गुरुग्रंथ: मानवीय सरोकारों से संगठित समाज का डिज़ाइन


गुरु अर्जुनदेव जी ने आदि गुरु ग्रंथ का संपादन करके एक सर्वभौमिक विचार धारा को स्थापित किया है। यह विचारधारा मात्र आध्यात्मिक दर्शन या भक्ति भावना से मोक्ष की कामना का व्यक्तिमूलक अध्यात्मदर्शन नहीं है बल्कि सर्व भौमिकता के पूर्ण सत्य (Universal abrolute truth) से उपजा हुआ वह चिंतन-विधान है जो मनुष्य जीवन को जीने का ऐसा ढंग सिखाता है जिससे ‘‘लोक सुखी परलोक सुहेला’’ हो जाता है अर्थात जीने का ऐसा आचरण हो कि संसार में सभी सुखी, सुरक्षित और संतुष्ट होकर जी सके। यहां जाति संप्रदाय, रंग भेद का कोई बंधन न हो क्योंकि गुरु ग्रंथ सारे प्राणियों, जीवों और वनस्पति को एक ही ईश्वर ऊंकार से उत्पन्न, उसी में जीने और उसी में विलीन हो जाने वाला मानता है। जिस मूल से इस सृष्टि की उत्पत्ति है गुरु ग्रंथ की वाणी उसे गुरु नानक के उस मूलमंत्र के रूप में मानती हैः-


सतनाम, करता पुरख


निरभऊ, निरवैर, अकालमूरत


अर्जुनि सैभं, गुर परसाद।।


आदि सचु, जुगादि सचु।।


है भी सचु नानक होसी भी सचु।। 1।।


एक ऐसा ऊर्जा स्रोत जिसका नाम सत्य है, वह काल से परे है। अतः अकाल सत्य है। इस मूलमंत्र का रहस्य गुरु यानि सत्य के मर्म को जानने वाला ही बता सकता है। आदि गुरु ग्रंथ के मत में भक्ति उस ‘‘निरंकार अनंत’’ को ‘‘मनसा-वाचा- कर्मणा’’ समर्पण भाव की है। ऐसा व्यक्ति भक्ति का अहं त्याग देता है वह अपने आप ‘‘अकालकर्ता का साधन मात्र मानता है’’। अपने सब कुछ को ‘दाता’ की देन मानकर उसके बनाए लोगों को देने की बात सोचता है। अतः सारांश यह कि ईश्वर पूर्ण सत्य है उसके ‘हुकुम’ उसकी रज़ा से सृष्टि बनती है और मिटती है। उसी से मनुष्य का अस्तित्व है। उस के गुणों के अनुसार जीवन जीने वाला मनुष्य भी उसका स्वरूप हो जाता है परन्तु जो अहंकार के पर्दे में अपनी ‘मै’ को विस्तृत करता है। वह उससे दूर हो जाता है-


हुकुम रजाई चलणा


नानक लिखिया नाल।।


मति विच रतन जवाहर माणक


जे इक गुर की सिख सुणी।।


आदि गुरु ग्रंथ के मत में ज्ञानवाद-विवाद नहीं है अतःकरण तक समाया हुआ ज्योति रूप ईश्वरीय अहसास है जिससे भक्त हर पल हर क्षण उस परम सत्य के साथ जुड़ा रहता है जिससे जीवात्मा की उत्पत्ति हुई है। इस भक्त और इष्ट के बीच कोई पीर-पैगम्बर, देवी-देवता, ज्ञान-विज्ञान, वेद-कतेव आदि कुछ भी नहीं है। गुरु ही मार्ग दर्शन करता है वह गुरु आदि ग्रंथ है। गुरुवाणी के अनुसार जीवन आचरण करने वाला व्यक्ति ईश्वरीय-विधान के अनुसार चलता है और वह विधान सद्-आचरण का है। गुरमत उसकी व्याख्या करता है।


आदिग्रंथ के धर्म को साधने के लिए योगी वैरागी, सिद्ध-तपस्वी-संन्यासी होने की आवश्यकता नहीं है। संसार के बीच रहकर सांसारिक दायित्वों को पूरा करते हुए, संसारिक सुखों को ‘‘तेरा तुझ को सौंपते क्या लागे मोर’’ के भाव से भोगते हुए भी अपनी ‘सुरति’ यानि अंतः चेतना को जो व्यक्ति ‘ँ’ के साथ जोड़े रखने की ‘‘जीवन-जांच’’ सीख लेता है वहीं ‘सिख’ हो जाता है। ऐसी स्थिति में लोभ-मोह-अहंकार जैसे नकारात्मक भाव जो आदमी से ऐसे काम करवाते हैं जो दूसरों के लिए दुःखों यातनाओं और भय का कारण बनते हैं अपने आप ही शांत हो जाते हैं। अखंड जीवन का साधन ही आदमी को जीवन मृत्यु के खंडित सत्य से मुक्त करता है और उसे इस सृष्टि मंे परम सत्य (Absolute Truth) का साक्षात्कार कराता हैः-


राती-रूती-थिती वार


पवण-वाणी-अग्नि-पाताल।।


तिस विच धरती थाप रखी धरम साल।।


तिस विच जीअ जुगत के रंग।।


तिनके नाम अनेक अनंत।।


और सारे ज्ञानवेद-पुराण-योग-विष्णु-महेश-सिद्ध पीर- पवन-पानी उसी अनंत की महिमा गाते हैंः-


गावहि चितु-गुपतु लिखि जानण


लिखि लिखी धरमु वीचारे।।


गावहि ईसरू बरमा देवी


सोहनि सदा सवारे।।


गावहि इंद इद्रासणि बैठे


देवतिया दरि नाले।।


गावनि पंडित पढ़नि रखीसर


जुगु जुगु वेदा नाले।।


बाबा नानक ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वही तेरी महिमा गाते हैं जो इसके मर्म को जानते हैं-जो तेरे रंग में रंगे हुए हैं-


सेई तुधु नो गावन जो तुधु भावनि


रते तेरे भगत रसाले।।


आदि ग्रंथ के धर्म में मन की स्थिरता (Consistency) को बहुत महत्व दिया गया है। यहाँ तक कि ‘‘मन जीते जगजीत’’ की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य का मन पवन की गति से भी ज़्यादा तेज़ चलता है और दृश्य-स्वाद-श्रवण-स्पर्श के आकर्षणों के पीछे भागते-भागते मन शरीर को थका देता है। तृष्णाएं महत्वाकांक्षा की अंतहीन दौड़ मन के कारण ही चलती है। इसके कारण मनुष्य सुख एकत्र करते करते अनेक दुःखों को आमंत्रित कर बैठता है और वह अपने आपको उतम गुणों, उत्तम कर्मों से, जीवन की सार्थकता से वंचित कर लेता है। अतः मन को स्थिर करने के लिए एक ‘ध्यान बिन्दु’ होना ही चाहिए। ऐसा ध्यान बिन्दु  के सर्वभौम पासार के सिवा और कोई स्वयंसिद्ध बिन्दु नहीं हैं। इस तरह व्यक्ति यदि चित को-एकाग्र करके अपने सांसारिक काम करता रहे तो उसे कोई भय, लालच, वैर-विरोध, इच्छा, महत्वाकांक्षा, असफलता निराशा जैसी नकारात्मक स्थितियां विचलित नहीं कर सकतीं। उसकी आंतरिक ऊर्जा बढ़ने लगती है। गुरु ग्रंथ में जितने भी भक्तों, मठों, सूफियों और गुरुओं की वाणी दर्ज है; उन सब का यही संदेश है। उन्होंने अपने जीवन को ही एक प्रयोगशाला बना लिया था। जब उनके प्रयोग सफल हो गए-उन्हें ‘अपने युनिवर्सल’ सत्य का ज्ञान हो गया उन्होंने तभी अपनी करनी-कथनी के आचरण का सार लोगों को समझाने यानि अपनी कमाई दूसरे लोगों को देने का दायित्व पूरा किया। गुरु नानक गृहस्थ भी थे और ‘जनसाधारण’ का दुःख दर्द भी आत्मा की गहराई तक महसूस करते थे इसीलिए ‘‘जगत जलंदा रख लै अपणी किरपा घार’’ का प्रयोजन ले कर संसार में दैवी संदेश पहुँचाने के लिए निकल पड़े। उनकी इस प्रयोजन से की गई ‘‘उदासियाँ’’1 उनके व्यक्तित्व के विराट विस्तार का समय था। गुरु जी जहां जाते रूढ़ियों, भ्रांतियों, पाखंडों, अंधविश्वासों और मानसिक क्लेशों को दूर करने के लिए अपना ‘‘अखंड सत्य’ काव्य और संगीत में व्यक्त करने लगते। बिना किसी की निंदा, वाद विवाद के अपनी करनी और कथनी को श्रोता के मन में थापित कर देते। भक्त कबीर खड्डी पर ताना बाना बुनते रहते पर ‘‘चित की लौ’’ विराट ज्योति के साथ जुड़ी रहती। रविदास जूतियां गांठते, शिष्यों को उपदेश भी देते पर ‘‘रिदै राम गोविंद गुन सारं’’ की मनःस्थिति में कोई बाधा न आती। गुरु अर्जुनदेव निरंतर कर्मठ कर्मशील व्यक्तित्व पर ‘‘अपने कर्ता’’ के दिए ‘‘पर हिताए’’ का काम भी करते रहते। गुरु आदि ग्रंथ का संपादन, ‘‘गुरु का चक्क’’ को आबाद करना और सद्कामनाओं, सद्भावनाओं, सद्कर्मों के प्रेरक अलौकिक हरिमंदिर का निर्माण उनके द्वारा दिए जाने वाले ऐसे रौशन मीनार हैं जो सदियों सदियों युगों-युगों तक मनुष्य मात्र के मनों को दिव्य ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते रहेंगे।


आदि गुरु ग्रंथ ने समूची मनुष्य जाति और प्राणि मात्र को आदि सत्य के साथ ही पहचाना है। मनुष्य का वजूद, उसकी करनी-कथनी का स्रोत भी वही पूर्ण सर्वभौम सत्य है तो समाज में रहने वाले मनुष्यों की ‘सुरति’ भी वैसी ही होनी चाहिएः-


पवणु गुरु पाणी पिता


भाता धरति महतु।।


दिवसु राज दुई दाई दाइया


खेले सगल जगतु।।


इतना ही नहीं मनुष्यों के कर्मों का लेखा-जोखा भी वही सर्वभौम सता ही करती है। ‘‘करमी आपो आपणी के नेड़े के दूर’’ अनुसार ही उसकी नियति तय होती है। उनमें से जो उस सत्य के प्रकाश में स्नान कर लेते हैं उनके मुख उज्ज्वल हो जाते हैं। और उनके साथ एक नहीं अनेक अन्यों की भी मुक्ति हो जाती है अर्थात् उन्हें भी महानता प्राप्त हो जाती है। इसीलिए


गुरुवाणी ने एक बात बार-बार दोहराई है-


‘‘सभना जीआ का इक दाता


सो मैं विसर न जाई’’


‘‘इक दाता’’ को याद करते हुए सर्वभौम सत्य को मानने वाले समाज के लिए कुछ बुनियादि नियम भी बना दिए गए। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि ये नियम सामाजिक दायित्वों को पूरा करने के लिए समाज में रहने वाले व्यक्ति का आचरण तय करते हैं जिनको अपना कर मनुष्य अपने आपको पहचाने, जीवन को जाने और सामाजिक आचरण वाला भला मनुष्य बनने का सलीका (The only religion to be a good human being) सीख सकें। जिससे सब लोग भाईचारे के साथ जीवन की चढ़दी कला’’ के हक़दार हो सकें। भली-चगी जिन्दगी पाने के लिए कोशिश करने के अवसर से कोई वंचित न रहे बाकी ‘करमी तो आपो आपणी’ के अनुसार ही फल मिलेगा। यही सामाजिक समानता की बुनियाद है।


‘‘सभै सांझीवाल सदाइन’’ की परिकल्पना को सच करने के लिए बाबे नानक ने अपने ‘‘सिक्खों के लिए संगत और पंगत’’ यानि समाज और अनुशासन’’ (सामाजिक समानता) का नियम बनाया। इस ‘पंगत’ के आधार को पक्का करने के लिए ‘लंगर’ की परंपरा शुरु की। इस ‘लंगर’ शब्द की भी पूरी एक संस्कृति है-किसान अपनी फसल का एक हिस्सा ‘‘गुरु की संगत’ के लिए देगा। ‘लंगर’ में किसी अमीर-उमराव, राजा-रजवाड़े का कोई ‘दान’ ‘अनुदान’ नहीं वह पूरी तरह ‘संगत’ के योग-दान और सहयोग, संगत की ही ‘सेवा’ से बनता है। गुरु के घर आने वाले सभी स्त्री पुरुष एक ही पंक्ति में बैठकर भोजन करते हैं। इससे सामाजिक भाईचारे का ताना-बाना पक्का करने में बड़ी मदद मिली। आज तक गुरुद्वारो में यह परंपरा फलफूल रही है। और हर सिख संगत के साथ पंगत में बैठ कर ‘लंगर छकने’ में गुरु की कृपा का प्रसाद पाने का सुख महसूस करता है। वह इस परंपरा का आदर करता है। इससे छुआछूत अपने आप ही मिटती चली गई। गुरुओं की धरती पंजाब इस लिहाज़ से देश के अन्य भागों से कई सदी आगे है।


गुरु अमरदास जी (तीसरे गुरु) ने इस रिवायत को औचारिक ‘हुक्मनामा’’ देकर और पक्का कर दिया कि गुरु जी का दर्शन करने की इच्छा रखने वाला श्रद्धालु पहले ‘संगत’ के साथ बैठकर लंगर छके’ फिर गुरु जी के दर्शन करे। इससे ऊँची जातियों मे विनम्रता का संस्कार आया और नीची जातियों में आत्मविश्वास बढ़ा और गुरुवाणी में दोनों की आस्था पक्की होती गई। इच्छा प्रभाव भी बढ़ने की आस्था पक्की होती गई। इसका प्रभाव भी बढ़ने लगा गई धर्मों-सम्प्रदायों के लोग ‘गुरुघर’ से जुड़ने लगे और नया समाज ‘सर्वभौम भावना’’ के साथ जुड़ने लगा। यह ‘‘सामाजिक संगठन’’ का संस्कार और आगे बढ़ा। जब समाज की भलाई के लिए, समाज की हिस्सेदारी के लिए गुरु रामदास जी ने अपने ‘सिखों’ को अपनी कमाई का ‘दसवां हिस्सा’’2 देने के लिए प्रेरित किया। इससे भी सामाजिकों मंे समाज के प्रति दायित्व बोध भावनात्मक रूप से पक्का होने लगा। गुरु रामदास जी ने ‘गुरु का चक्कं’ इसी कमाई से बसाया वहाँ दो सरोवर बनाए और अन्य कई योजनाओं का प्रसार किया। हरि मंदिर की योजना भी उनकी ही थी। ‘‘जीवन की चढ़दी कला’’ के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए ‘‘गुरु का चक्क’ में आर्थिक विकास और विदेशी व्यापार पर विशेष ध्यान दिया गया। इस तरह आदि ग्रंथ का धर्म भक्ति आन्दोलन का हिस्सा होते हुए समृद्ध सुखी-संतुष्ट समाज के संगठन के लिए स्वयंसेवी सिस्टम का विकास करने में सक्रिय रूप से जुटा था। यह प्रक्रिया छटे गुरु हरगोविन्द की ‘‘मीरी और पीरी’’ के रास्ते पर चलती हुई दसवेें गुरु तक ‘संत सिपाही’-शक्ति और सत्ता की ओर बढ़ती है।


आदि गुरु ग्रंथ के धर्म में ‘‘साध-संगत’’ यानि ऊँचे-सच्चे रोशन रूह शुद्ध आचरण वाले सज्जनों और आम जन का बड़ा महत्व है। इसे बहुत कुछ ईश्वर रूप ही माना जाता है। गुरुगद्दी के किसी भी हुकुमनामें, मर्यादा और सेवा में साध-संगत किसी न किसी रूप से सदा शामिल रहती थी। शब्द-गुरु-साध संगत और परमात्मा अकाल-पुरख के बीच एक लयात्मक जुड़ाव गुरुवााणी की सर्वभौम भावना और संगति के संवेदन से स्थापित हो जाता था। हृदय परिवर्तन का (Transformation of the soul) का यह अद्भुत प्रयोग था और उसके सकारात्मक परिणाम गुरु अर्जुनदेव जी ने देखे होंगे। इसको विराट रूप देने के प्रयोजन से ही उन्होंने तीन साल की अनथक मेहनत से आदि ग्रंथ में एक ही विचारधारा के संतों भक्तों सूफियों की वाणी एकत्र की और अनेक विरोधों-अवरोधों को पार करते हुए वाङमय के इस महासागर को आदि ग्रंथ का रूप दे कर हरिमंदिर में स्थापित किया। सारी वाणी को राग-रागनियों में बांध कर इसे


जनसाधारण तक पहुंचने योग्य बना दिया। यह कलियुग में सत युग की बुनियाद है जिसका सूत्र उन्होंने खुद ही अपने अनुरयायियों के हाथ में दिया-


बिसर गई सब ताति पराई


जब ते साध-संगत मोहि पाई। 2। रहाओ


ना को बैरी नाहि बेगाना सगल संग हमको बनि आई


जो प्रभु कीनो सो भल मानयो इहि सुमति साधु ते पाई।।


सभ में रवि रिहा प्रभु ऐको पेखि-पेखि नानक विगसाई।।3।।


आदि ग्रंथ के मत में भक्ति का स्वरूप भी बदल गया है। वह ठाले बैठे व्यक्ति का व्यक्तिगत एकांतिक धर्म नहीं है। इस भक्ति में सेवा (कर्म) का संकल्प अनिवार्य रूप से जुड़ गया है। गृहस्थी में रहकर ‘नाम सिमरन’ के साथ किरत करो, वंड छको’’ यानि मेहनत करके कमाओ और इस कमाई को भी बाँट कर भोगो ‘अकेले नहीं’। यहां व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ने या कहिए कि अपने भले में दूसरों के भले को भी जोड़ने की मर्यादा बनाई गई है जो समाज के संगठन को ही मज़बूत करती है। सिख धर्म के विवाह संस्कार को भी बहुत सरल बना दिया गया ‘‘वाहिगुरु’’ का नाम आदि गुरु ग्रंन्थ और साध-संगत ही उसकी साक्षी देते हैं। दिन-तिथि-वार-घड़ी-पल सब ईश्वर के


आधीन हैं। इसलिए सभी शुभ हैं अतः लगन-मुहूर्त-ग्रह-नक्षत्रों का कोई बंधन नहीं। बहुत वैज्ञानिक आधार है कि अच्छे के लिए सोचो अच्छा करो- बुरे के लिए तैयार रहो-‘रज़ा में रहना,’ ‘माण मानना’ का यही अर्थ है। स्त्री को सम्मान देने के लिए गुरु नानक जी ने तब कहा था जब मध्य कालीन समाज की कुरीतियों से स्त्री की स्थिति बहुत दयनीय हो गई थी। गुरु अमरदास जी ने सतीप्रथा पर रोक लगा दी, परदा प्रथा को निषेध किया और स्त्री को परदे से बाहर निकलकर ‘‘संगत और पंगत’’ में बराबर का स्थान दिया।


आदि ग्रंथ के धर्म में ‘सेवा’ और ‘किरत’ (अर्थ-अर्जन के लिए काम) का बहु महत्व है। ‘किरत’ को मान्यता (Dignity of Labour) मिलने से ‘श्रम’ और ‘श्रमिक’ को सम्मान मिला और मूल्य भी। ‘सेवा’ को मान्यता मिली पर बेगार का निषेध किया गया। इससे ‘संगत’ की सेवा अर्थात् समाज की सेवा की


अवधारणा संकल्प बनकर सिख मत के अनुयायियों के आचरण में ढलती गई। सेवा में संगत का योगदान तन-मन-धन यानि श्रम, भक्ति और साधनों से होता है। लंगर की सेवा, जल-सेवा, जोड़ियों (जूतों) की सेवा, सफाई की सेवा, इमारतें, सरोवर रास्ते सड़के आदि समाज की सेवा से ही बनते थे। यह अनोखे ढंग की ‘‘कम्यून सर्विस’’ थी जिसका आधार लोकतंत्रात्मक मूल्य थे। इससे समाज का स्वाभाविक रूपांतर हो रहा था यानि यह मात्र सुधार नहीं था। रूपांतर था जो भीतर से बाहर आ रहा था पूरा संस्कार बन कर। इसके लिए सिख गुरुओं ने खुद ‘संगत’ में शामिल हो कर सिख समाज को अपने निर्माण, अपने काम खुद अपने ही साधनों से करने की सीख दी यह स्वतंत्रता और आत्म निर्भरता के लिए सिखाया जाने वाला सबक था जो मुगलों के शसन काल में सिख समाज गुरुओं से सीख रहा था। गावों में कुएं, तालाब, पाठशालाएँ सराय, गुरुद्वारे, गऊशालाएं रास्ते-लंगर सब सामूहिक सहयोग से बनने लगे। यह विकास की तरफ उठाया गया आमजनों का समूहिक प्रयास था। यह परंपरा सिख संगत में आजतक चली आ रही है। इसके देखा देखी ‘कार सेवा’ लंगर’ अब दूसरे धर्म के अनुयायी भी अपनाने लगे हैं अतः मध्यकालीन भारत में आदि ग्रंथ का सिख धर्म अपनी महान परंपराओं से ‘‘विकासशील आधुनिक समाज’’ का निर्माण कर रहा था जो ‘साहूकार’ और ‘‘जमींदारी’’ अर्थव्यवस्था से दरिद्रता से तथा अनेक प्रकार की कुरीतियों की जकड़बंदी से मुक्त पाने के लिए कमर कस चुका था।


इस पंथ के जीवन दर्शन में आंतरिक स्वच्छता पर बहुत ज़ोर दिया जाता है। तभी ‘‘हृदय में नाम का वास’’ या ‘सुमिरन’ पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इस मन में कार का वास हो  वह भटक नहीं सकता उसमें दृढ़ता एकाग्रता अपने आप आ जाती है। कर्मों की शुद्धि भी अन्तःचेतना की प्रेरणा से होने लगती है:-


मूत पलीती कपड़ होइ।।


दे साबुण लइए ओह धोइ।।


भरिए मत पापां के संगि।।


ओहु छोपै नावै के रंगि।।


नाम को धारण करने वाली ‘सुरति’ (अंतः चेतना) ब्रह्मांड की ऊर्जा में स्नान करती है इसलिए स्वयं ही दीप्तिमान हो उठती है और उसके द्वारा प्रेरित संचालित कर्म भी सात्विक होने लगते हैं। अब समस्या यह है कि चित में स्थिरता (Consistency) कैसे आए? इसका रास्ता गुरु नानक ने खोज लिया था ‘संगीत’। भारतीय संगीत की अनेक राग-रागिनियाँ पास्कल के गणित की थियोरम की तरह सही नतीजे देने वाली है। अपनी लय-ताल-सुर और स्वर की ध्वनि तरंगों से श्रोता के दृश्य-श्रवण और स्पर्श तीन इन्द्रियों से सीधे चित में प्रवेश कर भाव को स्थापित करती हैं। संगीत की ध्वनि तरंगों से केवल मनुष्य नहीं पेड़ पौधे वायु आकाश और जीव-जंतु भी तरंगित होते हैं भारतीय संगीत शास्त्र सारी प्रकृति को लयमय-संगीतमय मानता है। विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार करता है। अतः गुरु नानक जब संवर्त के भले’’ के लिए घर से निकले तो रवाबी मरदाने को साथ लेकर चले थे। जब भी इलाहीवाणी उनके स्वर में उतरती भाई भरदाने की तंत्री की झनकार भी अपनी


मधुर तरंगों से वातावरण को गतिमान बना देती। भोले भाले लोग आंखें बंद करके बैठ जाते और अपने भीतर किसी अनोखे आनंद का अनुभव करते और बावे नानक के मुरीद हो जाते। कोई संदेह नहीं, कोई प्रश्न नहीं। कई मन एक ही लय में पिरोए जाते, जो गुणी ज्ञानी, वादी-प्रतिवादी होते बाबा जी उन्हें भी लयात्मक संवाद से ही अपना प्रयोजन समझा देते। अतः गुरु नानक की इस पगडंडी को गुरु अर्जुनदेव ने आदि ग्रंथ के ‘‘उत्तम मानवीय संदेशो (Super Human sensibilities) को राग-रागिनियों में बांधकर श्रोताओं के मन को’ युनिवर्सल सत्य के साथ जोड़ने वाली पक्की सड़क बना दिया और कीर्तन का नाम दिया। ‘जाप या सिमरन’ की स्थिति को प्राप्त करने के लिए कीर्तन एक गारंटी वाला साधन है। आँखें बंद कर के बैठा भगत कीर्तन में अपने अंदर अपने साथ बैठकर अनजाने में ही अपने-आप को पाने का प्रयास करने लगता है। इस तरह आदि ग्रंथ केवल वाङमय ही नहीं संगीत का भी महासागर है।


वैज्ञानिक दृष्टि से संगीत और गुरुवाणी की गुणात्मकता (Positivity) का प्रभाव भी पूरे पर्यावरण एवं जीवों पर बड़ा सकारात्मक होता है। प्रो. पूरनसिंह ने किसी वैज्ञानिक का ज़िक्र करते हुए अपने एक लेख में बताया है कि हरिमंदिर की औरा में ऊर्जा का स्तर (Aura-energy Level) अन्य स्थानों की अपेक्षा बहुत ऊँचा है। अभी कुछ दिन पहले भी एक विदेशी पर्यावरण वैज्ञानिक ने भी इस बात की पुष्टि की थी। उसने यह भी कहा कि कैंपस के अन्दर आकर इसीलिए सुखद महसूस होता है क्योंकि पश्चिमी जीवन दर्शन में विज्ञान के आधार ज़्यादा सक्रिय है। वहाँ ‘आम जीवन में सकारात्मकता ((Positivity) का बहुत अमल होता है। मानसिक और शारीरिक तौर पर अच्छी सेहत के लिए इसका आंतरिक कैमिस्ट्री से सीधा संबंध है। क्योंकि नकारात्मकता शरीर की कैमिस्ट्री में ज़हरीले रासायन के रसाव को प्रेरित करती है। और बायलौजीकल (Biological and clinical) संतुलन बिगाड़ती है। इसीलिए वे आमतौर पर सकारात्मक आचरण (Positive Behaviour) का पूरा अभ्यास बचपन से ही करते-कराते हैं। ‘‘क्षमा कर दो’ ‘‘गुण को देखो, प्रशंसा करो’ ‘प्रेम, दया, परोपकार, दूसरों की मदद करना, चैरिटी, सेवा (रोगियों, अपाहिजों की) और ‘कनफैशन’ जैसे आचरण पर बहुत जोर दिया जाता है। श्री गुरु आदि ग्रन्थ का पूरा अमल ही इस वैज्ञानिकता पर आधारित है जिसे पहचाना नहीं गया। यह सब से नया धर्म नये युग की बात करता है। जरूरत है उसे पूरे वैज्ञानिक तरीके से समझने और समझाने की। कीर्तन और वह भी


गुरुवाणी का साक्षात् संजीवनी जैसा काम करता है। ‘‘सकल दुखन को औषध नाम’’ में कोई गहरा वैज्ञानिक रहस्य है इसकी इसी दृष्टि से खोज होनी चाहिए।


अमेरिका की कई युनिवर्सिटयों में रोमन कैथोलिक चर्च तथा अन्य संस्थाओं द्वारा बाइबिल की स्थापनाओं पर वैज्ञानिक प्रयोग करवाए जा रहे हैं। कैलिर्फोर्निया की स्टैंफर्ड युनिवर्सिटी इसमें सब से अग्रणी है। दुःख की बात है कि हमारे यहाँ ‘‘सिख धर्म’’ सबसे ज़्यादा वैज्ञानिक होने के बावजूद यह अभी तक अकादमिक चेयरों तक ही सीमित है। इस धर्म के आस्थावानों को मैं याद दिलाना चाहती हूँ कि गुरु आदि ग्रंथ का धर्म जन साधारण के लिए है-कार्लमाक्र्स का कम्यूनविधान तो आधा अधूरा है पर बाबानानक का कम्यून सिस्टम एक


सम्पूर्ण (perfect complete commune System) है। इसे जीवन के बीच ही रहने दिया जाए सोने और पत्थरों की इमारतों में बंद करने की ब्राह्मणी प्रवृृति से परहेज़ वर्ता जाए तो पूरे विश्व समाज के हित में होगा। धर्म से राजनीति अब आदेश-दिशा था संकेत लेती नहीं बल्कि अपने हित में उसका दुरुपयोग करती है। ‘वाणे’ से ज़्यादा ‘वाणी’ पर ध्यान देना जरूरी है ‘करनी और कथनी’ में अन्तर आ गया है। जहां आदि ग्रंथ का धर्म हो वहाँ नशे-भ्रष्टाचार हिंसा-अंध विश्वासों का तो सफाया हो जाना चाहिए पर ऐसा हो नहीं रहा है। गुरुआंे की धरती पर आज भी स्थिति वैसी ही बन रही है जैसी 550 साल पहले थी-


कलि काति राजे कासाई धर्म पंख पर उडरिया।


कूड़ अमावस सचु चन्द्रमा दीसे नाही कह चड़िया।।


गुरु ग्रंथ का धर्म अपनी शक्ति से बचा हुआ है पर जिस तरह इसमें राजनीति की जकड़बंदी पक्की हो रही है उससे तो यह आशंका होती है कि इसकी दशा भी कहीं बौध धर्म जैसी न हो जाए। समय की चेतावनी को सिख आगुओं को समय रहते सुन लेना चाहिए। ‘‘विपुन और वणिको’’ की रीति इस भारत भूखंड को, समाज के मानस को फिर से रोगी बनाने को तैयार बैठी है। यह ऊँची जातियों की व्याख्या मध्यकालीन स्थितियों को वापस लाने की पूरी कोशिश कर रही। इसलिए वाणे की बहस से ज़्यादा ज़रूरी है ‘वाणी-करनी-कथनी’ और आस्था का संस्कार गुरु आदि ग्रंथ के आदेश के अनुसार पक्का करना। आधार मजबूत करना। लोक अब पढ़लिख गए हैं तर्कशील हो रहे हैं। अतः इस वैज्ञानिक धर्म की व्याख्या पर तुरंत सक्रिय पहल करने की समय की माँग है। जिनके हाथ में राजनीतिक शक्ति है उन्हें अपने आचरण पर इस डंडे के साथ पहरा देना चाहिए।


थाल विच तिन वस्तु पइयो सतु संतोष वीचारो।


अमृत नाम ठाकुर का पाइयो जिसका सबसे आधारो।।


आज के संदर्भ में इसकी व्याख्या आदि ग्रंथ के धर्म में विश्वास रखने वाले हर व्यक्ति को सदा याद रखने की जरूरत है यानि आचरण के थाल में तीन वस्तु-सत्य, संतोष और विचार (Truth + Consistancy + Integrity + Thought) को रखना चाहिए। आदि गुरु की इस 550वीं वर्षगांठ में इस उतम मानवीय धर्म की महान परंपराआंे को अमल के लिए संकल्प सामूहिक तौर पर लिए जाएं। उनके लिए एकशन प्लेन (Resolution & Action Plan) फ्रेम किए जाएं जो समयबद्ध हों जिससे ‘‘शोषण मुक्त, निर्भय, निवैर, निर्दोष और नीरोग’ समाज की परिकल्पना को साकार करने के लिए रास्ते बनाए जा सके। और गुरु अर्जुन-गुरुतेगबहादुर जी ने जिस सर्वभौम भाईचारे के लिए कुर्बानियां दी उसका संदेश ग्लोब की चारों दिशाओं में फैलाया जा सके। बढ़ते टकरावों, भयानक रूप धारण करते आतंकवाद के भस्मासुर के बढ़ते कदमों को रोकने में ‘सिख समाज’ बहुत सकारात्मक सक्रिय रोल अदा कर सकता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संगठित प्रयासों की जरूरत हैं। जरूरत है बाणे के साथ भी बाणे के बिना ही आदि ग्रंथ की परंपराओं का पालन किया जाए और ऐसा वातावरण बने कि विश्व बंधुत्व की भावना से इस आरती का संगीत चारों दिशाओं में गुंजने लगे-


गगन में थल रविचंद दीपका बने


तारिका मंडला जनक मोती।।


धूप मलियान लो पवणु चवरो करे।


सकल बनराई फुलंत जोति।।


कैसी आरती होई भवखंडना तेरी आरती।।       आमीन



Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य