धीमी आँच की खीर

धीमी आँच की खीर


कभी सपने संजोते थे-


साल दर साल पहले !!


न सही सालों पहले,


चंद महीनों पहले सपनों को,


साकार करने की चाह, ना;


मजबूरी, हाँ यही, क्योंकि -


चिट्ठियों, तारों से मंजिलें,


तय होती थीं !!


पाँच सितारा होटल नहीं;


गेस्ट हाउस कभी फॉरेस्ट तो कभी टूरिस्ट डिपार्टमेंट के !!


तब प्लान प्रेशरकुकर में,-


खीर पकने जैसे न होकर,-


लकड़ी की धीमी आँच पर,-


पकने से; धीमे धीमे घन्टों पकते थे !!!


लगन प्रेम और तन्मयता से,


सपनों के पेड़ लगते पलते और फलते थे !!


आज सपने संजोना पागलपन है मूर्खता है !!


एक झटके में एक सीटी में -


जाने क्या का क्या हो !!!


रिमोट के एक बटन दबते ही,


जाने क्या से क्या हो !!!


भय सदा तारी रहता है ,--


‘सपनों‘ का रोमांच गुम है,-


खीर की सोंधी ख़ुशबू का,-


रोमांस प्रेशर कुकर के--


कंडेंस्ड दूध में गुम हो गया !!


पूछने वाले पूछते हैं ‘‘क्या कमी‘‘ ???!!


सब कुछ तो है‘‘!!!


भीतर आहट होती है


हाँ सब कुछ, पर भाव ??!!!                    



Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य