिंत भाव से अपनी दुनिया में विचरते रहे। इलाहाबाद! स्टेट बैंक। लोगों की लंबी कतार! गुलाबी सलवार कुर्ती में बार-बार दुपट्टा संभालती युवती, उम्र यही कोई तीस के करीब! हाथ में कोई कागज लिए परेशान-सी इधर-उधर ताकती हुई, शायद किसी मददगार की तलाश में ! वह अपने केबिन से उसे बीच-बीच में निहारता हुआ। इच्छा होती,उसकी परेशानी जाने और सुलझा दे, मगर बाकी लोग हंगामा खड़ा कर देंगे, सोचकर चुपचाप अपनी फाइल में सिर खपाता हुआ।


‘अरे! कहाँ गायब हो गई?’ अचानक उसे सामने न पाकर जाने क्यों वह बेचैन -सा हो गया था।


‘मैडम, उस दिन आपका काम हो गया था?’ सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उसे सामने पाकर उसने टोकने की पहल की, अचानक अजनबी की टोक  से वह थोड़ा सकपकाई, फिर स्टाफ जानकर निश्चिंत भाव से बोली, ‘जी, जी हाँ! दरअसल डीपीएस के  सभी टीचर्स को यहाँ खाता खुलवाना जरूरी है, सैलरी यहीं आएगी,सो उस दिन खाता खुलवाने आई थी, नहीं तो सैलरी मिलने में परेशानी होती।’ साथ-साथ सीढ़ियाँ चढ़ती हुई उसने अपनी बात पूरी की और आगे बढ़कर बैंक में प्रवेश कर गई।


महीने की पहली तारीख की वह बेसब्री से प्रतीक्षा करता। वह आती, काउंटर पर कुछ-कुछ करती, फिर नजर मिलने पर मुस्कुराती और चली जाती। वह एक ठंडी आह भरता। वह समझ नहीं पा रहा था कि उस युवती के प्रति आकर्षण का कारण क्या है? क्या वह उससे प्रेम करने लगा है? नहीं, यह संभव नहीं, अंदर से आवाज आती। वह सिर को झटके देता ,अपने बच्चों को याद करता और काम में डूब जाने की पुरजोर कोशिश करता।


एक वर्ष जाड़े की धूप की तरह  निकल  गया। वह अबतक उसका नाम तक न जान सका। कभी बहुत कोशिश भी नहीं की, मगर कहीं न कहीं दिल के कोने ने उसे बड़ी सी जगह मुहैया करा दी थी, जिसे स्वीकारने से वह अब भी कतराता रहा। नए साल की छुट्टी पर इस बार घर जाने का मन न हुआ। पहली तारीख को सड़क युवक-युवतियों की युगलबंदी से गूँज रही थी। दोपहर की गुनगुनी धूप में खड़ा वह, बालकोनी से आते -जाते लोगों के हाव-भाव का बेमतलब जायजा लेता रहा। एक अनकही, अनसुनी, अव्यक्त बेचैनी अंदर मची थी। शिवानी ने फिर पैसे को लेकर घर पर महाभारत छेड़ दिया था और गुस्से में उसका हाथ उठ गया था- पहली बार! आते समय शिवानी दरवाजे तक भी न आई। सुयश से भी मिलना न हो सका था, ब्रजेश आया था विदा करने। साल के अंत ने पति-पत्नी के बीच  टूटन की गाँठ लगा दी। फिर न उसने फोन किया न शिवानी ने! नया साल चुपचाप आया-दबे पाँव! कई बार जी में आया, फोन करे, ‘सॉरी’ बोल दे, मगर अहं आड़े आ जाता! अंदर बैठा पुरुष चीखता, ‘क्या मुझे अपने कमाए रुपए खर्च करने का जरा भी हक नहीं? क्यों मैं अपने मित्रों, सम्बन्धियो के सामने चुप्पी


साधे रहूँ, जब उन्हें मदद की जरूरत हो! नहीं समझती, न समझे, गँवार कहीं की!’


‘आप मंदिर भी आते हैं’ पीछे से स्त्री की आवाज सुनकर वह पलटा तो सामने उसे देखकर हैरत में पड़ गया। सिर पर दुपट्टा डाले, हाथ में पूजा की थाली लिए  वह मुस्कुरा रही थी। शायद जवाब के इंतजार में थी।


‘हाँ, कभी-कभी आ जाता हूँ’   


‘जानकर अच्छा लगा’


‘आप हमेशा आती हैं’


‘जब भी अवसर मिलता है’


पहली बार उसने उसे गौर से देखा। गेहुआँ रंग, तीखे नैन नक्श, विचित्र-सी सादगी लिए। निर्मल गंगा-सी!


‘आप अब बैंक नहीं आतीं?’


‘अब बैंक जाने की जरूरत नहीं पड़ती। पास ही में दो-दो एटीएम हैं, रुपए डालने और निकालने की सुविधा जब एटीएम में उपलब्ध है तो क्यों टाइम वेस्ट करें?’


उसने उसकी तरफ भरी निगाह से देखा मानो अपनी बात पर स्वीकृति चाह रही हो।


‘आप यहीं पास में रहती हैं’


‘नहीं, बहुत पास भी नहीं’- ‘अब चलती हूँ शाम घिर आई है।’ 


‘क्या फिर मुलाकात होगी मै’म’


‘सुवर्णा!- आप मुझे इस नाम से बुला सकते हैं, आते -जाते यूं ही मुलाकात हो ही जाएगी।’


वह मुस्कुराई, पलटी , रिक्शा बुलाया, बैठी और देखते-देखते आँखों से ओझल हो गई।


उसने महसूस किया ,मुस्कान की हल्की रेखा उसके होंठों पर भी उभर आई है।


वह हर शनिवार को नियत समय पर मंदिर पहुँच जाता। दफ्तर खुला हो तो सीधे दफ्तर से या फिर घर से सज-सँवरकर। उसने लगने लगा कि ईश्वर ने उसके अकेलेपन पर तरस खाकर एक साथी भेज दिया है। वह देवी की प्रतिमा के आगे सिर नवाता और भीड़ से बाहर निकल जाता। परिसर में इधर-उधर घूमते हुए मुख्य द्वार पर नजर टिकाए रहता। कभी वह दिखती, कभी भीड़ में गायब हो जाती और वह हथेली से सीने को मलते हुए अपनी अनबूझ पीड़ा को दबाने का प्रयास करता हुआ लौट जाता। वह जितना समझना चाहता उतना ही अपने आप से उलझ जाता। इतने लंबे अरसे बाद भी वह सुवर्णा की दोस्ती चाहता है या उससे अधिक कुछ और। सुवर्णा ने पिछली मुलाकात में अपना मोबाइल नंबर दिया, मगर यह कहते हुए कि बहुत जरूरी हो तभी फोन करे, अन्यथा नहीं। तभी उसने बताया था कि वह अपनी रुमेट के साथ किराए पर रहती है। उसकी रुमेट एलआईसी ऑफिस में नौकरी करती है। मगर उसने कभी जानने की इच्छा जाहिर नहीं की कि वह कहाँ से आया है, कहाँ रहता है, परिवार में कौन-कौन है वगैरह वगैरह, जैसा कि आम तौर पर स्त्रियाँ करती हैं। हाँ, वह जो भी बताता, उसे बड़े ध्यान से सुनती और ज़रूरत समझने पर सलाह भी देती, उस समय भूल-सी जाती कि वह उससे बहुत छोटी है। छोटी-छोटी मुलाकातों ने बड़ी मुलाकातों के लिए दरवाज़ा खोला, औपचारिकता चुपचाप विदा हो गई और सहजता ने पैठ बना ली। ‘आप’ का सम्बोधन ‘तुम’ में बदल गया और एक दिन दोस्ती ने भी अनजाने में नया लिहाफ ओढ़ लिया। दुनिया बदलने लगी। वह बचने लगा, मगर सुवर्णा! वह तो कोख की सिहरन लिए उसके सामने आ खड़ी हुई। एक ही ज़िद थी कि बच्चे को जन्म देगी।


‘एबोर्शन’ एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसने उसके गाल पर जड़ दिया था।


‘तुमने सोचा भी कैसे?’-‘झूठे हो तुम ! सारे मर्द एक-से होते हैं, पहले पीछे-पीछे दुम हिलानेवाले, प्रेम की दुहाई देने वाले, अकेलेपन का स्वांग रचने वाले ! वासना के पुजारी! छि है तुमपर ! क़ायर, कमज़ोर ......’.


जाने और क्या-क्या कहती हुई वह सरपट दौड़ती हुई मंदिर परिसर से निकल गई थी। चैथे महीने का उभार पेट पर नज़र आने लगा था,जो  नौकरी खतरे में पड़ने की गवाही दे रहा था। वह नज़र नहीं आई। सप्ताह, महीना, कितने ही महीने आए-गए। वह घर जाता, बढ़ते बच्चों के साथ समय बिताता, पत्नी के साथ उसके मन की पूर्ति करता,शिवानी सुवर्णा का रूप ले लेती मगर व्यवहार एकदम उलट। वह अवचेतन से बाहर निकलता।  वापस लौटकर काम में पिल जाता। सुवर्णा के साथ बिताए समय का एक-एक क्षण उसे अवचेतन में जिंदगी की घूंट देता  मगर मन में फाँस अटकी थी तो शिवानी को लेकर। वह खुद को शिवानी का दोषी मानने लगा था।


‘सुवर्णा’! वह सामने सुवर्णा को अचानक खड़ी पाकर अकचका गया था। उसकी काया क्षीण हो चली थी। सुवर्णा ने उसकी तरफ हिकारत भरी नजर से देखा और खाता बंद करवाने की प्रक्रिया में लग गई। वह वहाँ से उठाकर भाग जाना चाहता था, कहीं भी जहां सुवर्णा का सामना न करना पड़े। कहीं सुवर्णा ने बैंक में उसके अपने संबंधों की चर्चा कर दी तो? तो क्या होगा? उसकी नौकरी चली जाएगी। बीबी बच्चे सबकी जिंदगी तबाह हो जाएगी। एकाएक वह पसीने से नहा उठा। सुवर्णा उसके सामने से निकल गई, बिना उसकी ओर देखे, जैसे वह वहाँ हो ही नहीं। सुवर्णा उसकी उपस्थिति को खारिज करके जा चुकी थी।


रात अपने अंधेरे जबरे फैलाए उसकी तरफ बढ़ी आ रही थी, वह भाग कर रोशन कमरे में छिप जाने को आकुल होने लगा, हाथ कांप रहे थे, कांपते हाथ में  खून से सने किसी शिशु के कपड़े का अधखुला पैकेट हिलडुल रहा था। पैकेट के ऊपर लिखा था मंगलेश सिंह और अंदर शब्द मोटे काले अक्षरों में लिखा था-‘हत्यारा’। वर्षों गुज़र गए। वह सब छोड़कर घर  चला आया था, मगर सुवर्णा कहीं गहरे पैठी साथ चली आई और हर पल एकांत के क्षणों में उसे झकझोरती, उसके विवेक पर दस्तक देती रहती। शिवानी की चिकचिक से बचने के लिए आखिरकार उसे पुराने शहर दोबारा आना पड़ा था, बचा-खुचा सामान ले जाने। न चाहते हुए भी वह साथ लेकर लौटा था, सुवर्णा की गंध के साथ ही  उसके पागल होने की खबर। शिशु की मौत का बोझ और गहरा अपराध-बोध!


‘डॉक्टर पेशेंट ने अभी उँगलियाँ हिलाई’ नर्स चिल्लाई। मंगलेश सिंह का भावहीन चेहरा अचानक रंग बदलने लगा। सुयश ने घर पर फोन कर दिया। डॉक्टर ने मरीज की हालत देखकर घरवालों को मिलने की इजाजत दे दी। मंगलेश की मूँदी पलकों में सुवर्णा की हिकारत भरी दृष्टि बसने लगी, कान ‘हत्यारा’ के शोर से परेशान होने लगे। हलक से आवाज फूटने को आतुर हुई, ‘माफ कर दो’ फूट न सकी। शिशु की मृत्यु से विक्षिप्त हुई, पागलखाने में भर्ती सुवर्णा भी उस रात खामोश हो गई थी। मंगलेश सिंह ने उस रात अपने दरवाजे पर भी उस सन्नाटे का शोर सुन लिया था। सुवर्णा की हिकारत भरी दृष्टि, खून-सना शिशु का कपड़ा और सन्नाटे से उभरे शोर की दस्तक! उसने आखिरी साँस भरी और चुपचाप चल दिए.....            



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